तुम्हारा ख़त पहुँचा, मुझको बहुत रंज हुआ। वाक़ई, उन छोटे लड़कों का पालना बहुत दुश्वार होगा। देखो़, मैं भी तो इसी आफ़त में गिरफ्तार हूँ। सब्र करो, सब्र न करोगे तो क्या करोगे, कुछ बन नहीं आती। मैं मुसहिल में हूँ। यह न समझना कि बीमार हूँ' हिफ्ज़-ए-सेहत के वास्ते मुसहिल लिया है।
तुम्हारे अशआ़र गौ़र से देखकर भाई मुंशी नब्बी बख्श साहिब के पास लिफ़ाफ़ा तुम्हारे नाम का भेज दिया है। जब तुम आओगे, तब वह तुमको देंगे। जहाँ-जहाँ तरद्दुद व ताम्मुल की जगह थी, वह जाहिर कर दी है और बाक़ी सब अशआ़र बदस्तूर रहने दिए हैं।
अब तुमको यह चाहिए कि कोल पहुँचकर मुझको ख़त लिखो। इस लिफ़ाफ़े की रसीद और अपना सारा हाल मुफ़स्सल लिखो। इस लिफ़ाफ़े की रसीद और अपना सारा हाल मुफ़स्सल लिखो। इसमें तसाहुल न करो। बाबू साहिब के ख़त का जवाब अजमेर को रवाना कर दिया जाएगा। आपकी ख़ातिर जमा रहे। ज्यादा इससे क्या लिखूँ?
असदुल्ला
मुंशी साहिब,
तु्म्हारा ख़त कल यानी बुध के दिन पहुँचा। मैं चार दिन से लर्जें में मुबतिला हूँ और मज़ा यह है कि जिस दिन से लर्जा चढ़ा है, खाना मुतलक़ मैंने नहीं खाया। आज पंच शंबा पांचवा दिन है कि न खाना दिन को मुयस्सर है और न रात को शराब। हरारत मिज़ाज में बहुत है, नाचार एहतिराज़ करता हूँ।
भाई, इस लुत्फ़ को देखो कि पाँचवाँ दिन है खाना खाए। हरगिज़ भूख नहीं लगी और तबियत ग़िज़ा की तरफ़ मुतवज्जेह नहीं हुई। बाबू साहिब वाला मनाकिब का ख़त तुम्हारे नाम का देखा, अब उस इरसाल में वह आसानी न रही और बंदा दुश्वारी से भागता है। क्यों तकलीफ़ करें? और अगर बहरहाल, उनकी मर्जी है तो ख़ैर, मैं फ़रमां पज़ीर हूँ। अशआ़र-ए-साबिक़ व हाल मेरे पास अमानत हैं। बाद अच्छे होने के उनको देखूँगा और तुमको भेज दूँगा। इतनी सतरें मुझसे ब-हज़ार ज़र्र-ए-सक़ील लिखी गई हैं।
2 मार्च 1854 ई. असदुल्ला