Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
webdunia
Advertiesment

भारत के अब तक के प्रधानमंत्री

हमें फॉलो करें भारत के अब तक के प्रधानमंत्री
आजादी के लंबे और रोमांचकारी क्रांतिकारी आंदोलन के परिणामस्वरूप देश 15 अगस्त 1947 को पराधीनता की बेड़ियों को काटकर स्वाधीन हुआ था।

लॉर्ड माउंटबेटन ने जापान की सेनाओं के ब्रिटिश सेनाओं के सामने 15 अगस्त 1945 को (हिरोशिमा और नागासाकी की प्राणघाती बमवर्षा के पश्चात) आत्मसमर्पण की स्मृति में इस घटना की दूसरी वर्षगांठ 15 अगस्त 1947 को भारत को स्वतंत्र करने की घोषणा जुलाई मध्य में की थी।

यह घोषणा तुरत-फुरत में की गई थी जिसके कई गंभीर परिणाम हमें भुगतने पड़े, परंतु यहां उनका उल्लेख आवश्यक नहीं है। जैसे ही देश के स्वतंत्र होने की घोषणा कर उसकी तिथि नियत की गई, वैसे ही पहले प्रधानमंत्री की खोज आरंभ हो गई। महात्मा गांधी की इच्छा पर सरदार वल्लभभाई पटेल ने अपनी प्रधानमंत्री पद की मजबूत दावेदारी वापस ली और पंडित नेहरू को देश का प्रधानमंत्री स्वीकार कर लिया। यह सरदार पटेल का त्याग था।

देश के लोकतंत्र की पहली ईंट इस प्रकार सरदार पटेल के उस अनुपम और अद्वितीय त्याग पर रखी गई। यहां हम 15 अगस्त 1947 से अब तक कुल 13 प्रधानमंत्रियों के विषय में बताने का प्रयास कर रहे हैं कि अब तक के सारे प्रधानमंत्री भारत को कैसे मिले और उनका शासनकाल कब से कब तक का रहा?

FILE
पंडित जवाहरलाल नेहरू

गांधीवादी तथा स्वतंत्रता सेनानियों में अग्रणी और गांधीजी के विद्वान शिष्य पंडित जवाहरलाल नेहरू पंडित मोतीलाल नेहरू के इकलौते बेटे थे। 15 अगस्त 1947 से लेकर 27 मई 1964 तक लगभग 17 साल इन्होंने देश पर शासन किया।

इससे पूर्व सितंबर 1946 में गठित हुई अंतरिम सरकार का नेतृत्व भी नेहरूजी ने ही किया था। इनकी पत्नी का नाम कमला नेहरू था जिनसे इन्हें इंदिरा प्रियदर्शिनी नामक पुत्री प्राप्त हुई।

स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान नेहरूजी कई बार जेल गए। नेहरूजी अच्छे लेखक भी थे। भारत एक खोज, विश्व इतिहास की झलक, एन ऑटोबायोग्राफी : इंडिपेंडेंस एंड आफ्टर, सोवियत रूस जैसी इनकी कई पुस्तकें विश्वविख्यात रहीं।

14 अगस्त 1947 की रात्रि 12 बजे खंडित भारत स्वतंत्र हुआ। उसके 1-2 मिनट बाद (15 अगस्त की तिथि के क्षणों में) नेहरूजी ने स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री के रूप में संविधान सभा को संबोधित किया। नेहरूजी ने अपने पहले भाषण में कहा था-

सालों पूर्व हमने नियति के साथ एक करार किया था और अब वह काल आ गया है, जब हम अपनी प्रतिज्ञा पूरी करेंगे… आधी रात ठीक 12 बजे के घंटे के साथ जब संसार सोया रहेगा, भारत तब जीवन और स्वतंत्रता के लिए जागेगा।

आजादी के तत्काल पश्चात हैदराबाद, जूनागढ़ और जम्मू-कश्मीर राज्यों की समस्या सामने आईं। सरदार पटेल अन्य 563 रियासतों का विलीनीकरण भारत के साथ कर चुके थे, लेकिन ये 3 रियासतें कुछ अधिक मुसीबत पैदा कर रही थीं। तब सरदार पटेल ने हैदराबाद और जूनागढ़ की रियासत का सैनिक समाधान ढूंढ लिया और उन्हें भारत में विलीन कर दिया, लेकिन कश्मीर को नेहरूजी ने कुछ राजनीतिक कारणों से अपने पास रखा।

नेहरूजी कश्मीर समस्या का स्थायी समाधान नहीं कर पाए। इनके शासनकाल में लोकतांत्रिक मूल्यों का समुचित विकास हुआ। नेहरूजी ने संसद को पूरा समय और सम्मान देने का प्रयास किया। गांधीवादी अहिंसा को इन्होंने उसी प्रकार अपनाया जिस प्रकार सम्राट अशोक ने अपने धर्मगुरु महात्मा बुद्घ की अहिंसा को अपनाया था, फलस्वरूप देश को चीन के हमले का अपमानजनक सामना करना पड़ा।

