कामकाज व निजी जिंदगी के बीच संतुलन न होने से 52 प्रतिशत कर्मचारी बर्नआउट के शिकार

जानिए क्यों जरूरी है वर्क-लाइफ बैलेंस? क्या है बर्नआउट का मतलब?

WD News Desk
बुधवार, 12 मार्च 2025 (18:31 IST)
नई दिल्ली। भारत के लगभग 52 प्रतिशत कर्मचारी कामकाज और निजी जिंदगी के बीच खराब संतुलन की वजह से 'बर्नआउट' जैसी स्थिति का अनुभव करते हैं। एक अध्ययन रिपोर्ट में यह निष्कर्ष पेश किया गया है। 'बर्नआउट' का मतलब है कि कर्मचारी लंबे समय तक तनाव रहने की वजह से शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक स्तर पर थकान महसूस करने लगता है।
 
न्यूयॉर्क स्थित बिजनेस प्रोसेस मैनेजमेंट प्लेयर वर्टेक्स ग्रुप ने भारत के 5 राज्यों में किए गए एक सर्वेक्षण के आधार पर यह नतीजा निकाला है। सर्वेक्षण से पता चलता है कि महामारी के बाद की दुनिया की चुनौतियों का सामना कर रहे 52 प्रतिशत कर्मचारी कामकाज और निजी जिंदगी के बीच सही संतुलन न होने की वजह से 'बर्नआउट' का अनुभव करते हैं।
 
वर्टेक्स ग्रुप ने बयान में कहा कि इस सर्वेक्षण में कर्मचारियों की अपने कार्यस्थल से अपेक्षा पर बल दिया गया है। इसमें लचीले कामकाजी घंटों की बढ़ती मांग और व्यक्तिगत एवं पेशेवर कर्तव्यों के बीच एक स्वस्थ संतुलन पर प्रकाश डाला गया है। सर्वेक्षण में दिल्ली, उत्तरप्रदेश, कर्नाटक, पंजाब और आंध्रप्रदेश में रहने वाले 1,500 से अधिक कामकाजी व्यक्तियों से जानकारी एकत्र की गई।
 
वर्टेक्स ग्रुप के संस्थापक गगन अरोड़ा ने कहा कि कामकाज और जिंदगी के बीच संतुलन समय की मांग है, खासकर आईटी क्षेत्र में। संगठनों को कर्मचारियों की अपेक्षाओं के अनुरूप ढलना चाहिए और सप्ताहांत पर उन पर काम का बोझ नहीं डालना चाहिए।
 
उन्होंने कहा कि सप्ताहांत कर्मचारियों के लिए तरोताजा होने और अगले हफ्ते के लिए खुद को तैयार करने का समय होना चाहिए। जब तक बहुत जरूरी न हो, कर्मचारियों को इस समय काम नहीं सौंपा जाना चाहिए। सर्वेक्षण से यह भी पता चला कि 23 प्रतिशत से अधिक कर्मचारी निर्धारित कामकाजी घंटों से अधिक काम करते हैं।
 
इसके मुताबिक कर्मचारियों का मानसिक स्वास्थ्य नियोक्ता संगठन के विकास के लिए महत्वपूर्ण है और काम से जुड़े तनाव के चलते हाल ही में कई कारोबारी दिग्गजों एवं कर्मचारियों की असमय मौत उच्च तनाव वाले व्यवसायों में स्वास्थ्य को प्राथमिकता देने की तत्काल जरूरत पर बल देती है।
 
इस सर्वेक्षण में एक चौंकाने वाला निष्कर्ष भी सामने आया कि 8-9 घंटे की शिफ्ट में 20 प्रतिशत से अधिक कर्मचारी केवल 2.5 से 3.5 घंटे ही उत्पादक होते हैं। यह दर्शाता है कि काम के घंटे बढ़ाने से कर्मचारी की उत्पादकता और रचनात्मकता काफी कम हो सकती है।
 
अरोड़ा ने कहा कि इस प्रौद्योगिकी-केंद्रित दौर में इंसान काम और जिंदगी के बीच खराब संतुलन की वजह से रोबोट में तब्दील होते जा रहे हैं और आखिरकार अपनी जान गंवा दे रहे हैं। ऐसी स्थिति में कार्यालय से परे काम के घंटे बढ़ाने के बजाय कौशल और उत्पादकता बढ़ाने के लिए प्रौद्योगिकी का उपयोग करना महत्वपूर्ण है। (भाषा) 
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