ग़ालिब उर्दू और फ़ारसी के एक प्रभावशाली कवि हुए हैं। फ़ारसी की शायरी पर उन्हें बड़ा गर्व था। परंतु वह अपनी उर्दू शायरी की बदौलत बहुत मशहूर हुए। पहले-पहल फ़ारसी में पत्र िलखते थे, परंतु 1850 के लगभग उन्होंने उर्दू में पत्र लिखना आरंभ किया। वह शायद यह समझते थे कि फ़ारसी की उस जमाने में कद्र घटती जा रही थी और उर्दू एक लोकप्रिय भाषा बन रही थी।
उनके शिष्यों और दोस्तों की संख्या बहुत बड़ी थी और वह पत्रों का उत्तर देने के लिए सदैव ही तत्पर रहते थे। उनकी आयु के अंतिम वर्षों में उनके एक शिष्य चौधरी अब्दुल गफ़ूर सुरूर ने उनके बहुत से पत्र एकत्र किए और उनको छापने के लिए ग़ालिब से आज्ञा माँगी। परंतु ग़ालिब इस बात पर सहमत न हुए। सुरूर के साथ-साथ ही मुंशी शिवनारायण 'आराम' और मुंशी हरगोपाल तफ़्ता ने भी इसी प्रकार की आज्ञा माँगी। ग़ालिब ने 18 नवंबर को मुंशी शिवनारायण को लिखा :'
उर्दू खतूत जो आप छपवाना चाहते हैं, यह भी ज़ायद बात है। कोई पत्र ही ऐसा होगा कि जो मैंने क़लम संभालकर और दिल लगाकर लिखा होगा। वरना सिर्फ़ तहरीर सरसरी है। क्या ज़रूरत है कि हमारे आपस के मुआमलात औरों पर ज़ाहिर हों। खुलासा यह कि इन रुक्क़आत का छापा मेरे खिलाफ़-ए-तबअ है। |
ग़ालिब ने अपने कुछ दोस्तों और शिष्यों को लिखकर अपने पत्रों की नकलें उनको भेजीं। ग़ालिब ने पत्रों के छापने की इजाज़त तो दे दी थी, परंतु वह चाहते यह थे कि इस संग्रह में उनके निजी पत्र शामिल न किए जाएँ। |
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ऐसा प्रतीत होता है क मुंशी शिवनारायण और तफ़्ता ने ग़ालिब के पत्रों के छापने का इरादा छोड़ दिया। चौधरी अब्दुल ग़फूर सुरूर ने ग़ालिब' रखा था। मेरठ के एक छापेख़ाने के मालिक उसे छापना चाहते थे। परंतु चौधरी अब्दुल ग़फूर सुरूर और प्रेस के मालिक शायद इस कारण से रुक गए कि कुछ और पत्र मिल जाएँ।
इस बात का अभी तक पता नहीं चला कि किस तरह मुंशी गुलाम ग़ौस ख़ाँ बेखबर ने ग़ालिब के पन्नों को छापने की आज्ञा ले ली। बल्कि बेख़बर की फरमाइश के अनुसार ग़ालिब ने अपने कुछ दोस्तों और शिष्यों को लिखकर अपने पत्रों की नकलें उनको भेजीं। ग़ालिब ने पत्रों के छापने की इजाज़त तो दे दी थी, परंतु वह चाहते यह थे कि इस संग्रह में उनके निजी पत्र शामिल न किए जाएँ।
बेख़बर ने ग़ालिब के इस अनुरोध का ख़याल नहीं किया और जो भी पत्र उनको मिले, वह सब उन्होंने छाप दिए। बेख़बर ने जो पत्र एकत्र किए थे, मुज़तबाई प्रेस, मेरठ, के मालिक मुंशी मुमताज़ अली ख़ाँ ने उनमें सुरूर के जमा किए हुए पत्र भी शामिल कर दिए। इस किताब का नाम ऊद-ए-हिंदी रखा गया। भूमिका स्वयं मुंशी अली ख़ाँ ने लिखी। यह पुस्तक 27 अक्टूबर 1868 को छपी।