नेहरूजी ने देश के समग्र विकास के लिए पंचवर्षीय योजनाएं चलाईं और अनेक महत्वाकांक्षी योजनाओं का शुभारंभ किया। 1962 के चीनी आक्रमण ने इन्हें तोड़ दिया, फलस्वरूप इन्हें पैरालाइसिस (लकवा) हो गया तथा 27 मई 1964 को वे संसार से चल बसे। उनकी समाधि का नाम शांतिवन है, जो दिल्ली में यमुना तट पर है।

अगले पन्ने पर, देश के द्वितीय प्रधानमंत्री...


webdunia
FILE
लालबहादुर शास्त्री

27 मई 1964 को भार‍त को पहली बार एक राजनेता के परलोकगमन पर धक्का लगा। अब देश की बागडोर किसे सौंपी जाए? यह यक्षप्रश्न अब देश के सामने था। तात्कालिक आधार पर उसी दिन यह दायित्व वरिष्ठ नेता गुलजारीलाल नंदा को सौंपा गया जिन्होंने 13 दिन तक यानी 9 जून 1964 तक इस पद के दायित्वों का संपादन किया।

तत्पश्चात 9 जून 1964 को लालबहादुर शास्त्री को इस महान दायित्व के लिए विधिवत नेता निर्वाचित कर प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई गई। इस छोटे कद के महान नेता ने मात्र 18 माह देश का सफल नेतृत्व किया। इस अल्पकाल में ही देश के इतिहास में शास्त्रीजी ने अपना स्थान स्वर्णाक्षरों में अंकित करा लिया।

उनके शासनकाल में पाकिस्तान ने 1965 में भारत पर आक्रमण कर दिया। शास्त्रीजी ने बड़े धैर्य के साथ उस युद्घ का सफल नेतृत्व किया। शांतिकाल में भारत के इस लाल को जहां बेचारा शास्त्री माना जाता था वहीं युद्घकाल के बेचारे शास्त्री को बेबाक बहादुर मानने के लिए उनके विरोधियों को भी विवश कर दिया।

युद्घ तो भारत जीत गया था, पर रूस ने और कुछ अन्य विश्व शक्तियों ने शास्त्रीजी को पाकिस्तान के साथ वार्ता करने के लिए विवश कर दिया। रूस के ताशकंद में वार्ता निश्चित की गई।

पाक सैनिक शासक अय्यूब के साथ बैठक आरंभ हुई। बैठक का दौर कई दिनों तक चला। रूसी प्रधानमंत्री हर हाल में वार्ता को सफल कराना चाहते थे। अत: शास्त्री को बलात इस बात पर सहमत करा लिया कि भारत पाक के विजित क्षेत्रों को छोड़ देगा तथा युद्घ से पूर्व की स्थिति में दोनों देशों की सेनाएं चली जाएंगी। शास्त्रीजी के लिए यह बात बड़ी कष्टप्रद थी इसलिए उस देशभक्त प्रधानमंत्री को इस शर्त को मानने पर गहरा सदमा लगा।

अत: 11 जनवरी 1966 की रात्रि में उन्हें संदेहास्पद परिस्थितियों में ताशकंद में ही दिल का दौरा पड़ा और वे चल बसे। रूस के प्रधानमंत्री कोसिगिन ने अपने देश से भारत के इस महान सपूत को कंधा देकर विदा किया और उनके अंतिम संस्कार में सम्मिलित हुए।

उनकी समाधि का नाम विजय घाट (दिल्ली) है। मोरारजी देसाई ने शास्त्रीजी को प्रधानमंत्री बनते समय चुनौती दी थी। प्रधानमंत्री बनने से पूर्व वे गृहमंत्री भी रहे। नेहरूजी ने उन्हें निर्विभागीय मंत्री बनाकर अपना एक तरह से उत्तराधिकारी ही बना दिया था। उनकी नेतृत्व क्षमता और सादगी को देश आज तक श्रद्घा से याद करता है।

webdunia
FILE
गुलजारीलाल लाल नंदा
दो बार देश के कार्यवाहक प्रधानमंत्री बने। 1964 में पंडित जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद उन्हें कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनाया गया और 1966 में लालबहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद देश का कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनाया गया। इनका कार्यकाल दोनों बार उसी समय तक सीमित रहा जब तक की कांग्रेस पार्टी ने अपने नए नेता का चयन नहीं कर लिया।


webdunia
FILE
इंदिरा गांधी

11 जनवरी 1966 को शास्त्रीजी के निधन के पश्चात वरिष्ठ कांग्रेसी नेता कामराज के हस्तक्षेप से गुलजारीलाल नंदा को ही पुन: देश का कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनाया गया। कामराज चाहते थे कि देश के नए नेता का चुनाव सर्वसम्मति से हो जाए।

कामराज ने इसके लिए कांग्रेस के भीतर नेता ढूंढने के प्रयास भी किए लेकिन मोरारजी देसाई ने पुन: उनके प्रयासों को चुनौती दी। कांग्रेस के अधिकांश नेताओं ने पंडित नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी को मैदान में लाकर खड़ा किया और उन्होंने मोरारजी देसाई को भारी मतों से पराजित कर दिया। तत्पश्चात देश के राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने इंदिराजी को 24 जनवरी 1966 को देश के तीसरे प्रधानमंत्री के रूप में शपथ दिलाई।

