कुंभ मेला क्यों आयोजित होता है? इस संबंध में हमें तीन कथाएं मिलती हैं। पहली महर्षि दुर्वास की कथा, कद्रू-विनता की कथा और तीसरी समुद्र-मंथन की कथा। समुद्र मंथन की कथा तो सभी को मालूम ही है कि किस तरह देव और दैत्यों में अमृत कलश को छिनाछपती हुई और उससे अमृत झलकर की नीचे चार स्थानों पर गिरा जहां अब कुंभ आयोजित होता है। परंतु यह भी कहा जाता है कि यह कुंभ कद्रू-विनता की कथा से जुड़ी है। आओ जानते हैं इस संबंध में कथा।
कद्रू-विनता की कथा : दूसरी कथा प्रजापति कश्यप की दो पत्नियों के सौतियाडाह से संबद्ध है। विवाद इस बात पर हुआ कि सूर्य के अश्व काले हैं या सफेद। जिसकी बात झूठी निकलेगी वहीं दासी बन जाएगी। कद्रू के पुत्र थे नागराज वासु और विनता के पुत्र थे वैनतेय गरुड़। कद्रू ने अपने नागवंशों को प्रेरित करके उनके कालेपन से सूर्य के अश्वों को ढक दिया फलतः विनता हार गई।
दासी के रूप में अपने को असहाय संकट से छुड़ाने के लिए विनता ने अपने पुत्र गरुड़ से कहा, तो उन्होंने पूछा कि ऐसा कैसे हो सकता है। कद्रू ने शर्त रखी कि नागलोक से वासुकि-रक्षित अमृत-कुंभ जब भी कोई ला देगा, मैं उसे दासत्व से मुक्ति दे दूंगी। विनता ने अपने पुत्र को यह दायित्व सौंपा जिसमें वे सफल हुए।
गरुड़ अमृत कलश को लेकर भू-लोक होते हुए अपने पिता कश्यप मुनि के उत्तराखंड में गंधमादन पर्वत पर स्थित आश्रम के लिए चल पड़े। उधर, वासुकि ने इन्द्र को सूचना दे दी। इन्द्र ने गरुड़ पर 4 बार आक्रमण किया और चारों प्रसिद्ध स्थानों पर कुंभ का अमृत छलका जिससे कुंभ पर्व की धारणा उत्पन्न हुई।
देवासुर संग्राम की जगह इस कथा में गरुड़ नाग संघर्ष प्रमुख हो गया। जयन्त की जगह स्वयं इन्द्र सामने आ गए। यह कहना कठिन है कि कौन-सी कथा अधिक विश्वसनीय और लोकप्रिय है, पर व्यापक रूप से अमृत-मंथन की उस कथा को अधिक महत्व दिया जाता है जिसमें स्वयं विष्णु मोहिनी रूप धारण करके असुरों को छल से पराजित करते हैं।
सपत्नी भाव लोकप्रियता भी कम नहीं कहीं जा सकती और गरुड़ का संदर्भ भी अनुपेक्षणीय है, परन्तु कुल मिलाकर विशेष प्रसिद्धि समुद्र-मंथन की कथा को ही मिली। दुर्वासा की कथा में भी समुद्र-मंथन का प्रसंग समाहित है। इसलिए भी उनका मूल्य बढ़ जाता है।
कश्यप की संततियों का पारम्परिक युद्ध देवासुर-संग्राम जैसा प्रभावी रूप ग्रहण नहीं कर सका यद्यपि उसकी प्राचीनता संदिग्ध नहीं है। गरुड़ की महत्ता विष्णु से जुड़ गई और वासुकि रूप में नागों का संबंध शिव से अधिक माना गया। यहां भी शैव-वैष्णव भाव देखा जा सकता है, जो बड़े द्वन्द्वात्मक संघर्ष के बाद अंततः हरिहरात्मक ऐक्य ग्रहण कर लेता है।
संदर्भ : रामानुज संप्रदाय के आचार्य श्रीगोपालदत्त शास्त्री महाराज द्वारा लिखित एक लघु पुस्तिका 'तीर्थराज प्रयाग कुंभ महात्म्य' से साभार।