Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
webdunia
Advertiesment

कितना 'दम' है प्रियंका गांधी में..!

हमें फॉलो करें कितना 'दम' है प्रियंका गांधी में..!
नई दिल्ली , सोमवार, 5 मई 2014 (14:32 IST)
नई दिल्ली। अभी तक कांग्रेस में प्रियंका गांधी को एक ऐसा ट्रम्प कार्ड माना जाता था जो कि आड़े समय में पार्टी के चमत्कारी उलटफेर करने में सफल हो सकता है। उनके बारे में कहा जाता है ‍कि उनके नैन-नक्श ही नहीं वरन बहुत सी बातें उनकी दादी इंदिरा गांधी से मिलती-जुलती हैं।

सोलहवीं लोकसभा के लिए होने वाले चु्नाव प्रचार में जब कांग्रेस के सभी महारथी (जिनमें मां, बेटे) सोनिया गांधी और राहुल गांधी लोगों पर अपने भाषणों से पर्याप्त प्रभाव नहीं छोड़ सके तो अपने पति के बचाव में उतरी प्रियंका भी तब मैदान में आईं जब कांग्रेस की 'भैंस' लगभग पानी में जा चुकी है। अगर कोई बड़ा और अप्रत्याशित उलटफेर नहीं होता है तो कांग्रेस को विपक्ष में बैठने की अपनी भूमिका के बारे में विचार मंथन शुरू कर देना चाहिए।

प्रियंका को इंदिरा और सोनिया की बराबरी करने के लिए बहुत कुछ करना बाकी है। वे अभी तक केवल दो चुनाव क्षेत्रों में ही प्रचार करती रही हैं और इस बार प्रचार में उनके पतिदेव का नाम भी आ गया तो मजबूरी में उन्हें उनका बचाव करना पड़ा। हालांकि कांग्रेसी नेताओं, कार्यकर्ताओं और उनके समर्थकों के लिए यह पुण्य काम है कि वे दामादजी के सम्मान की रक्षा करें।

भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी पर हमला करते हुए प्रियंका ने कहा कि मोदी एक मजबूत और निर्णायक नेता नहीं हैं और वे मुद्दों की बजाय लोगों पर विशेष रूप से उनके भाई, राहुल गांधी और ‍रॉबर्ट वाड्रा, की आलोचना करते हैं। शायद उन्हें लगता हो कि राहुल गांधी बहुत ही निर्णायक और मजबूत नेता हैं। उन्होंने मोदी को 'बचकाना' और 'अपरिपक्व' भी कहा जबकि एक इंटरव्यू में मोदी ने कहा कि प्रियंका उनकी बेटी जैसी है और हमारी संस्कृति है कि हम अपनी बेटियों को लेकर कुछ भी बुरा नहीं बोलते।

लेकिन, प्रियंका की नाराजगी जायज थी क्योंकि वे राहुल गांधी को 'नमूना' और 'शहजादा' कहते रहे हैं। सो गुस्से में आकर उन्होंने भाजपा नेताओं को बौखलाए हुए चूहे कह डाला। उनका कहना था कि देश को दिल रखने वाले नेता की जरूरत है, 56 इंच के सीने की नहीं (हालांकि वास्तव में इतना बड़ा सीना को नरेन्द्र मोदी का भी नहीं होगा)। उनका यह भी कहना था कि वे अपने पिता की बेटी हैं और किसी की भी 'बेटी समान' नहीं हैं।

जब प्रियंका की तुलना इंदिरा गांधी से हुई...पढ़ें अगले पेज पर...


