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चुनाव आयोग का 'हाथ', मोदी के साथ

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नई दिल्ली , सोमवार, 18 दिसंबर 2017 (15:31 IST)
नई दिल्ली। गुजरात चुनाव में भाजपा या कहें कि इसकी वन मैन आर्मी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की जीत तो पहले से ही तय थी। लेकिन गुजरात चुनावों को सम्पन्न कराने के दौरान भारतीय चुनाव आयोग ने कुछ ऐसे काम भी किए हैं जिन्होंने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से केन्द्र सरकार और भाजपा को लाभ पहुंचाया। इन उदाहरणों से भारत के चुनाव आयोग की छवि धूमिल हुई और ‍उसकी निष्पक्षता भी संदेह के घेरे में बनी रही।
 
विदित हो कि ब्रिटेन के दिग्गज प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति गोर्डन हेवार्ट ने वर्ष 1924 में एक ऐतिहासिक बयान जारी किया था जो कि एक ऐसा महत्वपूर्ण उदाहरण बन गया है जोकि आज तक न्यायालयों का दिशानिर्देशक मंत्र बना हुआ है।     
 
हेवार्ट का कहना था कि यह केवल कुछ महत्व की नहीं वरन बुनियादी महत्व की बात है कि न्याय ना केवल किया जाना चाहिए वरन 'सार्वजनिक तौर पर और बिना किसी संदेह के किया जाता भी दिखना चाहिए।' यह आधारभूत निष्कर्ष उन सभी संस्थाओं पर लागू होता है जोकि कानून का पालन कराने का काम करती हैं और भारतीय चुनाव आयोग इसका अपवाद नहीं है। गुजरात चुनाव प्रचार की अवधि के प्रारंभ से अंतिम समय में ऐसे निर्णय लिया गया जिससे चुनाव संस्था के हाथों न्याय के विचार का अपमान किया गया।  
 
चुनाव प्रचार के आखिरी दौर में जब कांग्रेस और भाजपा का प्रचार कटुतम दौर में पहुंच चुका था। प्रचार मंगलवार को समाप्त हुआ था। पर कुछ टीवी चैनलों ने गुजरात में कांग्रेस के नव-नियुक्त अध्‍यक्ष राहुल गांधी का साक्षात्कार प्रसारित किया हालांकि प्रचार की अवधि समाप्त हो चुकी थी। भाजपा ने चुनाव आयोग से शिकायतें की जिसने कुछेक घंटों के अंदर ही न्यूज चैनल्स के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का आदेश दिया।  
 
लेकिन, गुरुवार के दिन आयोग की तत्परता तब तेल लेने चली गई जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अहमदाबाद में अपने वोट डालने को एक तमाशा बना दिया और इसे छोटे-मोटे रोड शो में बदल दिया। यह सब तक हुआ जब वे अपना वोट डालकर मतदान केन्द्र से बाहर आए थे। सभी टीवी चैनलों ने इस घटना का सजीव प्रसारण किया।
 
कांग्रेस ने तुरंत ही इस पर अपनी आपत्ति दर्ज कराई और कहा कि एक संवैधानिक कर्तव्य का पालन करते समय इस तरह का आडम्बर प्रधानमंत्री मोदी द्वारा आदर्श चुनाव आचार संहिता का प्रत्यक्ष उल्लंघन था। लेकिन आयोग के कान पर जूं भी नहीं रेंगी और बाद में उल्टा कांग्रेस पर ही दोषारोपण कर दिया कि उसने गुरुवार को 1 बजे तक शिकायत करने के निर्धारित समय का पालन नहीं किया। बाद में, आयोग का कहना था कि प्रधानमंत्री मोदी के कथित रोड शो की शिकायतों की समीक्षा की जा रही है। जबकि भाजपा ने दावा कर दिया कि यह किसी प्रकार का कोई रोड शो नहीं था। 
 
रोड शो शिकायतों का एकमात्र हिस्सा था। कांग्रेस का कहना था कि राहुल गांधी का इंटरव्यू दिखाने के लिए तो आयोग ने टीवी चैनलों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का आदेश दिया लेकिन जब भाजपा ने नियम कानूनों का उल्लंघनों को बताया गया तो आयोग ने आंखें ही मूंद लीं। केन्द्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने आठ दिसंबर को अहमदाबाद में पार्टी के चुनाव घोषणा पत्र को जारी किया जबकि  पहले दौर का चुनाव प्रचार समाप्त हो चुका था। खुद मोदी ने 9 दिसंबर को चार सार्वजनिक सभाएं कीं और उस दिन पहले दौर के मतदान का दिन था।
 
