भाई साहिब,
मेंह का यह आलम है कि जिधर देखिए, उधर दरिया है। आफ़ताब का नज़र आना बर्क़ का चमकना है, यानी गाहे दिखाई दे जाता है। शहर में मकान बहुत गिरते हैं। इस वक़्त भी मेंह बरस रहा है। ख़त लिखता तो हूँ, मगर देखिए डाकघर कब जावे। कहार को कमल उढ़ाकर भेज दूँगा।
आम अब के साल ऐसे तबाह हैं कि अगर बमुश्किल कोई शख़्स दरख़्त पर चढ़े और टहनी से तोड़कर वहीं बैठकर खाए, तो भी सड़ा हुआ और गला हुआ पाए। यह त सब कुछ है, मगर तुमको तफ़्ता की भी कुछ ख़बर है। पितंबर सिंह उसका लाडला बेटा मर गया। हाय, उस ग़रीब के दिल पर क्या गुज़री होगी।
तुम अब ख़त लिखने में बहुत देर करते हो। आठवें दिन अगर एक ख़त लिखते रहो, तो ऐसा क्या मुश्किल है! यहाँ दोनों लड़के अच्छी तरह हैं। अब वहाँ के लड़कों की ख़ैर-ओ-आ़फ़ियत लिखिए।
26 जुलाई 1855 ई. असद