इंदिरा ने प्रधानमंत्री बनने से पूर्व संगठन की विभिन्न जिम्मेदारियां निभाई थीं। वे कांग्रेस की अध्यक्ष भी रहीं। शास्त्रीजी ने उन्हें सूचना एवं प्रसारण मंत्री बनाया था। इस प्रकार उनके पास एक अच्छा अनुभव था, परंतु फिर भी उनका पहला भाषण कॉलेज की एक छात्रा जैसा ही था।

बैंकों का राष्ट्रीयकरण इंदिराजी के काल में ही किया गया। राजाओं के प्रीविपर्स बंद किए गए। कांग्रेस का विभाजन हुआ। वीवी गिरि को उन्होंने देश का अपनी पसंद का राष्ट्रपति बनाया। इलाहाबाद हाई कोर्ट के निर्णय से भयभीत इंदिराजी ने देश में आपातकाल की घोषणा कराई।

इससे पूर्व जब 1971 में भारत और पाक युद्घ हुआ तो एक चंडी के रूप में उन्होंने युद्घ का संचालन किया। अटलजी ने तब उन्हें 'चंडी' की उपाधि दी थी। 93,000 हजार पाक सैनिकों ने हमारे सामने हथियार डाल दिए। इतनी बड़ी सेना ने विश्व इतिहास में पहली बार आत्मसमर्पण किया।

इसी दौरान बांग्लादेश का विश्व मानचित्र पर एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में जन्म हुआ। पाकिस्तान के साथ 1972 में शिमला समझौता किया गया। पाकिस्तान के नेता जुल्फिकार अली भुट्टो ने नाक रगड़कर इंदिराजी से कहा था कि मैडम अबकी बार छोड़ दो फिर कभी ऐसी गलती नहीं करेंगे।

लेकिन 25 जून 1975 की रात्रि में लगे आपातकाल ने इंदिराजी को गलत दिशा में मोड़ दिया। उससे पहले देश उनके साथ था। इससे उनका आत्मविश्वास डगमगा गया था और वे वस्तुस्थिति का आकलन नहीं कर पाईं। फलस्वरूप देश की जनता ने उनका साथ छोड़ दिया और 1977 में चुनाव हुए तो वे हार गईं।

इसके बाद वे अपनी सहेली पुपुल जयकर के कंधे पर सिर रखकर रोने लगीं और कहने लगीं कि पुपुल मैं हार गई। 1980 में उन्होंने फिर इतिहास रचा। सत्ता में उनकी शानदार वापसी हुई। इस बार उन्होंने एशियाई खेलों का आयोजन 1982 में दिल्ली में कराया, जबकि इसी वर्ष 101 देशों की गुटनिरपेक्ष देशों की नेता भी बनीं।

इंदिराजी के समय में पंजाब में खालिस्तानी आंदोलन ने जोर पकड़ा। स्वर्ण मंदिर, अमृतसर में सेना भेजने के लिए उन्होंने राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह से रात्रि में उसी प्रकार हस्ताक्षर कराए, जैसे फखरुद्दीन अली अहमद से रात में जाकर आपातकाल के पत्रों पर कराए थे।

ज्ञानी जैलसिंह को इस बात का गहरा दुख रहा था। बाद में पद मुक्त होने पर उन्होंने स्वर्ण मंदिर में जाकर क्षमा-याचना की थी। इंदिराजी ब्लू स्टार ऑपरेशन (पंजाब में हुई सैनिक कार्रवाई) की सबसे बड़ी शहीद बनीं। 31 अक्टूबर 1984 को उनके अंगरक्षकों ने उन्हें गोली मारकर शहीद कर दिया।

एक महान नेता से देश वंचित हो गया। इससे पूर्व उनके बेटे संजय गांधी की एक हवाई जहाज दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी। इसके बाद उन्होंने अपने पायलट बेटे राजीव गांधी को अपना वारिस बनाने के लिए राजनीति में प्रवेश दिलाया था। अब वही उनके वारिस थे।

webdunia
FILE
मोरारजी देसाई

इंदिरा गांधी के लिए देश में आपातकाल लगाना महंगा पड़ा। देश में विपक्षी नेताओं, पत्रकारों, प्रेस और जनसाधारण के साथ कितने ही अमानवीय कार्य हुए। फलस्वरूप देश की जनता इंदिरा के प्रति विद्रोही हो गई। समय के सच को विपक्ष ने समझा और उस समय के पांच बड़े विपक्षी दलों ने मिलकर जनता पार्टी नामक नया राजनीतिक दल बनाया।

इंदिरा गांधी ने 1977 में चुनावों की घोषणा कर दी। लोगों ने अपना जनादेश जनता पार्टी को दिया। 29 फरवरी 1896 को गुजरात के भदेली स्थान में जन्मे कट्टर सिद्घांतवादी माने जाने वाले मोरारजी देसाई ने 23 मार्च 1977 को प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। जनता पार्टी ने संसद में 542 में से 330 सीटें प्राप्त कीं।

