'मधुशाला' के रचयिता डॉ. हरिवंश राय बच्चन हिंदी साहित्य के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। उनका जन्म 27 नवंबर, 1907 को इलाहाबाद के एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ। इलाहाबाद विश्वविद्यालय तथा बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद सन् 1941 से 1952 तक वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अँगरेजी के प्राध्यापक रहे।
उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से 'डब्ल्यू.वी. येट्स एंड ऑकल्टिजम' विषय पर शोध किया। फिर कुछ महीने आकाशवाणी, इलाहाबाद में काम करने के बाद 1955 में वे भारत सरकार के विदेश मंत्रालय में विशेष कार्याधिकारी (हिंदी) नियुक्त हुए। सन् 1966 में उन्हें राज्यसभा के लिए मनोनीत किया गया।
बच्चनजी सन् 1935 में 'मधुशाला' के कारण ख्यात हुए। यह रचना तब से लेकर आज तक पाठकों को मदमत्त करती आ रही है। उनकी अन्य रचनाओं में मधुकलश, मधुकाव्य, खादी के फूल प्रमुख हैं। बच्चनजी ने अपनी आत्मकथा चार खंडों में लिखी। ये खंड सन् 1969 से 1985 की अवधि में प्रकाशित हुए। इनके नाम हैं- 'क्या भूलूँ क्या याद करूँ' (जन्म 1936 तक), 'नीड़ का निर्माण फिर' (1951 तक), 'बसेरे से दूर' (1955 तक) और 'दशद्वार से सोपान तक' (1985 तक)
उन्हें पद्म भूषण, साहित्य अकादमी पुरस्कार, अफ्रीका-एशिया लेखक संघ कॉन्फ्रेंस का लोटस पुरस्कार, साहित्य वाचस्पति उपाधि तथा प्रथम सरस्वती सम्मान से नवाजा जा चुका है।
पंतजी ने अमिताभ का नामकरण किया था। तेजी तो बड़ी तीव्र गति से बदल रही थीं। मैंने उन्हें प्रेयसी के रूप में जाना ही था कि वे पत्नी हो गईं, पत्नी होते उन्हें देर नहीं लगी कि उनमें मातृत्व का बीजारोपण हो गया। नारी बड़ी लचीली होती है, वह परिवर्तनों को बड़ी आसानी से झेल लेती है। पुरुष इतना नमनीय नहीं होता। प्रेमी से पति और पति से भविष्य पिता इस परिवर्तन के प्रत्यक्ष होने पर भी मेरा मन अभी अपने प्रेमी रूप पर ही अटका था।
विवाह के कई वर्षों बाद तक जो मैं प्रेम की कविताएँ लिखता रहा, शायद उसका एक रहस्य यही है। फिर मैं कवि था, कलाकार था। मेरे भौतिक जीवन के विकास के साथ, समानांतर मेरा एक वांगमय जीवन भी चल रहा था। जीवन सहसा घटित का अनभ्यस्त नहीं, कला की दुनिया उससे अपनी पटरी नहीं बिठा पाती। मेरे वांगमय जीवन को कला की सहज, स्वाभाविक, क्रमानुगत गति से ही बदलना था। इसकी ओर शायद मैं पहले भी संकेत कर चुका हूँ। मुझे समझने में थोड़ा मेरे कवि को भी समझना होगा।
नर-नारी संबंध बड़ा रहस्यमय है। कभी लौह श्रृंखलाओं के बंधन फूल मालाओं के से लगते हैं, कभी फूल मालाओं के बंधन लौह श्रृंखला के से। कभी कमल नाल तंतु के बंधन तोड़े नहीं टूटते और कभी मजबूत जंजीरें हवा के हल्के झोंकों से खंड-खंड हो जाती हैं। उन्हीं दिनों हमने प्रसव, मातृत्व, बच्चे की देख-रेख पर बहुत सा साहित्य भी खरीदा और पढ़ा। यह सब अँगरेजी में था, हिंदी में उन दिनों ऐसे विषयों पर शायद ही अच्छी या कैसी भी किताबें हों। किताबी ज्ञान अधूरा होता है, फिर भी हमने बहुत सी उपयोगी और लाभकारी बातें जानीं।
दस अक्टूबर आ गई। यह पिताजी के देहावसान की तारीख थी। तिथियों के हिसाब से उनकी वर्षी कुछ दिन पहले पड़ चुकी थी और मेरे छोटे भाई ने कलकत्ता से आकर उसको सविधि संपन्न करा दिया था। मेरे मन में पिताजी की मृत्यु और उससे संबद्ध परिस्थितयां दस अक्टूबर से ही जुड़ी थीं। स्वाभाविक था कि उस दिन रह-रहकर मुझे वर्ष भर पूर्व की घटनाएँ याद आतीं इस वर्ष भर ने मुझे क्या से क्या कर दिया था।
अब मेरा व्यवस्थित जीवन था, मैं एक स्वतंत्र, स्वच्छ, सुरुचि सज्जित घर में रहता था, घर में मेरी सुंदर, स्नेहमयी, प्रसन्न वदना संगिनी थी और सबके ऊपर बस आज-कल में नवजीवन के नव कल्लोल से यह घर गूंजने वाला था। मुझे लगता मैं अपनी जीवन सहचरी के साथ किसी सुदृढ़ चट्टान पर खड़ा हूँ और विषादमयी सुधियों की लहरें आ-आकर उससे टकरातीं और पछाड़ खाकर पीछे चली जाती हैं।