इन दोनों ही बातों को मीडिया ने कवर किया और उन क्षेत्रों में भी टेलिकास्ट किया जहां वोट डाले जा रहे थे। कांग्रेस का यह भी आरोप है कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने बुधवार को अहमदाबाद में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित किया। जब कांग्रेस के नेताओं ने चिल्ल पों मचाई और चुनाव आयोग पर मनमानी और पक्षपातपूर्ण कार्रवाई करने की बात कही तब कहीं चुनाव आयोग की ओर से कहा गया कि आयोग ने गुजरात के मुख्य चुनाव अधिकारी से शिकायतों पर एक रिपोर्ट मांगी है। 
 
दोष देने के लिए किसी भी संवैधानिक संस्था के लोगों पर उंगली उठाना एक अस्वास्थ्यकर प्रवृत्ति है लेकिन यह चुनाव आयोग की अतिरिक्त जिम्मेदारी है कि वह यह सुनिश्चित करे कि मुख्‍य चुनाव आयुक्त पर इस तरह की कोई गुंजाइश ही नहीं छोड़ी जाए। इस मामले में उल्लेखनीय है कि मुख्य चुनाव आयुक्त, अचल कुमार जोति, गुजरात कैडर के अधिकारी थे जिनके बारे में कहा जाता है कि वे मुख्य चुनाव आयुक्त बनने से पहले प्रधानमंत्री कार्यालय के करीबी रहे हैं।  
 
जिस गति और ताकत से प्रतियोगी पार्टी की शिकायतों पर कार्रवाई करने में आयोग ने जो सुस्ती दिखाई गई वह कांग्रेस के इन आरोपों को बल देती है कि चुनाव आयोग सत्तारूढ़ पार्टी की 'खास एजेंसी' और मोदी सरकार की 'कठपुतली' है। अब अगर आयोग को लोगों का विश्वास जीतना है और हेवार्ट्‍स के शब्दों को शब्दों और भावों के अनुरूप बनाना है तो इसे सुनिश्चित करना चाहिए कि न्याय होता हुआ भी दिखे। इसमें कोई दो राय नहीं है कि अगर मोदी को गुजरात में चुनाव तिथि की घोषणाओं में इतना समय न दिया जाता तो प्रधानमंत्री को संसद के सत्र की पूरी तरह से अनदेखी न करनी पड़ती और देश का प्रधान सेवक देश की एक पार्टी का प्रधान प्रचारक बनकर पार्टी को जिताने की स्थिति में नहीं होता। 
 
चुनाव आयोग का निर्णय और गुजरात का 'विकास मॉडल' का सच यही है कि वहां पर आयोग को अपनी परम्परा से हटते हुए गुजरात के चुनाव की घोषणा टालनी पड़ी ताकि प्रधानमंत्री को अधिकाधिक प्रचार का मौका मिल सके क्योंकि देश में भाजपा का अर्थ नरेन्द्र मोदी और नरेन्द्र मोदी का अर्थ प्रधान प्रचारक है, बाकी तो भाजपा में बैड, बाजा और बाराज है जिसमें तरह-तरह के नेता, अभिनेता शामिल हैं। सभी जानते हैं कि जिन भी प्रदेशों में चुनाव 6 महीने के अंतर से होने वाले हों वहां की चुनाव तिथियों की घोषणा एक साथ की जाती रही है। 
 
इस बार भी गुजरात और हिमाचल के चुनाव होने थे और मतगणना भी एक साथ ही लेकिन आयोग ने हिमाचल प्रदेश के चुनाव की घोषणा कर दी और गुजरात की टाल दी – ये निर्णय ही अपने आप में कई प्रश्न खड़े कर देता है? अगर चिदम्बरम का कहना था कि आयोग प्रधानमंत्री से पूछकर चुनाव की तिथियां घोषित करेगा तो इसमें गलत क्या था?
 
मोदी जी, 16 अक्टूबर को गुजरात में जनसभा करने वाले थे। क्या यह मान लें कि इसी कारण चुनाव की घोषणा नहीं की गई थी? ऐसा क्या होने वाला था इस जनसभा में जो चुनाव की घोषणा के बाद नहीं हो सकता था? जाहिर है कि चुनाव की घोषणा होने के बाद आचार-संहिता लग जाती और कोई भी सरकारी स्कीम, कार्यक्रम, लुभावने वादों आदि की घोषणा नहीं हो पाती। जैसा कि प्रधानमंत्री ने अपने प्रचार के दौरान किया। 
 
तब क्या यह मानें कि गुजरात का विकास–मॉडल जो हम सब के सामने पिछले कई वर्षों से लगातार दिखाया जा रहा है उसे अभी भी सरकार के चुनावी वादों की जरुरत है? क्या वाकई कोई मॉडल था या महज एक दिखावा? प्रधानमंत्री मोदी को यह दिखावा छोड़कर लोगों को वास्तविकता से परिचित कराना चाहिए।

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