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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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गुड़ीपड़वा पर्व : भारतीय संस्कृति का एक और शुभ दिन, जानिए महत्व

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डॉ. छाया मंगल मिश्र

प्रतिवर्ष आने वाला गुड़ीपड़वा पर्व फिर आ रहा है। बधाइयां ला रहा है, पर हम तो वहीं हैं जहां कल खड़े थे। समय बदल गया,कैलेंडर बदल गया, हम नहीं बदले। बधाई दे देना, नव वर्ष शुभ हो कहने भर से खुशियां कभी नहीं बरसतीं। नया बनना होगा, नया भाव जगाना होगा। समाज देश को नूतन आयामों में सजाना होगा। संस्कृति, परंपरा, धर्म, जाति आदि के आधार पर इन में व्याप्त विसंगतियों पर अंकुश लगाना होगा। प्रश्न चाहे जन, समाज, राष्ट्र का हो सभी के प्रति सेवाभाव से युक्त समर्पण और राष्ट्र हित सर्वोपरि का भाव लाना होगा, तभी विश्व जनमानस के समक्ष हम निर्भिकता से कहने के अधिकारी होंगे, भारतीय नववर्ष की असीम शुभकामनाएं... 
 
द्यौ: शांतिरंतरिक्षं शान्ति: 
पृथिवी: शांन्ति: आप: शान्ति: 
औषधय: शान्ति: वनस्पतय:शान्ति: 
विश्वेदेवा: शान्ति: ब्रह्मशान्ति: 
सर्व शान्तिरेवशान्ति: सामाशान्तिरेधि । 
सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया: । 
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:खमाप्नुयात् ।। 
ओम शान्ति: शान्ति: शान्ति:। 
 
इस वर्ष का आरंभ इस प्रार्थना से करें, माननीय प्रधानमंत्री जी के नेतृत्व में राष्ट्रहित हेतु ‘जान है तो जहान है’ का पालन करते हुए, कड़ाई से पालन करने के लिए वचनबद्ध हो, इस वर्ष का ये उत्सव अति आवश्यक सावधानियों को बरतते हुए अपने अपने घरों में मनाएं...यदि आप चाहते हैं कि कोई अनहोनी न घटे, न आपके साथ, न परिजनों के साथ, न समाज के साथ, न राष्ट्र के साथ. जीवित रहे तो कई नववर्ष फिर मनाएंगे...
 
पिछले साल की तरह इस वर्ष का यह प्रतिपदा पर्व चिरस्मरणीय होगा।जीवन की इस अनिश्चितता में, जबकि मृत्यु के भय और अभय का सूक्ष्म अंतर समाप्त होने की कगार पर विश्व जूझ रहा है, हमें विनयावनत होना चाहिए, अपनी जगतधात्री प्रकृति, सभी धर्म, गोचर-अगोचर व निर्गुण-सगुण रूप में सभी के प्रति जो सृष्टि और संसृति के लिए शुभ व श्रेयस्कर हैं। 
 
``मधौ सितादेर्दिनमासवर्षयुगादिकानां युगपत्प्रवृत्ति:''
 
महान गणितज्ञ भास्कराचार्य ने प्रतिपादित किया है कि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से दिन-मास-वर्ष और युगादि का आरंभ हुआ है। युगों में प्रथम सतयुग का आरंभ भी इसी दिन से हुआ है। कल्पादि-सृष्ट्यादि-युगादि आरंभ को लेकर इस दिवस के साथ अति प्राचीनता जुड़ी हुई है। 
 
भारतीय नववर्ष का प्रारंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही माना जाता है और इसी दिन से ग्रहों, वारों, मासों और संवत्सरों का प्रारंभ गणितीय और खगोल शास्त्रीय संगणना के अनुसार माना जाता है। आज भी जनमानस से जुड़ी हुई यही शास्त्रसम्मत कालगणना व्यावहारिकता की कसौटी पर खरी उतरी है। इसे राष्ट्रीय गौरवशाली परंपरा का प्रतीक माना जाता है। विक्रमी संवत किसी संकुचित विचारधारा या पंथाश्रित नहीं है।
 
 हम इसको पंथ निरपेक्ष रूप में देखते हैं। यह संवत्सर किसी देवी, देवता या महान पुरुष के जन्म पर आधारित नहीं, ईस्वी या हिजरी सन की तरह किसी जाति अथवा संप्रदाय विशेष का नहीं है। हमारी गौरवशाली परंपरा विशुद्ध अर्थो में प्रकृति के खगोलशास्त्रीय सिद्धांतों पर आधारित है और भारतीय कालगणना का आधार पूर्णतया पंथ निरपेक्ष है। 
 
प्रतिपदा का यह शुभ दिन भारत राष्ट्र की गौरवशाली परंपरा का प्रतीक है। ब्रह्म पुराण के अनुसार चैत्रमास के प्रथम दिन ही ब्रह्मा ने सृष्टि संरचना प्रारंभ की. यह भारतीयों की मान्यता है, इसीलिए हम चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नववर्षारंभ मानते हैं। 
 
