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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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नवसंवत्सर : श्रीखंड, पूड़ी और गुड़ी का उत्सव

हमें फॉलो करें नवसंवत्सर : श्रीखंड, पूड़ी और गुड़ी का उत्सव
त्योहार तो बस मनाने के लिए होते है। खुशी, मस्ती, जोश और अपनेपन की भावनाएं त्योहारों के माध्यम से अभिव्यक्त हो ही जाती हैं। फसलें काटने का त्योहार हो या फिर रामजी से जुड़े तथ्य हों, गुड़ी पड़वा वर्तमान में एक आम व्यक्ति के लिए श्रीखंड खाने और मेल-मिलाप के अलावा ज्यादा कुछ नहीं है।
 
महाराष्ट्र और दक्षिण के राज्यों में इसे अलग-अलग कारणों से मनाया जाता है, पर सबसे बड़ा कारण जो सबसे अच्छा लगता है कि इस दिन ब्रह्मा ने सृष्टि का निर्माण किया और समय ने आज से चलना आरंभ किया था।
 
कितना मोहक और अच्छा विचार है कि समय का चलना कैसा होगा। एक समान गति से वह दिन-रात बस चलता ही जा रहा है, मानो ब्रह्माजी ने तेज चलने से मना किया हो। समय अपनी गति से चला और क्या खूब चल रहा है। दिन और रात के दौरान वह करवट बदल रहा है और अपनी छाप छोड़ता जा रहा है।
 
मौसम करवट बदलकर ठीक आपके सम्मुख उत्सव मनाता नजर आ जाए तो समझिए गुड़ी पड़वा आ गया है। गुड़ी पड़वा का यह त्योहार आपको अनजाने में ही अपनत्व का आचमन करवा जाता है और भविष्य के लिए 'बेस्ट लक' कहकर हौले से अपनी लगाम सूर्य देवता के हाथ में दे देता है।
 
समय को समय का भान नहीं है, और होना भी नहीं चाहिए। क्योंकि जिस दिन उसे इसका भान हो जाएगा वह तत्काल रुक जाएगा, जड़ हो जाएगा और चाहकर भी आगे नहीं बढ़ पाएगा। गुड़ी पड़वा इस समय को सलाम कहने का त्योहार है। यह ऐसा त्योहार है, जो समय को जानने-पहचानने और उसमें मिल जाने का है।
 
श्रीखंड में घुली शकर की तरह प्रेम बांटने और बढ़ाने का संदेश देने वाले त्योहार गुड़ी पड़वा का वर्तमान के युग में भी उतना ही महत्व है जितना कि आज से कई सौ वर्ष पूर्व था।
 
गुड़ी पड़वा इस कारण भी महत्वपूर्ण है कि इस दिन ब्रह्माजी ने क्या सोचकर सृष्टि का निर्माण किया और उस पर पृथ्वी जैसे ग्रह पर 'मनुष्य' नामक प्राणी का भी निर्माण किया। करोड़ों वर्ष पूर्व हमारे पूर्वजों ने जब पृथ्वी पर पहली बार सांस ली होगी, तब यह नहीं सोचा होगा कि आज गुड़ी पड़वा है, बल्कि वे तो अपने वजूद को बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रहे होंगे।
 
गुड़ी पड़वा सभ्य समाज की सोच है कि जैसे बर्थडे मनाते हैं, वैसे ही ऐसा कुछ मनाया जाए जिसमें मनोरंजन भी हो और फिर खान-पान तो हो ही। सृष्टि के निर्माण के दौरान ब्रह्माजी ने यह नहीं सोचा होगा कि अन्य जीवों की तरह मनुष्य भी शांति से पृथ्वी पर जीवन बिताएगा।
 
उनकी कल्पना के विपरीत हम ब्रह्माजी को यह बताने में लग गए हैं कि... देखो भाई! भले ही सृष्टि का निर्माण आपने किया हो, पर पृथ्वी पर अधिकार तो हमारा ही बनता है और जब हम अधिकार रखते हैं तो कुछ भी कर सकते हैं। हम प्रदूषण फैला सकते हैं... आपस में युद्ध कर सकते हैं... भेदभाव कर सकते हैं और आपस में बंट भी सकते हैं, क्योंकि यह हमारी पृथ्वी है। आपने तो केवल निर्माण किया है, रहने लायक तो हमने ही बनाया है, फिर प्रतिवर्ष हम आपके सम्मान में गुड़ी पड़वा मनाते तो हैं।
 