webdunia
FILE
उनके हैडलाइंस पाने वाले इन बयानों से कांग्रेस में थोड़ी सी जान आ गई और कांग्रेसी नेताओं, कार्यकर्ताओं ने फिर उनकी तुलना इंदिरा गांधी से की। उन्हें लगा कि रायबरेली की गलियों में इस बार भी इंदिरा गांधी घूम रही हैं। उन्हें लगने लगा कि वे 'गरीबी हटाओ' जैसा चमत्कारी नारा देंगी। लेकिन तब इंदिरा कहती थीं कि 'मैं कहती हूं कि गरीबी हटाओ, वो कहते हैं इंदिरा हटाओ' और अब मोदी कहते हैं कि 'कांग्रेस कहती है मोदी हटाओ' या 'मोदी को रोको।'

भाजपा ने नारा दिया कि 'अच्छे दिन आने वाले हैं' और कांग्रेसियों को लगा कि प्रियंका के सक्रिय होने से वास्तविक में ऐसा होने वाला है। बेचारों को लगा कि वर्ष 1980 में जो करिश्मा इंदिरा ने दिखाया था, 2004 और 2009 में जो चमत्कार सोनिया ने दिखाया था और 'इंडिया शाइनिंग' की चमक फीकी कर दी थी। वही कुछ प्रियंका करने वाली हैं लेकिन इस बात को अब मान भी लें कि प्रियंका ना तो ‍इंदिरा हैं और ना ही सोनिया गांधी, जिन्होंने पार्टी को अपने चमत्कारों से सत्ता में पहुंचा दिया, लेकिन फिलहाल प्रियंका से ऐसी कोई उम्मीद करना ज्यादती ही होगी। हालांकि पुराने कांग्रेसी कहते हैं कि राजीव गांधी ने उनमें नेतृत्व क्षमता देखी थी और शायद उन्हें अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी भी मान लिया हो, लेकिन नेतृत्व अंतत: राहुल को मिला और वे कांग्रेस को आगे ले जाने में सफल नही हुए लगते हैं।

जहां तक सोनिया गांधी की बात है तो उन्होंने पार्टी का नेतृत्व ऐसे समय में संभाला था जबकि इस पर भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे थे, पार्टी की छवि बहुत खराब थी, नेतृत्व प्रभावी नहीं था, पार्टी की सामाजिक-राजनीतिक अपील बहुत तेजी से गिर रही थी। पार्टी का परम्परागत वोट बैंक, ब्राह्मण, मुस्लिम और अनुसूचित जातियों का समर्थन भाजपा की ओर जा रहा था।

इस मौके का क्षेत्रीय दल, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय क्रांति दल और लोक जनशक्ति लाभ उठा रहे थे। तब 1998 में पार्टी प्रमुख बनने के बाद सोनिया ने सभी निजी और राजनीतिक विरोधों को अपने लाभ में तब्दील कर दिया था। उनके विदेशी मूल का मुद्दा बनाया गया, उन्हें लीडर की बजाय रीडर कहा गया लेकिन उन्हें पार्टी को गरीब समर्थक छवि देकर लोकप्रिय बनाया। उन्हें पता था कि कोई भी दल अपने बल पर बहुमत हासिल नहीं कर सकता इसलिए उन्होंने एक गठबंधन बनाया और इसमें राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) को भी शामिल किया जोकि उनके विदेश मूल के मुद्‍दे को लेकर ही कांग्रेस से अलग हुई थी।

मगर सोनिया ने कर दिखाया करिश्मा... पढ़ें अगले पेज पर...


वर्ष 2004 में उन्होंने कांग्रेस को सत्ता में लाकर सभी को आश्चर्यचकित कर दिया और वे गठबंधन सरकार की मुखिया बनीं। उन्होंने प्रधानमंत्री का पद ठुकराकर जहां विरोधियों को भी सकते में डाल दिया वहीं अपना कद बढ़ाया। ऐसा करके उन्होंने इंदिरा के कुछ गुणों को दर्शाया। इंदिरा को अपने विरोधियों का मुकाबला करने, अपने उद्देश्य के प्रति दृढ़प्रतिज्ञ होने और इसके साथ ही जरूरत होने पर लचीलापन दर्शाने के लिए भी जाना जाता था। उस समय अटल बिहारी वाजपेयी जैसे विरोधी भी उनकी प्रशंसा करते थे और बांग्लादेश युद्ध के बाद उन्होंने दुर्गा भी कहा था। इंदिरा के राजनीतिक जीवन में भी बहुत उतार चढ़ाव आए लेकिन उन्होंने अपने ही तरीके से इनका सामना किया था।

