ग़ालिब का ख़त-44

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युसूफ मिर्जा़, क्यों कर

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तुझको लिखूँ कि तेरा बाप मर गया और अगर लिखूँ तो फिर आगे क्या लिखूँ कि अब क्या करो। मगर सब्र वह एक शेवा-ए-फ़र्सूदा इब्नाए रोजगार का है। ताजियत यूँ ही किया करते हैं और यही कहा करते हैं कि सब्र करो। हाय, एक का कॉलेज कट गया है और लोग उसे कहते हैं क ि त ू न तड़प । भल ा क्योंकर न तड़पेगा। सलाह इस अमर में नहीं बताई जाती। दुआ को दखल नहीं। दवा का लगाव नहीं।

पहल े बेट ा मरा, फिर बाप मरा। मुझसे अगर कोई पूछे कि बे-सर-ओ-पा किसको कहते हैं तो मैं कहूँगा कि युसूफ मिर्जा़ को। तुम्हारी दादी लिखती हैं कि रिहाई का हुक्म हो चुका था, यह बात सच है।

अग र स च ह ै त ो जवांमर्द एक बार दोनों क़ैदों से छूट गया। न क़ैद-ए-हयात रही, न क़ैद-ए-तिरंगा। हाँ तजहीज़-ओ-तकफ़ीन के काम आए। यह क्या बात है जो मुजरिम होकर चौदह बरस को मुक़य्यद हुआ हो, उसकी पेंशन क्योंकर मिलेगी और किसकी दरख्वास्त स े मिलेगी।

रसीद किससे ली जाएगी। मुस्तफ़ा ख़ाँ की रिहाई का हुक्म हुआ, गर पेंशन जब्त। हरचंद इस पुरसिश से कुछ हासि ल नहीं।

ग़ालिब

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