शाम को पंतजी हमसे मिलने आए। वे एक सप्ताह पूर्व अल्मोड़ा से इलाहाबाद आ गए थे और बेली रोड पर अपने संबंधी पांडेजी के साथ ठहरे थे। बैंक रोड और बेली रोड में ज्यादा फासला न था, पंतजी दूसरे-तीसरे शाम को तेजी और मुझसे मिलने आ जाते। पहली भेंट में ही पंतजी ने तेजी को और तेजी ने पंतजी को पसंद किया था। उनकी कविताओं और उनके अपने पूर्व संबंध से मैं उन्हें पहले ही परिचित करा चुका था।
पंतजी का इरादा जाड़ोंभर इलाहाबाद में रहने का था। तेजी ने पंतजी को आमंत्रित किया कि वे हमारे साथ ही आकर रहें। पंतजी ने इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया। वे दूसरे दिन अपने सामान के साथ मेरे यहां आने वाले थे। हमने उनके लिए बाहरी बरामदे के एक ओर का छोटा कमरा ठीक करा दया था। उसके ठीक दूसरी ओर मेरा अध्ययन कक्ष था।
रात को मैंने एक विचित्र स्वप्न देखा। मैंने देखा कि जैसे चक पर वाला हमारा पुश्तैनी घर है, उसमें पूजा की कोठरी में बैठ मेरे पिताजी आँखों पर चश्मा लगाए सामने रेहल पर रामचरित मानस की पोथी खोले मास पारायण के पाँचवें विश्राम का पाठ कर रहे हैं, इसमें वह प्रसंग है, जिसमें अपनी अर्धांगिनी शतरूपा के साथ मनुतपस्या करते हैं और जब उनकी तपस्या से संतुष्ट होकर भगवान विष्णु उनके सामने प्रकट होते हैं तब वे उनसे वरदान मांगते हैं, चाहउं तुम्हहि समान सुत' और मैं तेजी के साथ पूजा की कोठरी के सामने बैठा सुन रहा हूँ। पिताजी के मुख से एक-एक शब्द स्पष्ट मैंने सुना है,
डॉ. हरिवंशराय बच्चन
आपु सरिस खोजौं कहं जाई।
नृप तब तनय होब मैं आई॥
कि तेजी ने मुझे जगाकर बताया कि उनके पेट में पीड़ा आरंभ हो गई है। ब्रह्म मुहूर्त था। सपना इतना स्पष्ट था और मैं उसे इतना अभिभूत था कि मैं उसे बगैर तेजी से बताए न रहा सका। तर्क वाली व्याख्या तो सपने की मैंने बाद में की। पर उस अधजागे-अधसोए से मेरे मुँह से निकल गया, तेजी तुम्हें लड़का ही होगा और उसके रूप में मेरे पिताजी की आत्मा आ रही है। तेजी ने इस सपने को परा-प्रकृति का संकेत समझा और आज भी उन्हें इसके विषय में संदेह या अविश्वास नहीं है।
मनोवैज्ञानिक समाधान शायद स्वप्न का यह है कि उस दिन मुझे पिताजी की बहुत याद आई थी, मानस पाठ करते हुए उनका रूप बचपन से मेरे दिमाग में बैठा था, तेजी के प्रसविनी बनने का समय आ पहुंचा था और इस संबंध में कई तरह के प्रश्न मेरे मन में उठते थे। मेरे अवचेतन ने जैसे उस स्वप्न के रूप में उनका उत्तर दिया पर इस उत्तर से न तो मैं पूरी तरह संतुष्ट हूँ और न रहस्य पर से पूरी तरह परदा ही हटा है। अपने पारिवारिक जीवन में मुझे कई बार इसका अनुभव हुआ है, जैसे मेरे पिताजी की आत्मा हमारे बीच सक्रिय है। इसे मैं तर्क से सिद्ध नहीं कर सकता। सब कुछ तर्क से सिद्ध किया भी नहीं जा सकता और हैमलेट के शब्दों में कहना पड़ता है,
...ओ होरेशियो, सुनो हमारे
दर्शन की कल्पना जहाँ तक पहुँच सकी है,
धरा-गगन में उसके आगे बहुत पड़ा है।
एक बात को याद कर आज भी हंसी आती है कि यह जानने के लिए कि यह दर्द प्रसव का है या अन्य किसी प्रकार का, हमने एक किताब खोली! उसमें लिखा था कि प्रसव की पीड़ा लगातार न होकर रह-रहकर उठती है और यह दर्द पीठ की ओर से उठकर पेट की ओर चलता है। दर्द का लक्षण इसमें मिलता-जुलता देखकर मैं लेडी डॉक्टर बरार को बुला लाया और वे तेजी को अपनी मोटर में बिठाकर अपने नर्सिंग होम ले गईं।
नारी जीवन के एक महत्वपूर्ण अवसर और संकटापन्न स्थिति में एक बार फिर वे सर्वथैव एकाकी थीं। पर उन्होंने अपने मन को छोटा नहीं किया था। अपराह्न में दिनभर की कठिन प्रसव पीर के पश्चात तेजी ने पुत्र को जन्म दिया।
पंतजी, जैसा पूर्व निश्चित था, दिन को ही घर पर आ गए थे। शाम को वे प्रसूता और प्रसूत को देखने आए तो बच्चे को देखकर उन्होंने अमिताभ नाम दिया।
पिता बनने की अनुभूति और उसके उल्लास को, विशेषकर जब उसका अवसर विलंब से जीवन में आए, गद्य नहीं वहन कर सकता- 'दशरथ पुत्र जन्म सुनि काना : मानहूँ ब्रह्मानंद समाना'। इसलिए उस दिवस की स्मृति में लिखी कविता का आश्रय लेना चाहता हूँ।
फुल्ल कमल,
गोद नवल,
मोद नवल,
गेह में विनोद नवल।
बाल नवल,
लाल नवल,
दीपक में ज्वाल नवल।
आत्मकथा (नीड़ का निर्माण फिर, हरिवंशराय बचन)