लेकिन, क्या प्रियंका में ऐसी मुसीबतों का सामना करने का माद्दा है? क्या वे इस मामले में अपनी दादी या अपनी मां की बराबरी कर सकती हैं? माना कि वे अपने तरीकों से अपने श्रोताओं के साथ निजी तौर पर बात करते हुए या रैलियों में लोगों को संबोधित करते हुए उन्हें अपना प्रशंसक बना सकती हैं। वे विरोधियों का जवाब देना भी जानती हैं, लेकिन उनके साथ दो बड़ी कमियां भी जुड़ी हुई हैं। राजनीति को लेकर उनके दृष्टिकोण में जो खामियां हैं वे सभी जानते हैं।

पहली बात है कि उन्होंने अपने राजनीतिक प्रभाव को केवल अमेठी और रायबरेली तक ही सीमित करके रखा है। इन क्षेत्रों में राहुल और सोनिया गांधी की जीत पक्की मानी जाती है। इस बार भी सोनिया गांधी की सीट को कोई खतरा नहीं है। एक समझौते के तहत समाजवादी पार्टी ने वहां से अपना कोई उम्मीदवार मैदान में नहीं उतारा है। लेकिन इस बार अमेठी में त्रिकोणीय मुकाबला है और भले ही राहुल गांधी किसी प्रकार जीत भी जाते हैं तो उनकी जीत का अंतर कम हो सकता है और इस कारण से परिवार को यहां पसीना बहाना पड़ रहा है।

इस बार भी प्रियंका अमेठी में प्रचार करती रही हैं लेकिन क्या वे राहुल के पिछले जीत के अंतर को बरकरार रख सकती हैं? 2009 में राहुल गांधी तीन लाख से भी अधिक मतों से जीते थे, लेकिन इस बार ऐसा नहीं लगता कि वे जीत के इस अंतर को बरकरार रख पाएंगी। क्या वे देश के अन्य चुनाव क्षेत्रों में सत्तारूढ़ दल विरोधी लहर को रोक सकती हैं? इस लिहाज से अमेठी में भी उनका प्रभाव ठीक नहीं कहा जा सकता है।

वे अमेठी में ही सक्रिय रही हैं लेकिन इस संसदीय क्षेत्र की विधानसभा सीटों को जिताने में कामयाब नहीं हो सकी हैं। यही बात रायबरेली के बारे में भी कही जा सकती है। विधानसभा चुनावों के दौरान भी उन्होंने पार्टी का प्रचार किया और उनका कहना था कि वे अमेठी और रायबरेली की सभी दसों विधानसभा सीटों पर जीत हासिल करेंगी। लेकिन पार्टी अमेठी में केवल दो विधानसभा सीटें जीत सकी थी। रायबरेली की सभी पांचों विधानसभा सीटों पर गैर कांग्रेसी प्रत्याशी जीते थे।

एक प्रचारक या संचारक (कम्युनिकेटर) के तौर पर उनके तरीके पर भी सवाल उठाए जा सकते हैं। इन दोनों संसदीय क्षेत्रों के पंचायत चुनावों में कांग्रेस का सफाया हो चुका था और वे अमेठी में विधानसभा चुनाव के लिए प्रचार कर रही थीं। वे मतदाताओं से बातें करतीं, उनसे सवाल जवाब करतीं, लेकिन उनके पास कांग्रेस के राजनीतिक भाग्य को बदलने की कोई योजना नहीं थी। इसका उदाहरण मिलना स्वाभाविक था।

मतदाता से यह जवाब मिला प्रियंका को... पढ़ें अगले पेज पर...


