भाई साहिब,
शुक्र है ख़ुदा का कि तुम्हारी ख़ैर-ओ-आ़फ़ियत मालूम हुई। तुम भी ख़ुदा का शुक्र बजा लाओ कि मेरे यहाँ भी इस वक़्त तक ख़ैरियत है। दोनों लड़के खुश हैं। आम-आम करते फिरते हैं। कोई उनको नहीं देता। उनकी दादी को यह वहम है कि पेट-भर उनको खाने नहीं देती।
यह तुमको याद रहे कि वली अह़द के मरने से कुछ पर बड़ी मुसीबत आई। बस अब मुझको इस सल्तनत से ताल्लुक बादशाह के दम तक है। ख़ुदा जाने कौन वली अह़द होगा। मेरा क़द्र-शनास मर गया। अब मुझको कौन पहचानेगा? अपने आफ़रीदगार पर तकिया किए बैठा हूँ। सर-ए-दस्त ये नुक़सान कि वे ज़ैनउलआबदीन ख़ाँ के दोनों बेटों को मेवा खाने को दस रुपए महीना देते थे। अब वह कौन देगा?
दो दिन से शिद्दत-ए-हवाए-वबाई कम है-मेंह भी बरसता है। हवा ठंडी चलती है। इंशा अल्लाह तआ़ला बक़िया आशोब भी रफ़अ़ हो जाएगा। तुम अपने शहर का हाल लिखो और बच्चों की ख़ैर-ओ-आ़फियत भेजो।
जब तक यह हवा है, हर यक शंबा को ख़त लिखा करो। मैं भी ऐसा ही करूँगा कि हर हफ़्ता मैं तुमको ख़त लिखता रहूँगा। मुंशी अब़्दुल लतीफ़ को मेरी दुआ़ कहो और यह कहो कि क्यों साहिब, मेरठ से और कोल से कभी हमको ख़त न लिखा। बाक़ी और सब लड़कों को, लड़कियों को दुआ़ कह देना। बेगम को ख़सूसन।
27 जुलाई 1856 ई.
ग़ालिब