विभिन्न महत्वाकांक्षी नेताओं की महत्वाकांक्षाओं और अहंकार का शिकार जनता पार्टी बनने लगी थी। इसलिए अंतर्कलह का परिवेश सरकार में दिखने लगा। विदेश मंत्री के रूप में अटलबिहारी वाजपेयी तो गृहमंत्री के रूप में चौधरी चरणसिंह अपनी महत्वाकांक्षा पालने लगे। मोरारजी घटक दलों को एकसाथ रखने में निरंतर असफल होते जा रहे थे।

यद्यपि उन्होंने गैर-कांग्रेसी और नेहरू-गांधी खानदान से अलग हटकर पहली बार शानदार इतिहास बनाया था। वे देश में पहली बार गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने थे। मोरारजी देसाई सत्यनिष्ठ भारतीय संस्कृति के पोषक और उसकी समृद्घिशाली परंपराओं के उद्भट प्रस्तोता थे। मोरारजी का शानदार नेतृत्व जनता पार्टी के नेताओं की महत्वाकांक्षाओं में दबकर रह गया जिससे देश एक ऊर्जावान नेता के नेतृत्व से शीघ्र ही वंचित हो गया।

इसराइल के तत्कालीन विदेशमंत्री ने उनके समय में भारत की यात्रा की थी जिन्होंने पाकिस्तान में परमाणु हमला करके भारत की कश्मीर समस्या के हल में अपनी भूमिका का प्रस्ताव रखा था। लेकिन मोरारजी देसाई ने संभावित जनहानि के दृष्टिगत इसराइल के विदेशमंत्री का यह प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया था। पाकिस्तान को जब बात पता चलने पर उसने मोरारजी को अपने सर्वोच्च नागरिक सम्मान निशान-ए-पाकिस्तान से सम्मानित किया था।

मोरारजी 81 वर्ष की वृद्घावस्था में देश के प्रधानमंत्री बने थे। फिर भी उनकी आयु कभी उनके कार्यों में बाधक नहीं बनी थी। वे संयमित जीवनशैली के व्यक्ति थे इसलिए लगभग 100 वर्ष की अवस्था भोगकर 1995 में उनका निधन हुआ था।


webdunia
GOV
चौधरी चरण सिंह

चौधरी चरण सिंह की महत्वाकांक्षा से मोरारजी देसाई को सबसे अधिक दो-चार होना पड़ा था। उन्होंने इंदिरा गांधी का सबसे अधिक उत्पीड़न किया। लेकिन पराजय से टूटी हुई इंदिरा ने जब जनता पार्टी नेताओं की दाल जूतों में बंटती देखी तो उन्होंने चौधरी चरण सिंह को मोरारजी के विरुद्घ उकसाना आरंभ कर दिया।

नितांत ईमानदार, सत्यनिष्ठ, स्वाभिमानी और किसानों के नेता के रूप में ख्यातिप्राप्त चौधरी साहब इंदिरा गांधी की राजनीति में फंस गए। चौधरीजी ने जनता पार्टी से बगावत कर दी। तब 28 जुलाई 1979 को उन्होंने किसान के पहले बेटे के रूप में केंद्र में सरकार बनाई। उन्हें बाहर से समर्थन देने का कांग्रेस ने वादा किया।

कांग्रेस (यू), समाजवादी पार्टियों व भारतीय लोकदल के नेता के रूप में चौधरी साहब ने प्रधानमंत्री पद की शपथ तो ले ली लेकिन कांग्रेस ने अपना समर्थन वापस ले लिया। अत: चौधरी साहब ने संसद में अपना बहुमत सिद्घ करने से 1 दिन पहले ही 19 अगस्त 1979 को अपने पद से त्यागपत्र दे दिया।

इंदिराजी ने उन पर दबाव डाला था कि वे उनके खिलाफ बैठे आयोगों को खत्म करें और उन्हें दोषमुक्त करें। पर स्वाभिमानी चरणसिंह इस बात पर अपनी आत्मा का सौदा नहीं कर पाए फलस्वरूप उनकी सरकार गिर गई। पर चौधरी साहब का लाल किले पर एक बार झंडा फहराने का अपना सपना अवश्य पूरा हो गया।

23 दिसंबर 1902 को मेरठ जिले के नूरपुर गांव में जन्मे चौधरी साहब ने सार्वजनिक जीवन में विभिन्न पदों को सुशोभित किया। वे उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री भी बने थे, केंद्र में गृहमंत्री भी रहे। एक अच्छे अधिवक्ता से अपने जीवन का प्रारंभ किया और ऊंचाई तक पहुंचे।

29 मई 1987 को उनके जीवन का शानदार अंत हुआ। उनकी समाधि को दिल्ली में किसान घाट के नाम से जाना जाता है। उनकी ईमानदारी और राष्ट्रभक्ति का सब लोग लोहा मानते थे। वे स्पष्टवादी थे।


webdunia
FILE
राजीव गांधी

राजीव गांधी देश के छठे प्रधानमंत्री बने थे। 31 अक्टूबर 1984 की शाम 6.15 बजे उन्हें राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह ने शपथ दिलाई। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या से देश की परिस्थितियां ऐसी थीं कि किसी कार्यवाहक प्रधानमंत्री की आवश्यकता न समझते हुए राजीव को ही प्रधानमंत्री बनाया गया।