मुख्यतया ब्रह्माजी और उनके द्वारा निर्मित सृष्टि के प्रमुख देवी-देवताओं, यक्ष-राक्षस, गंधर्व ऋषि-मुनियों, नदियों, पर्वतों, पशु-पक्षियों और कीट-पतंगों का ही नहीं, रोगों और उनके उपचारों तक का भी पूजन किया जाता है। इसी दिन से नया संवत्सर शुरु होता है। अत: इस तिथि को ‘नवसंवत्सर‘ भी कहते हैं. चैत्र ही एक ऐसा महीना है, जिसमें वृक्ष तथा लताएं पल्लवित व पुष्पित होती हैं। 
 
 शुक्ल प्रतिपदा का दिन चंद्रमा की कला का प्रथम दिवस माना जाता है। जीवन का मुख्य आधार वनस्पतियों को सोमरस चंद्रमा ही प्रदान करता है। इसे ब्रह्म पुराण के अनुसार ब्रह्मा द्वारा सृष्टि का सृजन, मर्यादा पुरूषोत्‍तम श्रीराम का राज्‍याभिषेक, मां दुर्गा की उपासना की नवरात्र व्रत का प्रारंभ, युगाब्‍द (युधिष्‍ठिर संवत्) का आरम्‍भ तथा उनका राज्याभिषेक, उज्‍जयिनी सम्राट- विक्रमादित्‍य द्वारा विक्रमी संवत् प्रारम्‍भ, शालिवाहन शक संवत् (भारत सरकार का राष्‍ट्रीय पंचांग) का प्रारंभ, महर्षि दयानन्द द्वारा आर्य समाज की स्‍थापना का दिवस, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्‍थापक केशव बलिराम हेडगेवार का जन्‍मदिवस, सिख परंपरा के द्वितीय गुरु अंगद देव जी के जन्म दिवस, सिंध प्रान्त के प्रसिद्ध समाज 
 
रक्षक वरूणावतार संत झूलेलाल का प्रकट दिवस है. इस दिन को औषधियों और वनस्पतियों का राजा कहा गया है। इसीलिए भी इस दिन को वर्षारंभ माना जाता है। 
 
आज भी हमारे देश में प्रकृति, शिक्षा तथा राजकीय कोष आदि के चालन-संचालन में मार्च, अप्रैल के रूप में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही देखते हैं। 
 
यह समय दो ऋतुओं का संधिकाल है। इसमें रातें छोटी और दिन बड़े होने लगते हैं। प्रकृति नया रूप धर लेती है। प्रतीत होता है कि प्रकृति नवपल्लव धारण कर नव संरचना के लिए ऊर्जस्वित होती है। 
 
 मानव, पशु-पक्षी, यहां तक कि जड़-चेतन प्रकृति भी प्रमाद और आलस्य को त्याग सचेतन हो जाती है। वसंतोत्सव का भी यही आधार है। इसी समय बर्फ पिघलने लगती है। आम के वृक्ष बौराने लगते हैं। प्रकृति की हरीतिमा नवजीवन का प्रतीक बनकर हमारे जीवन से जुड़ जाती है।
 
आज भी यह दिन हमारे सामाजिक और धार्मिक कार्यों के अनुष्ठान की धुरी के रूप में तिथि बनाकर मान्यता प्राप्त कर चुका है। यह राष्ट्रीय स्वाभिमान और सांस्कृतिक धरोहर को बचाने वाला पुण्य दिवस है। 
 
हम प्रतिपदा से प्रारंभ कर नौ दिन में छह मास के लिए शक्ति संचय करते हैं, फिर अश्विन मास की नवरात्रि में शेष छह मास के लिए शक्ति संचय करते हैं। 
 
न शीत न ग्रीष्म, पूरा पावन काल। ऐसे समय में सूर्य की चमकती किरणों की साक्षी में चरित्र और धर्म धरती पर स्वयं श्रीराम रूप धारण कर उतर आए। यह दिन कल्प, सृष्टि, युगादि का प्रारंभिक दिन है। संसारव्यापी निर्मलता और कोमलता के बीच प्रकट होता है हमारा अपना नया 
 
साल विक्रम संवत्सर। विक्रम संवत का संबंध हमारे कालचक्र से ही नहीं, बल्कि हमारे सुदीर्घ साहित्य और जीवन जीने की विविधता से भी है। 
 
परम पुरुष अपनी प्रकृति से मिलने जब आता है तो सदा चैत्र में ही आता है। इसीलिए सारी सृष्टि सबसे ज्यादा चैत्र में ही महक रही होती है।  
 
वैष्णव दर्शन में चैत्र मास भगवान नारायण का ही रूप है। चैत्र का आध्यात्मिक स्वरूप इतना उन्नत है कि इसने वैकुंठ में बसने वाले ईश्वर को भी धरती पर उतार दिया। 
 
कहीं धूल-धक्कड़ नहीं, कुत्सित कीच नहीं, बाहर-भीतर जमीन-आसमान सर्वत्र स्नानोपरांत मन जैसी शुद्धता। पता नहीं किस महामना ऋषि ने चैत्र के इस दिव्य भाव को समझा होगा और किसान को सबसे ज्यादा सुहाती इस चैत में ही काल गणना की शुरूआत मानी होगी। 
 
चैत्र मास का वैदिक नाम है - मधु मास। मधु मास अर्थात आनंद बांटती वसंत का मास। यह वसंत आ तो जाता है फाल्गुन में ही, पर पूरी तरह से व्यक्त होता है चैत्र में। सारी वनस्पति और सृष्टि प्रस्फुटित होती है, पके मीठे अन्न के दानों में, आम की मन को लुभाती खुशबू में, गणगौर पूजती कन्याओं और सुहागिन नारियों के हाथ की हरी-हरी दूब में तथा वसंतदूत कोयल की गूंजती स्वर लहरी में। 
 
कटाई, हंसिए का मंगलमय खर-खर करता स्वर और खेतों में डांट-डपट-मजाक करती आवाजें। जरा दृष्टि फैलाइए, भारत के आभा मंडल के चारों ओर। चैत्र क्या आया मानो खेतों में हंसी-खुशी की रौनक छा गई। नई फसल घर मे आने का समय भी यही है। 
 
इस समय प्रकृति में उष्णता बढ़ने लगती है, जिससे पेड़-पौधे, जीव-जंतु में नव जीवन आ जाता है। लोग इतने मदमस्त हो जाते हैं कि आनंद में मंगलमय गीत गुनगुनाने लगते हैं। गौर और गणेश की पूजा भी इसी दिन से तीन दिन तक राजस्थान में की जाती है। 
 
चैत शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के दिन सूर्योदय के समय जो वार होता है वह ही वर्ष में संवत्सर का राजा कहा जाता है...
 
चारों ओर पकी फसल का दर्शन, आत्मबल और उत्साह को जन्म देता है. इस अवसर पर आंध्र प्रदेश में घरों में ‘पच्चड़ी/प्रसादम’ तीर्थ के रूप में बांटा जाता है। कहा जाता है कि इसका निराहार सेवन करने से मानव निरोगी बना रहता है। चर्म रोग भी दूर होता है। इस पेय में मिली वस्तुएं स्वादिष्ट होने के साथ-साथ आरोग्यप्रद होती हैं। महाराष्ट्र में पूरन पोली या मीठी रोटी बनाई जाती है। इसमें जो चीजें मिलाई जाती हैं वे हैं - गुड़, नमक, नीम के फूल, इमली और कच्चा आम. गुड़ मिठास के लिए, नीम के फूल कड़वाहट मिटाने के लिए और इमली व आम जीवन के खट्टे-मीठे स्वाद चखने का प्रतीक होती हैं। 
 
पारिभद्रस्य पत्राणि कोमलानि विशेषत:। 
सुपुष्पाणि समानीय चूर्णंकृत्वा विधानत: । 
मरीचिं लवणं हिंगु जीरणेण संयुतम्। 
अजमोदयुतं कुत्वा भक्षयेद्रोगशान्तये। 
 
नीम के कोमल पत्ते, पुष्प, काली मिर्च, नमक, हींग, जीरा मिश्री और अजवाइन मिलाकर चूर्ण बनाकर आज के दिन सेवन करने से संपूर्ण वर्ष रोग से मुक्त रहते हैं। आजकल आम बाजार में मौसम से पहले ही आ जाता है, किन्तु आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र में इसी दिन से खाया जाता है। नौ दिन तक मनाया जाने वाला यह त्यौहार दुर्गापूजा के साथ-साथ, रामनवमी को राम जन्मोत्सव के साथ संपन्न होता है। पर इसमें एक अध्याय और जुड़ने वाला है हम भारतीयों की परीक्षा की घड़ी...कोरोना युद्ध से विजय गाथा, विश्व के कई देशों को निगलने के बाद अब उसने हमारे देश की ओर रुख किया है। जीतना होगा हमें... हमेशा की तरह और लिख देना है आने वाली पीढ़ियों के लिए आदर्श गाथा। ताकि हम कह सकें कि इन तथ्यों के साथ एक और तथ्य शामिल है जो हमने रचा था. और वो कह सकें 
 
सर्वस्तरतु दुर्गाणि सर्वो भद्राणि पश्यतु |
सर्व: कामानवाप्नोतु सर्व: सर्वत्र नन्दतु ||
 
सब लोग कठिनाइयों को पार करें,कल्याण ही कल्याण देखें,सभी की मनोकामना पूर्ण हो, सभी हर परिस्थिति में आनंदित हों। 
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