ब्रह्माजी के मन में कभी भी विचार नहीं आया होगा कि 'मनुष्य' नामक जीव अपने आपको महान की श्रेणी में ले आएगा और रुपए-पैसों को ईजाद कर वह एक-दूसरे से ही भेदभाव करने लगेगा। 'गरीब' शब्द ब्रह्माजी के शब्दकोश में नहीं था। मनुष्य ने अपने आप ही समभाव को गरीबी का चोला ओढ़ा दिया ताकि वह स्वयं को श्रेष्ठ मान सके। कभी-कभी लगता है कि आध्यात्मिक गुरु लोगों को जब 'अहं ब्रह्मास्मि' कहना सिखाते हैं तो वह गलत अर्थ ले लेते हैं और अपने आपको ब्रह्मा समझने लगते हैं।
 
वैसे गुड़ी पड़वा एक ओर आनंद का उत्सव है, तो दूसरी ओर विजय और परिवर्तन का प्रतीक भी है। कृषकों के लिए इसका विशेष महत्व है। आंध्रप्रदेश में इसे उगादि (युगादि) तिथि अर्थात युग का आरंभ के रूप में मनाया जाता है।
 
वहीं सिंधी समाज में भगवान झूलेलाल के जन्मदिवस चेटीचंड अर्थात चैत्र के चन्द्र के रूप में मनाया जाता है। सप्तऋषि संवत्‌ के अनुसार कश्मीर में 'नवरेह' नाम से इसे नववर्ष के उत्सव के रूप में मनाया जाता है। वैसे ऐतिहासिक दृष्टि से इसी दिन सम्राट चन्द्रगुप्त, विक्रमादित्य ने शकों पर विजय प्राप्त की थी, इस कारण विक्रम संवत के नाम से भी प्रसिद्ध है।
 
आस्था का स्वरूप है गुड़ी : कहने को तो गुड़ी पड़वा के दिन घरों के दरवाजों को तोरण से सजाया जाता है और एक दंड पर साड़ी लपेटकर, सिरों पर लोटा रखकर पुष्पमाला से सुसज्जित कर घरों पर लगाई जाती है। गुड़ी आस्था का प्रतीक है।
 
यह आस्था रामजी के प्रति है और सृष्टि के निर्माता ब्रह्मा के प्रति भी। उन्हें धन्यवाद कहने का यह हमारा अनूठा तरीका है। घरों पर ऊंची जगह इन्हें लगाने का भी कारण यह है कि हम घर को मंदिर समझ रहे हैं और कलश को घर के ऊपर सजा रहे है ताकि घर में मंदिर की तरह सुख और शांति रहे।
 
गुड़ी को श्रीखंड और पूरणपोळी का भोग भी लगाते हैं, इस भावना के साथ कि 'तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा।' गुड़ी अनजाने में ही हमें श्रद्धा, विजय, आस्था, पवित्रता जैसे भावों से परिचय करवा देती है। गुड़ी को महिला का स्वरूप दिया जाता है, जो कि महिलाओं के सम्मान का प्रतीक भी है। आज के आधुनिक युग में जहां विटामिन और प्रोटीन की अंगरेजी दवाओं से बाजार भरा पड़ा है, कड़वे नीम के पत्ते खाना आउटडेटेड समझा जा सकता है।
 
इसमें हायजिन की बातें होने लगेंगी। पर सच यह है कि इस दिन नीम की पत्तियों के साथ कालीमिर्च, मिश्री, अजवाइन और सौंठ का सेवन किया जाता है। इनका सेवन करने से आरोग्य, बल, बुद्धि व तेजस्विता में वृद्धि होती है। आज के आधुनिक युग के युवा यह कह सकते हैं कि ऐसा क्यों? तो इसका सीधा-सा जवाब यह हो सकता है कि अब ब्रह्माजी से पूछने से रहे कि ऐसा क्यों?
 
पर जैसा कि पुराने ग्रंथों में लिखा है, यह परंपरा काफी वर्षों से चली आ रही है और गुड़ी पड़वा के बाद का समय भीषण गर्मियों का होता है, इस कारण मनुष्य में रोगों से लड़ने की शक्ति को बढ़ाने के लिए ऐसा किया होगा। 
अनुराग तागड़े

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