यद्यपि वरिष्ठ मंत्री प्रणब मुखर्जी उस समय प्रधानमंत्री पद के दावेदार थे और मीडिया ने उनकी जीवनी तक को बताना शुरू कर दिया था लेकिन वे शालीनता से परिस्थितियों को समझ गए और पीछे हट गए।

राजीव गांधी देश के सबसे पहले युवा प्रधानमंत्री बने। इंदिराजी जब प्रधानमंत्री बनी थीं तो उस समय उनकी अवस्था 49 वर्ष की थी, जबकि राजीव गांधी जब प्रधानमंत्री बने तो उस समय उनकी अवस्था 40 वर्ष की थी। राजीव के प्रधानमंत्री बनने पर युवाओं में विशेष उत्साह पैदा हुआ।

राजीव ने भी मतदान के लिए न्यूनतम आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी थी। देश की जनता ने 1985 के आम चुनावों में उन्हें प्रचंड बहुमत दिया। 543 में से 415 सीटें उन्हें लोकसभा में मिलीं। राजीव गांधी के लिए यह अबूझ पहेली आज तक बनी हुई है कि वे राजनीति के योग्य नहीं थे या राजनीति उनके योग्य नहीं थी।

राजीव गांधी भद्रपुरुष थे, ईमानदार थे, प्रगतिशील थे लेकिन तब तक राजनीति में इन गुणों का सम्मान कम हो गया था। उनकी अनुभवशून्यता उनके आड़े आई और उनके लोग उनकी जड़ें खोदने लगे। पायलट की नौकरी छोड़कर वे राजनीति में आए थे और अपनी पत्नी सोनिया के साथ राजनीति से दूर रहना ही पसंद करते थे। प्रधानमंत्री बनने के बाद राजीव गांधी अनिर्णय की स्थिति में रहे।

उनकी अनुभवशून्यता और मां के आकस्मिक निधन ने देश में सिखों की हत्याओं का खेल शुरू करा दिया। दुखी राजीव सक्षम कार्रवाई नहीं कर पाए। उन्होंने प्रधानमंत्री बनने पर पंजाब समझौता किया, उसके पश्चात असम समझौता। इन दोनों समझौतों से पंजाब व पूर्वोत्तर की हिंसक गतिविधियों में रुकावट आई।

इसके पश्चात श्रीलंका में उन्होंने भारतीय सेना भेजी। भारत की सेना ने वहां भारत के ही तमिलों पर अत्याचार करने आरंभ किए तो तमिल समुदाय राजीव के प्रति घृणा से भर गया।

इधर देश में बोफोर्स तोपों में दलाली खाने के कथित आरोपों से कांग्रेस की स्थिति दिन- प्रतिदिन दुर्बल होती जा रही थी। वी.पी. सिंह रातोरात हीरो बनते जा रहे थे। उन्होंने राजीव की राजनीतिक कब्र खोद दी और उन्हें सत्ता से दूर कर दिया। बाद में सिद्घ हुआ कि राजीव सचमुच निर्दोष थे, लेकिन तब तक उन्हें दंड मिल चुका था।

दूसरी ओर खफा तमिल लोगों ने उनकी हत्या का षड्यंत्र रचा और 21 मई 1991 को जब चुनाव का दौर चल रहा था तो तमिलनाडु के श्रीपेरुम्बुदूर में उनकी निर्मम हत्या कर दी गई। उन्होंने भारत में टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किए। कम्प्यूटर क्रांति, पेयजल की उपलब्धता, साक्षरता मिशन, श्वेत क्रांति, खाद्य तेल मिशन, गांव-गांव में टेलीफोन की व्यवस्था पंचायती राज, महिला उत्थान आदि के क्षेत्रों में विशेष कार्य किए।

दक्षेस संगठन की स्थापना राजीव गांधी ने की थी। चीन की यात्रा कर उसका दृष्टिकोण भारत के प्रति बदलने में किसी सीमा तक सफलता भी प्राप्त की। वे 31 अक्टूबर 1984 से 2 दिसंबर 1989 तक प्रधानमंत्री रहे।


webdunia
FILE
विश्वनाथ प्रताप सिंह

राजा मांडा के नाम से विख्यात वीपी सिंह उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। वे फिर राजीव गांधी की सरकार में वित्तमंत्री रहे। बाद में फेयरफेक्स विवाद के चलते उन्हें इस मंत्रालय से हटाकर रक्षामंत्री बना दिया गया तो वहां उन्होंने बोफोर्स तोपों के सौदे में कथित दलाली का भंडाफोड़ कर दिया।

इसके परिणामस्वरूप जनसाधारण में वे एक जिंदा शहीद बनते चले गए। उनकी लोकप्रियता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी जबकि राजीव गांधी की लोकप्रियता का ग्राफ दिन-प्रतिदिन कम होता जा रहा था। राजीव गांधी के विषय में उस समय लोग उन्हें 'मिस्टर क्लीन' कहकर अपने सम्मान का प्रदर्शन किया करते थे।

