फागुणऽ फरक्यो नऽ
चईतऽ लगी गयो
रनुबाई जोवऽ छे वाटऽ
असी रूढ़ी ग्यारसऽ रे
वीरोऽ कदऽ आवेसऽ
गणगौर पर्व में प्रमुख रूप से गौर अर्थात गौरी, धणियर अर्थात ईश्वर शिवजी के नाम लेकर गीत गाए जाते हैं। गौर का एक नाम रनादेवी भी है। गीतों में रनुबाई के नाम से गीत गाए जाते हैं। इस अवसर पर नौ दिनों तक लड़कियां कोमल आम्र पत्तों से अपने कलश सजाती हैं।
जलभरे कलश में अर्कपुष्प, कनेर पुष्प, दूर्वा, आम्रपत्ती के साथ डेड (टुंडी) की कैरी रखकर कलश को मध्य में रखकर सामूहिक रूप से इन कलशों की परिक्रमा करते-करते नृत्य गीत गाती हैं।
फागुन मास पंख फड़फड़ा कर उड़ गया। चैत मास लग गया है। रनुबाई प्रतीक्षा करती हैं कि ग्यारस का शुभ दिन कब आएगा, जब मेरा भाई मुझे पीहर लेने के लिए आएगा।
चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की दशमीं से लेकर चैत्र शुक्ल पक्ष की तृतीया तक चलने वाला यह 9 दिवसीय लोकपर्व गणगौर के नाम से जाना जाता है। यह एक लोक आनुष्ठानिक पर्व है। यह मान्यता है कि रनुबाई अर्थात गौरी अपने पीहर आई हैं। बेटी का पीहर आना, राग-अनुराग, आनंद-आसक्ति का भाव मातृपक्ष की ममतामय अनुभूति, सब कुछ गीतों में गुंथा मिलता है।
गौर के पाट की जिस स्थान पर स्थापना की जाती है, उस स्थान को स्थापना पूर्व ही लीप-पोतकर और गंगाजल छिड़क कर पवित्र किया जाता है। यहां कुरकई (बांस की छोटी टोकनी) में मिट्टी के साथ गेहूं बोकर, जवारे के रूप में देवी की प्राण-प्रतिष्ठा की जाती है। माता की कुरकई की संख्या कम से कम ग्यारह तो होती है, और अधिक से अधिक हजारों भी हो सकती है।
गणगौर पर्व बड़े विधि-विधान से संपन्न होता है। गणगौर पर्व पर हर विधान के लोकगीत हैं। शास्त्रीय अनुष्ठान में संस्कृत मंत्रों का प्रयोग होता है और इस लोकपर्व में लोकगीत ही मंत्रों का कार्य करते हैं। गेहूं बोने के बाद यह स्थान माता की बाड़ी और माता की ठाण के नाम से जाना जाता है।
नौ दिनों तक यह स्थान श्रद्धा एवं आस्था का केंद्र बना रहता है। मूलतः यह लोक-पर्व कृषक समाज का ही पर्व है। घर में आए अन्न की पूजन-अर्चन स्वरूप एवं श्रम-परिश्रम के द्वारा पकी फसल घर में भरकर उस अन्न के प्रति सामूहिक रूप से उपकृत भाव का पर्व गणगौर-पर्व है।
कुरकई में गेहूं बोए जाने के पश्चात नौ दिनों तक उसका सुबह और शाम सद्यजात शिशु की भांति पूरी सावधानी से सिंचन किया जाता है। अंकुरित गेहूं को माता के जाग, जवारे या जवारा कहते हैं। यही देवी का मूर्त रूप है।
इस पर्व में प्रमुख रूप से गौर अर्थात गौरी, धणियर अर्थात ईश्वर शिवजी के नाम लेकर गीत गाए जाते हैं। गौर का एक नाम रनादेवी भी है। गीतों में रनुबाई के नाम से गीत गाए जाते है। रनुबाई धणियर राजा, गौरबाई, इसवर राजा, सईतबाई ब्रह्माराजा, लक्ष्मीबाई, विष्णु राजा, रोपणबाई चंद्रमा राजा के नाम लेकर गीतों की कड़ियां आगे बढ़ती हैं। नौ दिनों तक लड़कियां आम्र वन जाकर कोमल आम्र पत्तों से अपने कलश सजाती हैं।
जल भरे कलश में अर्कपुष्प, कनेर पुष्प, दूर्वा, आम्रपत्ती के साथ डेडऽ (टुंडी) की कैरी रखकर कलश को मध्य में रखकर सामूहिक रूप से इन कलशों की परिक्रमा करते-करते नृत्य गीत गाती हैं। इसे पाती खेलना कहते हैं। इन गीतों में कन्याओं की यह अरज होती है कि गौर देवी रनुबाई हमारे साथ बाग-बगीचों में रमने आए। साथ ही देवी के रूप स्वरूप और सौंदर्य के गीत भी गाती हैं। कन्याओं द्वारा लाए गए कलश से सौभाग्यवती महिलाएं देवी को अर्घ्य देती हैं। वे देवी से आशीष मांगती हैं तथा एक सुखी और समृद्ध गृहस्थ जीवन की कामना करती हैं।
आठवें दिन फिर बहुत सी परंपराओं और पूजा का विधान होता है। अब तक माता की बाड़ी के जवारे काफी बड़े हो चुके होते हैं। इस दिन देवी स्वरूप जवारों को नाड़ों से बांधा जाता है, इसे माथा गूंथणा कहते हैं। जवारों की पूजा कर उनमें से पांच टोकनियों को पाट पर रखा जाता है। इस रस्म को देवी का पाट बठणू कहते हैं। अब आठवें दिन भी लोग अपनी-अपनी माताओं के लिए अपने-अपने रथ लेकर आते हैं और उनमें बैठाकर अपनी-अपनी माताओं को ले जाते हैं। गांव के जिन लोगों की माता बाड़ी में होती हैं, वे लोग रथ लेकर बाड़ी में आते हैं।
रथ लकड़ी के मूर्तरूप होते हैं। पाट पर बांस की चीपों से मानवाकृति बनाते हैं। ऊपर मिट्टी से बना मुख लगाते हैं। कपड़े से बने हाथ बनाते हैं। इनमें अंदर-नीचे जवारे रखने का स्थान रहता है। हर रथ में जवारे वाली पांच कुरकई रखते हैं। एक रथ नारी श्रृंगार कर बनाते हैं। दूसरा पुरुष रूप श्रृंगार कर बनाते हैं। स्त्री रूप रनुबाई और पुरुष रूप धणियर राजा होते हैं। रनादेवी अब बाड़ी से उठकर रथ में प्रतिष्ठित हो गर्ईं जिनकी देवी (माता) यहां होती है; वे जोड़े सहित रथ सिर पर रखकर अपने-अपने घर गीत गाते-गाते ले जाते हैं।
इन गीतों का भाव कुछ इस तरह होता हैः- पहले बधाई मेरे घर आई है। बधाई स्वरूप रनुबाई और धणियर राजा आए हैं। हे रनुबाई! तुम बड़े बाप की बेटी हो, सुंदर घेरदार कीमती चूंदड़ ओढ़ो। इस कीमती साड़ी से तुम्हारी शोभा सुंदरता का मैं कैसे बखान करूं। जिनके घर रनुबाई आ गई हैं, उन घरों में आनंद का सरोवर लहरा उठता है। रनुबाई-धणियर राजा को बैठाकर उनकी परिक्रमा कर गीत गाते हुए और नृत्य करते हुए आनंद मनाते हैं।
इन गीतों को झालरिया गीत कहते हैं। झालरिया गीत गणगौर के विशेष गीत हैं। कुछ गीत हैं जिनमें कन्या अपने पिता से अनुरोध करती है कि पिता हमें अभी ससुराल मत भेजो, अभी तो हमारे बाग-बगीचों में खेलने के दिन हैं। दादाजी हमारे बाप के कुआं-बावड़ी हैं, हमारे बाप के आम-इमली के बगीचे हैं। हम अपनी सखियों के साथ बाग-बगीचों में पाती खेलेंगे। हमें अभी ससुराल मत भेजो।
गीत आगे बढ़ता है, इस पर पिताजी कहते हैं- बेटी तेरा ससुर वापस चला गया। जेठ-देवर सबको हमने वापस फेर दिया; किंतु ये धणियर हाडा वंश का कुंवर है, यह तुम्हें साथ लेकर ही जाएगा। खाली हाथ नहीं जाएगा।
किन्ही गीतों में गृस्वामिनी कहती है- हे पति हमारी बाड़ी में चंदन का वृक्ष है, इसे कटवा कर चंदन के बाजुट बनवा दीजिए। इस बाजुट पर हम रनुबाई व धणियर राजा को साथ-साथ बैठाएंगे। उनका मान-सम्मान करेंगे। आवभगत, आदर करेंगे। वे हमारे घर मेहमान बनकर आए हैं। तालियों, चुटकियों और ठुमकों के साथ झालरिया गीत घंटों चलते हैं। रात्रि में महिलाएं उन सब घरों में जाती हैं, जिनके घर रनुबाई धणियर राजा हैं। वहां जाकर आरती करती हैं एवं देवी को मेहंदी लगाती हैं।
अमावस की काली अंधेरी रात में आरती के दीपक ऐसे टिमटिमाते हैं मानों आसमान के तारे धरती पर उतरकर आ गए हों। पूरा गांव गणगौर गीतों से सराबोर हो उठता है। गीतों की स्वर लहरियां इस गली से उस गली तक तरंगित हो उठती हैं। चमकते तारों को देखकर ही गीतों के बोल फूट पड़ते हैं।-
शुक्र को तारो रेऽ ईसवरऽ ऊंगी रह्मो
तेकी मखऽ टीकी घड़ाओ,
चांदऽ अरु सूरजऽ रेऽईसवरऽ
चमकी रह्मा, तेकीऽ मखऽ टूकी लगवाऽ।
गीत का अर्थ है- हे ईश्वर! आसमान में यह अति तेजस्वी शुक्र का तारा है, उसे रनुबाई अपने पति धणियर राजा से कहती हैं- मुझे टीकी गढ़वा दो। चांद और सूरज की मेरी अंगिया में टूकी लगवा दो। आठवें दिन पूरी रात जागरण होता है। यह रात महिलाओं की आनंद-मंगल की रात होती है। इस गीत में पति के रूठने व उसे मनाने तक के गीत गाए जाते हैं।
गाते-बजाते और नाचते नौवां दिन आ गया। यह देवी की विदाई का दिन है। सभी महिलाएं मिलकर आम्रवन में पाती खेलने जाती हैं। देवी के साथ रमण के गीत गाती हैं। सभी अपनों घरों में देवी के नाम से सौभाग्यवती स्त्रियों को भोजन करवाते हैं।