ऊद-ए-हिंदी जब छपी तो ग़ालिब के दूसरे दोस्तों और मित्रों ने इरादा किया कि इस पुस्तक को और बड़ा किया जाए। चुनांचे इन लोगों के प्रयत्न से जिनमें मीर मेहदी मजरूह और मिर्जा़ कुर्बान अली बेग सालिक का नाम ख़ास तौर पर उल्लेखनीय है। ग़ालिब की मृत्यु 15 फरवरी 1869 को हुई और यह संग्रह 6 मार्च 1869 को छपकर तैयार हुआ।इसकी भूमिका मजरूह ने लिखी है। उर्दू-ए-मुअल्ला में पत्रों की संख्या 470 है। कुछ पत्र अभी बाकी थे और मौलाना हाली की कोशिशों से ये बाद में शामिल करके छाप दिए गए। सितंबर सन् 1922 में लाहौर के शेख़ मुबारिक अली ने इस पुस्तक को फिर छापा और उसमें 25 के लगभग और पत्र शामिल कर लिए।
ग़ालिब का नवाब युसूफ़ अली ख़ाँ और नवाब कल्ब-ए-अली ख़ाँ से 12 साल तक पत्र-व्यवहार रहा। इस अर्से में ग़ालिब ने इन दोनों को बहुत से पत्र लिखे, परंतु उनमें से अधिकतर नष्ट हो गए। केवल वे पत्र बच रहे, जो दारुलइनशा के सुपुर्द कर दिए गए थे। सैयद बशीर हुसैन ज़ैदी रामपुर में मुख्यमंत्री थे। उनकी नज़र किसी पत्र पर पड़ी तो उन्होंने आज्ञा दी कि ग़ालिब के जो भी पत्र मौजूद हों उनको एकत्र किया जाए। इमतियाज़ अली ख़ाँ अर्शी ने बड़े परिश्रम से इन पत्रों को जमा किया और ये रियासत रामपुर की तरफ़ से छापे गए। यह पुस्तक इतनी लोकप्रिय हुई कि 1950 तक इसके सात संस्करण छप चुके थे।
बनारस विश्वविद्यालय के मौलवी महेश प्रसाद जीवन भर ग़ालिब के पत्र एकत्र करते रहे। उनका इरादा था कि इनको दो भागों में छाप दें। परंतु उनके जीवनकाल में एक ही भाग छप सका। उसके पश्चात अंजुमन-ए-तरक्क़ी-ए-उर्दू हिंद अलीगढ़ ने दूसरा संस्करण छापने के लिए मालिक राम साहिब से कहा। वह पुस्तक 1963 में खुतूत-ए-ग़ालिब के नाम से छप गई।
ग़ालिब के पत्र बड़े रोचक और सरल हैं। इन पत्रों के अध्ययन से ग़ालिब के व्यक्तित्व, मिज़ाज और चरित्र पर बड़ी रोशनी पड़ती है। माना कि ग़ालिब की शायरी उच्चकोटि की शायरी है। परंतु उनके पत्रों में वह सादगी और सफ़ाई है, जिसके कारण ग़ालिब का नाम उर्दू साहित्य में सदैव उज्जवल रहेगा।
हातिम अली मेहर के एक पत्र में स्वयं लिखते हैं कि मैंने मुरासले को मुकालमा बना दिया है। सचमुच, उनके यहाँ पत्र लिखने का वह पुराना ढंग नजर नहीं आता। इन पत्रों से मिर्जा़ एक नई शैली के निर्माता नज़र आते हैं। इनकी लेखन कला में तकल्लुफ़ नाम मात्र को नहीं। सीधे-सादे अंदाज में वह अपनी ऊँची दृष्टि, ईमानदारी और रसिकता का सबूत पेश करते हैं। जी चाहता है कि एक-एक पत्र को बार-बार पढ़ा जाए। मौलाना हाली ने मिर्जा़ के पत्रों से जो नतीजे निकाले हैं, उन्हीं के शब्दों में उनका थोड़ा अंश देखिए :
'मिर्जा़ साहिब के अख़लाक़ निहायत वसी थे। वह हर एक शख़्स से जो उन्हें मिलने जाता था, बहुत कुशादा पेशानी से मिलते थे। जो एक बार उनसे मिल जाता था, उसको हमेशा उनसे मिलने का इश्तियाक़ रहता था। दोस्तों को देखकर वह ब़ाग-ब़ाग हो जाते थे और उनकी ख़ुशी में खु़श और उनके ग़म में ग़मगीन रहते थे। उनके दोस्त हर मिल्लत और मज़हब के न सिर्फ दिल्ली में, बल्कि तमाम हिंदुस्तान में बेशुमार थे। जो ख़तूत उन्होंने अपने दोस्तों को लिखे हैं, उनसे एक-एक हर्फ़ में मेहर-ओ-मुहब्बत, ग़मख़ारी और यगानगत टपक पड़ती है।'
वह दोस्तों की फ़रमाइशों में कभी तंगदिल नहीं होते थे। ग़ज़लों की इसलाह के अतिरिक्त उनके पास मित्रों की तरह-तरह की फ़रमाइशें आती थीं और वह उनकी तामील करते थे। मुंशी हरगोपाल तफ़्ता उनके प्रिय शिष्य थे। अपने फ़ारसी क़लाम की बदौलत कम, मगर मिर्जा़ साहिब के पत्रों की बदौलत ज्यादा उनका नाम साहित्य में हमेशा जिंदा रहेगा। नवाब हुसैन मिर्जा़ 1707 के हंगामे में अपना सब कुछ खो चुके थे। उनके भाई मुज़फ़्फर उद्दौला मारे जा चुके थे। उन्हें एक पत्र में लिखते हैं :
'अगर कहीं मेरी जान भी तुम्हारे काम आए तो मैं हाज़िर हूँ। यह कहना तकल्लुफ़ महज़ है, कौन किसी की जान माँगता है और कौन देता है। मगर जो फ़िक्र मुझको तुम्हारी है और जो दस्तरस है उसको मेरा खुदाबंद जानता है। दस्तरस को तुम भी जानते हो।'
मिर्जा़ ग़ालिब ने अँग्रेजों और दूसरे बड़े आदमियों की शान में क़सीदे लिखे। यह उन पर एक बड़ा आरोप है, परंतु यह उस ज़माने का रिवाज था। वह अपनी सफ़ाई में लिखते हैं - 'वो रविश हिंदुस्तानी फ़ारसी लिखने वालों की मुझको नहीं आती कि बिल्कुल भाटों की तरह बकना शुरू कर दूँ। मेरे क़सीदे देखो। तशबीब के शेर अधिक पाओगे। मदह के शेर कमतर। नस्र में भी यही हाल है।'
अपने पत्रों में ही उन्होंने अपने खानदानी हालात भी लिखे हैं। उनके दादा कोकान बेग ख़ाँ का शाह आ लम के ज़माने में हिंदुस्तान आना, पिता और चाचा के हालात और उनका बाल्यावस्था में ही मर जाना, बड़े विस्तार से उनके एक पत्र में मिलता है। उनकी रोज़ाना जिंदगी के बारे में भी बहुत सी बातें उन पत्रों में मिलती हैं। सर्दियों में धूप में बैठते थे, गर्मियों में ख़स की टट्टी लगा लेते थे।
एक वक़्त का खाना घर में जाकर खाते थे। सर्दियों में आग तापते थे और पीना-पिलाना उनका एक शौक़ था। एक पत्र में लिखते हैं, ' हमारे पास शराब आज की और है। कल से रात को निरी अंगीठी पर गुज़ारा है। बोतल-गिलास मौकूफ़।' एक और पत्र में लिखते हैं - 'लिकर एक अँग्रेज़ी शराब होती है कि नाम की बहुत लतीफ़ और रंगत की बहुत खूब और स्वाद की ऐसी मीठी जैसे चीनी की चाशनी।'
ख़र्च की ज्यादती का रोना और कम आमदनी की शिकायत अक्सर पत्रों में करते रहे हैं। एक पत्र में कुछ दिनों के लिए शराब छोड़ने का जिक्र भी है। लिखते हैं :
'इन्कम टैक्स जुदा, चौकीदार जुदा, सूद जुदा, मूल जुदा, बीवी जुदा, बच्चे जुदा, शागिर्द जुदा, आमद वोही 162 रुपए तंग आ गया, गुज़ारा मुश्किल हो गया। रोज़मर्रा का काम बंद रहने लगा। सोचा कि क्या करूँ। कहाँ से गुंजाइश िनकालूँ। क़हर-ए-दरवेश बर जान-ए-दरवेश। सुबह की तबरीद मतरूक। चाश्त का गोश्त आधा। रात की शराब व गुलाब मौकूफ़। 20-22 रुपया महीना बचा। रोज़मर्रा का ख़र्च चलाया। यारों ने पूछा, तबरीद-ओ-शराब कब तक न पियोगे। कहा कि जब तक वो न पिलाएँगे।'
तेरह वर्ष की उम्र में मिर्जा़ की शादी नवाब इलाही बख़्श ख़ाँ मारूफ़ की सुपुत्री उमरावो बेगम से हुई थी। बड़े ही विचित्र ढंग से इस शादी का ज़िक्र करते हुए एक पत्र में लिखते हैं, '8 रजब 1212 हिजरी को रोबकारी के वास्ते यहाँ भेजा। 13 बरस हवालात में रहा। 7 रजब 1225 हिजरी को हुक्म-ए-दवाम-ए-हब्स सादिर हुआ। एक बेड़ी मेरे पाँव में डाल दी। दिल्ली शहर को जिंदान मुक़र्रर किया और मुझे इस जिंदान में डाल दिया। नज़्म-ओ-नस्र को मुशक़्क़त ठहराया।'
तफ़्ता के एक दोस्त उमराव सिंह की दूसरी बीवी की मृत्यु की सूचना मिली तो मिर्जा़ ने लिखा - 'उमराव सिंह के हाल पर उसके वास्ते मुझको रहम और अपने वास्ते रश्क आया। अल्लाह, अल्लाह, एक वह हैं कि दो बार उनकी बेड़ियाँ कट चुकी हैं और एक हम हैं कि एक ऊपर 50 वर्ष से जो फाँसी का फंदा गले में पड़ा है, न फंदा ही टूटता है, न दम ही निकलता है।'
मीर मेहदी मजरूह ने एक बार वबा का हाल पूछा तो जवाब में लिखते हैं - 'वबा थी कहाँ जो मैं लिखूँ कि अब कम है कि ज़्यादा। एक 66 वर्ष का मर्द और एक 64 वर्ष की औरत, इन दोनों में से एक भी मरता तो हम जानते वबा थी।'
एक और पत्र में भी लिखते हैं कि 'वबा में मर तो जाता, परंतु वबा-ए-आम में मरना मुझे गवारा नहीं। कितने अभिमान की बात है। इस प्रकार का आत्माभिमान तो उनके गद्य और पद्य में बहुत मिलता है।
ग़ालिब ने अपनी बीवी के भानजे आरिफ़ को अपना बेटा बनाया था। वह जवानी में ही चल बसा। बड़ा तीव्र बुद्धि और प्रतिभाशाली कवि भी था। उसने अपने पीछे दो बेटे छोड़े - बाक़िर अली ख़ाँ और हुसैन अली ख़ाँ। ग़ालिब उनको अपने पास ले आए। उनसे उनको बड़ा प्रेम था। जब कभी रामपुर जाते तो उनको साथ ले जाते। तफ़्ता को एक पत्र में लिखते हैं :
'सुनो साहिब, ये तुम जानते हो कि ज़ैनुल आबदीन ख़ाँ मरहूम मेरा फ़र्ज़न्द था। और अब उसके दोनों बच्चे कि मेरे पोते होते हैं, मेरे पास रहते हैं और हरदम मुझको सताते हैं और मैं तहम्मुल करता हूँ। ख़ुदा गवाह है कि तुम्हें अपना फ़र्ज़न्द था। और अब उसके दोनों बच्चे कि मेरे पोते होते हैं, मेरे पास रहते हैं और हर दम मुझको सताते हैं और मैं तहम्मुल करता हूँ।
ख़ुदा गवाह है कि तुम्हें अपना फ़र्ज़न्द समझता हूँ। पस तुम्हारे नतायज-ए-तबअ मेरे मानवी पोते हुए। जब इन आलम के पोतों से कि मुझे खाना नहीं खाने देते, मुझको दोपहर को सोने नहीं देते, नंगे-नंगे पाँव पलंग पर रखते हैं, कहीं पानी लुढ़काते हैं, कहीं खाक उड़ाते हैं, मैं तंग नहीं आता तो उन मानवी बेटों से कि उनमें ये बातें नहीं, मैं क्यों घबराऊँगा।'
ग़ालिब स्वभाव से विनोद-प्रिय थे। वह अपने पत्रों में बीवी का मज़ाक़ बहुत उड़ाते रहे, परंतु यह भी विदित है कि उन्हें बीवी का बड़ा ख़याल था। रामपुर से हक़ीम गुलाम नजफ़ ख़ाँ को पत्रों में बार-बार लिखते थे कि मेरे घर पर जाना और ये पत्र मेरी बीवी को सुनाना। उनके आत्माभिमान की बातें उनके पत्रों में जगह-जगह मिलती हैं।
एक पत्र में नवाब युसूफ़ अली ख़ाँ को लिखते हैं कि 'मैं अँग्रेज़ी सरकार में नवाबी का दर्जा रखता हूँ। पेंशन अगर्चे थोड़ी है, परंतु इज्ज़त ज़्यादा पाता हूँ। गवर्नमेंट के दरबार में दाहिनी रुख़ में दसवाँ नंबर और सात पारचे और जागीर, सरपेच, माला-ए-मरवारीद, ख़ल्लत मुक़र्रर है। लार्ड हार्डिंग साहिब के अहद तक पाया। लार्ड डलहौज़ी यहाँ आए नहीं।'
एक और पत्र में लिखते हैं कि दिल्ली शहर में मुझे सब जानते हैं। पत्र के सरनामे पर केवल मेरा नाम लिख दो। मुहल्ला या पता लिखने की आवश्यकता नहीं। पत्र मुझे पहुँच जाएगा।
इन पत्रों में उनके जीवन के विषय में बहुत-सी बातों का ता चलता है। वह आगरा में पैदा हुए थे। मुंशी शिवनारायण 'आराम' को अपने खानदान का हाल लिखते हैं। आगरा के मुहल्लों और हवेलियों का जि़क्र करते हैं। बनारस के राजा चेत सिंह के सुपुत्र राजा बलवान सिंह से पतंग लड़ाने का हाल भी लिखा है। चीजों के भाव, खाने का प्रोग्राम, पेंशन का झगड़ा, सैर-ओ-सफ़र, अपने क़र्जे़ का हाल, क्या कुछ नहीं लिखा।
मीर मेहदी मजरूह को लिखते हैं - 'अंदर-बाहर रोज़ादार हैं। यहाँ तक कि बड़ा लड़का बाक़िर अली ख़ाँ भी है। एक मैं और एक मेरा बेटा हुसैन अली ख़ाँ रोज़ाखोर हैं। वह ही हुसैन अली ख़ाँ जिसका रोज़मर्रा है, खिलौने मँगा दो, मैं भी बाजार जाऊँगा।'
ग़ालिब विनोदी और ज़िंदादिल इंसान थे, जो दूसरों की मुसीबत को अपनी मुसीबत जानते थे। लेकिन ज़माने की मसीबतों से वह घबराते नहीं थे। वह कभी एक हंसोड़ हमजोली हैं, कभी नीरस उपदेशक। अलग़र्ज़ वह ऐसे हैं, जैसे एक शायर को होना चाहिए।
अपने पत्रों में उन्होंने 1857 के विद्रोह का का हाल विस्तार से लिखा है। दिल्ली पर क्या बीती़, दिल्ली के बाज़ारों, मुहल्लों और कुओं तक का हाल और उनके ढहने का ज़िक़ उन्होंने किया है। गोरों के जुल्म और कालों की गड़बड़, सबका हाल लिखा है। बड़े डरपोक थे। उस ज़माने में घर से बाहर नहीं निकले। डरते थे, कहीं पकड़े न जाएँ।
या कहीं पेंशन ज़ब्त न हो जाए। एक पुस्तक फ़ारसी में दस्तंबू के नाम से अँग्रेज़ों को खुश करने के लिए लिखी थी। पत्रों में उसका जगह-जगह वर्णन आता है। परंतु अंदर ही अंदर वह अँग्रेज़ों के अत्याचार से खुश नहीं थे। नवाब अलाउद्दीन ख़ाँ अलाई को एक उर्दू के क़ते में लिखते हैं कि 'अँग्रेजों का हर सिपाही मनमानी कर रहा है और उनके अत्याचार देखकर आदमी का पिता पानी हो जाता है।'
आज से सवा सौ साल पहले ग़ालिब ने सरल उर्दू गद्य की बुनियाद डाली। आज भी उनके पत्रों को पढ़ते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि यह आज ही की भाषा है। कुछ समालोचक तो यहाँ तक कहते हैं कि ग़ालिब यदि फ़ारसी और उर्दू कविता न भी करते तो अपने पत्रों के सहारे ही अमर रहते। उनके फ़ारसी के पंज आहंग के नाम से छपे हैं, परंतु उन्हें कोई नहीं जानता। उनके उर्दू के पत्र बड़े लोकप्रिय हैं और उन्हें बार-बार पढ़ने को जी चाहता है।
ग़ालिब के पत्रों का यह संकलन हमने उनके पत्रों के संग्रहों से किया, जिसमें ऊद-ए-हिंदी उर्दू-ए-मुअल्ला, खुतूत-ए-ग़ालिब, ग़ालिब की नादिर तहरीरें और मक़ातीब-ए-ग़ालिब खास तौर पर उल्लेखनीय हैं। हम इन पुस्तकों के संग्रहकर्ताओं के आभारी हैं और उनका धन्यवाद करते हैं।
- अर्श मलसियानी