लेकिन 410 बोफोर्स तोपों के सौदे में कथित 60 करोड़ की दलाली ने उनकी चादर को मैला बनाना शुरू कर दिया। उस समय के राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह थे जिनकी राजीव गांधी से उस समय ठन रही थी।

उन्होंने भी वी.पी. सिंह को थपकी मारी और कहा जाता है कि एक बार तो राष्ट्रपति ने उन्हें पीएम बनाने के लिए भी कहा था, लेकिन राजा पीछे हट गए, पर 1989 के चुनावों में उन्हें जनता ने समर्थन दिया और 2 दिसंबर 1989 को वे देश के प्रधानमंत्री बन गए।

वीपी के साथी भी यह जानते थे कि वे दुष्प्रचार के माध्यम से इस पद पर पहुंचे हैं अत: उन्होंने राजा के साथ अधिक देर तक चलना ठीक नहीं समझा। उन्होंने देश के पिछड़े वर्ग को अपने साथ लेने के लिए मंडल आयोग की सिफारिशें लागू कर दीं। इससे देश में छात्रों ने आत्मदाह करना शुरू कर दिया। तत्समय भाजपा ने मंडल के जवाब के रूप में कमंडल उठा लिया। उसने राम मंदिर निर्माण के लिए रथयात्रा निकालनी आरंभ कर दी।

उनके साथ चौधरी देवीलाल थे, चंद्रशेखर थे। इन दोनों ने राजा के स्थान पर स्वयं को प्रधानमंत्री बनने की तिकड़में बिछानी आरंभ कर दीं। 1989 के चुनाव में वीपी सिंह के राष्ट्रीय मोर्चे को 146 सीटें मिलीं थीं जबकि कांग्रेस को 197 सीटें मिलीं थीं, लेकिन भाजपा, वामपंथी आदि दलों ने मिलकर राष्ट्रीय मोर्चे को समर्थन दिया था।

भारी दुष्प्रचार के बावजूद राजा, राजा बनने के लिए विभिन्न बैशाखियों का सहारा ढूंढते रहे। अंत में कांग्रेस ने जनता पार्टी की तर्ज पर ही इस सरकार को भी चलता करने का रास्ता खोजा। उसने चंद्रशेखर को अपना समर्थन दिया और वी.पी. सिंह की सरकार को गिराने में कामयाबी हासिल कर ली।

5 नवंबर 1990 को वी.पी. सिंह का जनता दल बिखर गया। 10 नवंबर 1990 को उनकी गद्दी जाती रही। उनके ही 58 सांसदों ने उन्हें छोड़कर चंद्रशेखर को अपना नेता चुन लिया। इस प्रकार उन्हें देश का प्रधानमंत्री बने रहने का अवसर 1 वर्ष की अवधि के लिए भी नहीं मिल पाया।


webdunia
GOV
चंद्रशेखर

एक योग्य सांसद और प्रखर वक्ता के रूप में युवा तुर्क नेता चंद्रशेखर ने राजनीति में प्रवेश किया था। वे बहुत ही महत्वाकांक्षी थे। उनकी बुद्घि तीक्ष्ण थी। वे श्रम के प्रति निष्ठावान थे।

वीपी सिंह के साथ उनकी अधिक देर तक नहीं बनी। उन्होंने जनता पार्टी के गिरने के समय पूरे भारत की पैदल यात्रा की थी। उन्होंने 10 नवंबर 1990 को भारत के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली।

तब उनको कांग्रेस ने बाहर से समर्थन देने की बात कही। बाद में कांग्रेस ने अपने नेता राजीव गांधी की गुप्तचरी करने का आरोप सरकार पर लगाकर 5 मार्च 1991 को अपना समर्थन वापस ले लिया। फलस्वरूप देश में नए चुनाव हुए। इन चुनावों के दौरान ही राजीव गांधी की हत्या हो गई थी।

इसके ‍परिणामस्वरूप कांग्रेस को केंद्र में जोड़-तोड़ करके अपनी सरकार बनाने का अवसर मिल गया। 21 जून 1991 तक चंद्रशेखर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर विराजमान रहे। 1995 में उन्हें सर्वोत्कृष्ट सांसद का पुरस्कार भी दिया गया। उनके भीतर स्वाभिमान, योग्यता, आचरण, व्यवहार की सभ्यता कूट-कूटकर भरी थी, लेकिन कई बार अति भी कष्टदायी हो जाती है।


webdunia
FILE
पी.वी. नरसिंहराव

कांग्रेस पार्टी ने पी.वी. नरसिंहराव को 1991 के चुनावों में चुनाव लडऩे के लिए टिकट नहीं दिया था। वे राजनीति व दिल्ली को अलविदा कह रहे थे, लेकिन तभी परिस्थितियां बदलीं। राजीव गांधी की हत्या हो गई। परिस्थितियों ने जाते हुए एक पथिक को रोक दिया।

उन्हें रोककर वापस बुला लिया। नेतृत्वविहीन हुई कांग्रेस के लिए कामचलाऊ नेता के रूप में लोगों ने पीवी नरसिंहराव का चयन कर लिया। देश के प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने 21 जून 1991 को शपथ ग्रहण की।

इससे पहले वे देश में गृहमंत्री, रक्षामंत्री, विदेश मंत्री, मानव संसाधन विकास मंत्री भी रह चुके थे। उन पर प्रधानमंत्री के रूप में भ्रष्टाचार के आरोप लगे। उन्हें कांग्रेसियों ने ही शासन करने में विभिन्न व्यवधान डाले, लेकिन असीम धैर्य के साथ उन्होंने अपना कार्यकाल पूरा किया।

यही नहीं, देश की बदहाल अर्थव्यवस्था को भी वे ढर्रे पर लाए। लेकिन सेंट किट्स कांड, हर्षद मेहता कांड, झारखंड मुक्ति मोर्चा कांड में उनकी भूमिका से उनके खिलाफ माहौल देश में बना। 1992 में देश में बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ। इसमें उनकी भूमिका पर भी लोगों ने कई प्रकार की टिप्पणियां कीं।

पीवी नरसिंहराव को अपनी चतुराई के कारण भारतीय राजनीति का चाणक्य कहा जाता था। वे विद्वान थे, बहुभाषाविद थे तथा देश के पहले सुधारवादी प्रधानमंत्री थे। 28 जून 1921 को आंध्रप्रदेश के बांगरा गांव में उनका जन्म हुआ। 21 मई 1996 तक वे देश के प्रधानमंत्री रहे। 23 दिसंबर 2004 को वे एम्स में दिवंगत हुए।

webdunia
FILE
अटल बिहारी वाजपेयी

11वीं लोकसभा का चुनाव अप्रैल-मई 1996 में हुआ। इस चुनाव में भाजपा को 161 स्थान मिले। अति उत्साह में भाजपा ने अटलजी को अपना नेता चुना और अनुत्साही दिख रहे अटलजी से सरकार बनाने का दावा करा दिया।

पहली बार प्रधानमंत्री बनने पर उन्होंने संसद में 29-30 मई को अपना बहुमत सिद्घ करने के लिए बहस कराई। इस दौरान ही वे समझ गए कि संसद का बहुमत उनके खिलाफ है अत: उन्होंने मत विभाजन से पूर्व ही इस्तीफा दे दिया। बीच में एचडी देवेगौड़ा और आईके गुजराल ने प्रधानमंत्री पद संभाला।

बाद में 19 मार्च 1998 को अटलजी फिर से देश के प्रधानमंत्री बने। भाजपा की सदस्य संख्या तब 182 थी। अप्रैल 1999 में जयललिता ने अपना समर्थन वापस ले लिया तो अक्टूबर 1999 में पुन: चुनाव हुए।

तब तक अटलजी कार्यकारी प्रधानमंत्री रहे। इस दौरान कविमना वाजपेयी ने राजस्थान के पोखरण में 11 मई 1998 को 5 परमाणु परीक्षण करके देश को परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्रों की श्रेणी में ला खड़ा किया।

इंदिरा गांधी ने इससे पूर्व 1974 में परमाणु परीक्षण करके देश के सम्मान को बढ़ाया था। अटलजी के समय में कारगिल युद्घ हुआ। बड़ी क्षति उठाकर भी देश ने उस युद्घ में सफलता प्राप्त की। 13 अक्टूबर 1999 को राष्ट्रपति केआर नारायणन ने अटल बिहारी वाजपेयी को पुन: प्रधानमंत्री की शपथ दिलाई।

अटलजी को इस पद पर आसीन करने में आडवाणीजी का विशेष सहयोग रहा। उन्होंने भाजपा को आम आदमी से परिचित कराया था। अटलजी ने विभिन्न विचारों के नेताओं को घटक दल के रूप में साथ लेकर चलते हुए अपना तीसरा कार्यकाल पूरा किया। अटलजी की आर्थिक नीतियां सफल रहीं।

उन्होंने भारत के संबंधों को पाक के साथ सहज बनाने का प्रयास किया, लेकिन फिर भी पाकिस्तान के सैनिक शासक परवेज मुशर्रफ के साथ उनकी आगरा शिखर वार्ता सफल नहीं रही। संसद पर हमला भी उनके काल में ही हुआ था, तहलका कांड भी हुआ। भाजपा अपनी मूल विचारधारा से भटकी और उसे 2004 के चुनावों में सत्ता से हाथ धोना पड़ा।

अटलजी का व्यक्तित्व ऐसा रहा कि जिन्हें सभी सम्मान देते हैं। डॉ. मनमोहनसिंह ने तो उन्हें एक बार भीष्म पितामह की उपाधि तक दी थी। उनकी वक्तृत्व शैली का सभी लोग लोहा मानते रहे हैं और उनकी सहृदयता सभी लोगों को छूती रही है। उनका जन्म 25 दिसंबर 1924 को हुआ।


webdunia
FILE
एचडी देवेगौड़ा

अटलजी की सरकार पहली बार 13 दिन तक चली और गिर गई थी। तब कुछ दिग्गज नेताओं ने एक ऐसे नेता की खोज की, जो उनके अनुसार सरकार चलाए और जिसे जब चाहें चलता कर दिया जाए।

उन्हें हरदनहल्ली डोड्डेगौड़ा देवेगौड़ा इस कसौटी पर खरे नजर आए। वे कर्नाटक के मुख्यमंत्री थे। उन्हें मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र दिलाकर देश का प्रधानमंत्री का पद थाली में सजाकर दिया गया। वे देश के मात्र 10 माह तक प्रधानमंत्री रहे। 21 अप्रैल 1997 को उन्होंने प्रधानमंत्री पद छोडऩा पड़ा।

इसकी वजह भी कांग्रेस ही बनी। उसने देवेगौड़ा से समर्थन वापस ले लिया। देवेगौड़ा लोकसभा में सारे दलों तथा सांसदों से पूछते रहे कि आखिर उनकी गलती क्या है? जो इतनी बड़ी सजा दी जा रही है? लेकिन दूसरी ओर कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी को रातों में सपने आ रहे थे कि अभी नहीं तो कभी नहीं इसलिए वे जल्दी से जल्दी प्रधानमंत्री बन जाना चाहते थे।

अत: एक निरपराध प्रधानमंत्री को बलि का बकरा बना दिया। 19 मार्च 1997 को देवेगौड़ा को पद त्याग करना पड़ा। अंतरिम व्यवस्था तक वे दो दिन और प्रधानमंत्री रहे।


webdunia
FILE
इंद्र कुमार गुजराल

इंद्र कुमार गुजराल 21 अप्रैल 1997 को देश के प्रधानमंत्री बने। 11 महीने पश्चात 19 मार्च 1998 को इन्हें पद छोड़ना पड़ा। राष्ट्रपति ने लोकसभा को भंग किया और नए चुनाव हुए। इसके बाद भाजपा सरकार ने कार्यभार संभाला।

इंद्रकुमार गुजराल का जन्म 4 दिसंबर 1919 को झेलम नगर (पाकिस्तान) में हुआ। उन्होंने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया था। प्रधानमंत्री बनने से पूर्व आपने संचार एवं संसदीय कार्यमंत्री, सूचना एवं प्रसारण मंत्री, सड़क एवं भवन मंत्री, योजना एवं विदेश मंत्री के रूप में कार्य किया था।

वे रूस में भारत के राजदूत भी रहे। विभिन्न गुणों से सम्पन्न होते हुए भी गुजराल देश की जनता के बीच अधिक लोकप्रिय नहीं हो पाए। भाषण से वे लोगों को अपनी ओर खींच नहीं पाते थे।

ऐसी स्थिति में 24 पार्टियों की बैशाखी पर चल रही सरकार का नेतृत्व वे कब तक करते? आखिर सरकार गिर गई फिर भी उनकी योग्यता और ईमानदारी पर कोई संदेह नहीं किया जा सकता। वे विनम्र और शालीन व्यक्ति रहे हैं। अहंकारशून्य व्यक्तित्व के धनी गुजराल का लोग व्यक्तिगत रूप से अतिसम्मान करते थे। उनका निधन 30 नवंबर 2012 को हुआ था।

webdunia
FILE
डॉ. मनमोहनसिंह

डॉ. मनमोहनसिंह ने 22 मई 2004 को भारत के 13वें प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली। यह पद उस समय उन्हें भी सौभाग्य से ही मिला था। प्रधानमंत्री पद की जिम्मेदारियों के निर्वाह के बारे में उन्होंने तो शायद सपने में भी नहीं सोचा होगा। सोनिया गांधी द्वारा प्रधानमंत्री बनने से इंकार करने पर उन्हें प्रधानमंत्री पद की जिम्मेदारी को वहन करना पड़ा।

व्यक्तिगत रूप से बेहद ईमानदार व्यक्ति हैं डॉ. मनमोहनसिंह। लेकिन पाठक क्षमा करें अब उनकी ईमानदारी पर लिखना स्वयं को बेईमान साबित करना हो सकता है। यह आलेख उनकी आलोचना के लिए नहीं है इसलिए अन्यथा लिखने को हम अनुचित मानते हैं। डॉ. सिंह की आर्थिक नीतियां देश के लिए लाभदायक रहीं।

देश के वित्तमंत्री रहते हुए उन्होंने देश के लिए जो आर्थिक नीतियां दीं, उनके अच्छे परिणाम आए। भारत को एक सुधारवादी वित्तमंत्री मिला अत: जब वे देश के प्रधानमंत्री बने तो लोगों ने सोचा कि एक अच्छा प्रधानमंत्री देश को मिला है।

स्वभाव से शांत और विनम्र डॉ. मनमोहनसिंह के साथ समस्या यह है कि उनका रिमोट सोनिया गांधी के पास रहता है, चाबी राहुल गांधी के पास रहती है, तो पेट्रोल प्रणब मुखर्जी से मिलता है। फिर भी वे देश को चला रहे हैं और देश चल रहा है। उनकी सबसे बड़ी जीत और सबसे बड़ी कामयाबी यही है। वे देश का दोबारा नेतृत्व कर रहे हैं।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi