ऐसी सुधि बिसराई
कि पाती तक न पठाई।
बरखा गई मिलन-ऋतु बीती,
घोर घटा गहरी मन-चीती,
पर गागर रीती की रीती,
अधरों बूंद न आई
प्यास से प्यास बुझाई।
ऐसी सुधि बिसराई
कि पाती तक न पठाई।
रोज उड़ाए काग सवेरे,
रोज पुराए चौक घनेरे,
कभी अँधेरे, कभी उजेरे,
पथ-पथ धूल रमाई,
हुई सब लोक हँसाई।
ऐसी सुधि बिसराई
कि पाती तक न पठाई।
बहकी बगिया, महकी कलियाँ
गूंजे आँगन, झूमीं गलियाँ,
खुलीं न मेरी किन्तु किवरियाँ,
साँकल कौन लगाई
कि खोलत उमर सिराई।
ऐसी सुधि बिसराई
कि पाती तक न पठाई।
मन की कुटिया सूनी-सूनी,
देह बनी चन्दन की धूनी,
बहुत हुई प्रिय, आँख-मिचौनी,
अब तो हो सुनवाई
सुबह संध्या बन आई।
ऐसी सुधि बिसराई
कि पाती तक न पठाई।