शफ़ीक़ मेरे! मुश्फि़क़ मेरे ! कर्मफ़र्मा मेरे! इनायत गुस्तर मेरे! तुम्हारे एक ख़त का जवाब मुझ पर कर्ज़ है। क्या करूँ, सख़्त ग़मज़दा और मलूल रहता हूँ। मुझको अब इस शहर की इक़ामत नागवार है, और मवाने व अ़वायक़ ऐसे फ़रहाम हुए हैं कि निकल नहीं सकता। ख़ुलासा मेरे रंज-ओ-अलम यह है कि मैं अब सिर्फ़ मरने की तवक़्क़ो पर जीता हूँ। हेयहात-
मुनहसिर मरने पै हो जिसकी उम्मीद
ना उम्मीदी उसकी देखा चाहिए
आज इसी हजूम-ए-ग़म-ओ-अंदोह में तुम्हारा और तुम्हारे बच्चों का ख़्याल आ गया। बहुत दिन गुज़रे कि न तुम्हारा हाल मालूम और न प्यारी भतीजी ज़किया का हाल मालूम। न मुंशी अब्दुल लतीफ़ और नसीरुद्दीन की हक़ीक़त मालूम, दुआ़गा हूँ तुम्हारा और सनाख़ाँ हूँ तुम्हारा। बहरहाल, लड़कों को दुआ कह देना। और अगर मौलाना तफ़्ता हों तो उनको सलाम कहना और कहना कि, भाई, दो-एक जुज़्व तुम्हारे इस कारनामे के देखे हैं। आइंदा मुझको कसरत-ए-ग़म से फ़ुरसत देखने को नहीं मिली।
10 जनवरी 1850 ई.
असदुल्ला
भाई साहिब,
बंदा गुनहगार हाज़िर हुआ है और बंदगी अ़र्ज़ करता है और अ़फ़्व-ए-तक़सीर का आरजूमंद है। दो ख़त आपके आए हैं और उनका जवाब लिख नहीं सका। ज़ाहिरा शेख़ वज़ीरुद्दीन ने अ़र्ज़ किया होगा। असल हक़ीक़त यह है कि मेरा और आपका लहू मिलता है। जब वहाँ एहतिराक़ की शिद्दतें हैं तो यहाँ उसका ज़हूर क्योंकर न हो, एक मुद्दत से मेरा पाँव छिल रहा था। छोटे-छोटे दाने ब-तरीक़-ए-दायरा कफ़-ए-पा के मुहीत थे।
नागाह जैसे एक कौ़म में से एक शख़्स अमीर हो जाए, एक दाना उन दोनों में से बढ़ गया और पक गया, और फोड़ा हो गया। और वह क़रीब टख़ने की हड्डी के था। क़ियास कीजिए, क्या हाल होगा। ईद के दिन बादशाह के साथ ईदगाह न जा सका। दूसरे दिन लंग लंगां किला गया और ईद की नज़र दी। आख़िरकार, तप चढ़ी और सुदा-ए-शदीद आ़रिज़ हुआ। वह फोड़ा पका और फूटा।
खोलन अ़र्ज़ करूँ, सोज़िश अ़र्ज़ करूँ, दस-बारह दिन बराबर यह हाल रहा। मरहम लगाए गए। आख़िरकार, वह फोड़ा फूटा। उसमें से मादा-ए-मुंजमिद जिसको कील कहते हैं, वह निकला। दो उंगल ज़ख़्म पड़ गया। अब वह जख़्म भर गया है। दो फाहों में अच्छा हो जाएगा। तप जो आ़रिज़ी थी, जाती रही।