अमे‍ठी के‍ तिरहुत में वे लोगों से बात कर रही थीं। उन्होंने भीड़ से पूछा, 'क्या उनके विधायक ने उनकी जरूरतों का ध्यान रखा और उनकी सेवा की?' तब एक नाराज श्रोता का उत्तर था, 'ना तो विधायक और ना ही सांसद ने हमारे लिए कुछ भी किया है।' यह स्थिति तब है ‍जबकि वे मात्र दो संसदीय सीटों पर प्रचार करती हैं। यह एक चेतावनी का सिग्नल था कि विधानसभा और पंचायतों के चुनाव में सफाया देखने के बाद कांग्रेस को कुछ सोचना और कुछ करना चाहिए।

लेकिन, तब प्रियंका के लिए कांग्रेस में कोई भूमिका नहीं रही और अगर उनसे दस वर्ष के भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी, नीतिगत निर्णय लेने में लकवे की स्थिति पर सारे देश में सवाल पूछे जाएं तो वे क्या जवाब देंगी? स्वभाविक है कि बगलें झांकने के अलावा उनके पास कोई उत्तर नहीं होगा। अगर दस साल तक सत्ता में रहने के बावजूद राहुल सफल नहीं हो सके तो अनदेखे भविष्य के लिए किसे तैयार किया गया? जब भाजपा और राजग दलों का प्रचार शुरू हुआ था तब कहा गया कि प्रियंका अमे‍ठी और राय बरेली से बाहर जाकर भी प्रचार करेंगीं? शायद वे मोदी के खिलाफ वाराणसी से चुनाव भी लड़ें लेकिन क्या यह संभव हुआ?

आखिर प्रियंका ऐसा कौनसा ब्रह्मास्त्र हैं, जिसका और भी कठिन समय में उपयोग किया जाएगा? लेकिन इसके पीछे भी कांग्रेस की एक मजबूरी थी और पार्टी नहीं चाहती थी कि प्रियंका आगे बढ़कर पार्टी का नेतृत्व करें क्योंकि ऐसा करने से उनके पति, रॉबर्ट वाड्रा के जमीन सौदों के मामले सार्वजनिक हो जाएंगे। लेकिन मामले ना केवल उजागर हो गए और अपने पति के बचाव में प्रियंका के पास कोई तर्क नहीं थे। केवल पति का साथ देने की मजबूरी थी और इसी मजबूरी के कारण उन्हें बिना किसी तैयारी के चुनावी मैदान में उतरना पड़ा।

इस स्थिति का अंत यह हुआ कि कांग्रेस का वार रूम पार्टी की त्रिमूति सोनिया, राहुल और प्रियंका तक सीमित होकर रह गया। इन तीनों ने मिलकर सारे फैसले लिए, चुनाव की रणनीति तय की और मां और बेटे के बीच में प्रियंका ने पुल का काम किया। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता भी राहुल के तौर तरीकों से खुश नहीं रहे और उन्होंने भी जरूरत के समय किनारा कर लेने में ही अपनी भलाई समझी।

जानकार लोगों का कहना है कि अगर कांग्रेस का चुनाव नेतृत्व राहुल की बजाय प्रियंका के हाथ में होता तो बेहतर स्थिति होती। कांग्रेस में बहुत पहले से प्रियंका को ‍सक्रिय राजनीति में उतारने की बातें होती रही हैं लेकिन मां-बेटे की सरकार में किसी तीसरे के लिए गुंजाइश ही नहीं थी और अब तो ऐसे हालात हो गए हैं कि प्रियंका चाहकर भी कुछ नहीं कर सकती हैं क्योंकि मां-बेटे ने अपने पैरों पर कुल्हाडीं नहीं मारी वरन कुल्हाड़ी पर ही पैर मार लिए और भविष्य के बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। हो सकता है कि कांग्रेस के लिए बेहतर या बदतर दिन आने वाले हों।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi