Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
webdunia
Advertiesment

तॉल्सतॉय को गाँधीजी का एक पत्र

हमें फॉलो करें तॉल्सतॉय को गाँधीजी का एक पत्र
जोहान्सबर्ग
ट्रांसवाल, दक्षिण अफ्रीका
अप्रैल 4, 1910

webdunia
ND
प्रिय महोदय,

आपको स्मरण होगा कि जब मैं कुछ समय के लिए लंदन में था, तब मैंने आपसे पत्र व्यवहार किया था। आपके एक विनम्र अनुयायी की हैसियत से मैं इसके साथ अपनी लिखी हुई एक पुस्तिका भेज रहा हूँ। यह मेरी एक गुजराती रचना का मेरा ही किया हुआ अनुवाद है। एक अजीब-सी बात यह हुई है कि मूल पुस्तिका भारत सरकार द्वारा जब्त कर ली गई है। इसलिए मैंने अनुवाद के प्रकाशन में जल्दी की है। मेरी इच्छा तो यही है कि आपको परेशान न करूँ।

परंतु यदि आपका स्वास्थ्य गवारा करे और आप इस पुस्तिका को देख जाने का समय निकाल सकें तो कहने की आवश्यकता नहीं कि मैं इस रचना के बारे में आपकी समालोचना की बड़ी कद्र करूँगा। एक हिंदू के नाम लिखे हुए आपके पत्र की कुछ प्रतियाँ भी मैं आपके पास भेज रहा हूँ। आपने मुझे इसको प्रकाशित करने का अधिकार दे दिया था। भारतीय भाषाओं में से एक में अनुवाद भी इसका हो चुका है।

- मो.क. गाँधी

काउंट लिओ तॉल्सतॉय
यास्नाया पोल्याना, रू

गाँधीजी के प्रश्न श्रीमद् राजचंद्र के उत्तर
प्रिय महोदय,
आपको स्मरण होगा कि जब मैं कुछ समय के लिए लंदन में था, तब मैंने आपसे पत्र व्यवहार किया था। आपके एक विनम्र अनुयायी की हैसियत से मैं इसके साथ अपनी लिखी हुई एक पुस्तिका भेज रहा हूँ। यह मेरी एक गुजराती रचना का मेरा ही किया हुआ अनुवाद है।
webdunia


'मेरे ऊपर तीन पुरुषों की गहरी छाप पड़ी है- टॉल्स्टॉय, रस्किन और राजचंद्रभाई।

महात्मा गाँधी के जीवन पर श्रीमद् राजचंद्र का प्रबल प्रभाव पड़ा। गाँधीजी इस संबंध में लिखते हैं, 'मैंने अनेकों के जीवन में से बहुत कुछ लिया है परंतु सबसे अधिक यदि किसी के जीवन में से मैंने ग्रहण किया हो तो वह कविश्री के जीवन में से है।' पुनः वे अन्य स्थल पर लिखतेहैं, 'मेरे ऊपर तीन पुरुषों की गहरी छाप पड़ी है- टॉल्स्टॉय, रस्किन और राजचंद्रभाई।

टॉल्स्टॉय की उनकी पुस्तक द्वारा और उनके साथ के थोड़े से पत्र व्यवहार से; रस्किन की उनकी एक ही पुस्तक 'अनटु धिस लास्ट' से, जिसका गुजराती नाम मैंने 'सर्वोदय' रखा है और राजचंद्रभाई की उनके साथ के परिचय से।' इतना ही नहीं परंतु गाँधीजी तो यहाँ तक कहते हैं कि 'मेरे जीवन में श्रीमद् राजचंद्र की छाप मुख्य रूप से है। महात्मा टॉल्स्टॉय तथा रस्किन से भी श्रीमद् ने मेरे जीवन पर गहरा असर किया है।'

गाँधीजी ने एक बार डरबन (दक्षिण अफ्रीका) से अध्यात्म से संबंधित कुछ प्रश्न श्रीमद् राजचंद्र से पूछे थे, जिनके सविस्तार उत्तर राजचंद्रजी ने दिए थे। प्रस्तुत हैं उन्हीं में से कुछ प्रश्नोत्तर :

* आत्मा क्या है? वह कुछ करता है और उसे कर्म दुःख देते हैं या नहीं?
- जैसे घटपटादि जड़ वस्तुएँ हैं, वैसे आत्मा ज्ञानस्वरूप वस्तु है। घटपटादि अनित्य हैं, वे एक स्वरूप से स्थिति करके त्रिकाल नहीं रह सकते। आत्मा एक स्वरूप से स्थिति करके त्रिकाल रह सकता है, ऐसा नित्य पदार्थ है। जिस पदार्थ की उत्पत्ति किसी भी संयोग से नहीं हो सकती, वह पदार्थ नित्य होता है। आत्मा किसी भी संयोग से बन सके, ऐसा प्रतीत नहीं होता। क्योंकि जड़ के चाहे हजारों संयोग करें तो भी उससे चेतन की उत्पत्ति हो सकने योग्य नहीं है।

जो धर्म जिस पदार्थ में नहीं होता, वैसे बहुत से पदार्थों को इकट्ठा करने से भी, उसमें जोधर्म नहीं है, वह उत्पन्न नहीं हो सकता, ऐसा अनुभव सबको हो सकता है। जो घटपटादि पदार्थ हैं, उनमें ज्ञानस्वरूपता देखने में नहीं आती। वैसे पदार्थों का परिणामांतर करके संयोग किया हो अथवा हुआ हो तो भी वह उसी जाति का होता है अर्थात जड़स्वरूप होता है परंतु ज्ञानस्वरूप नहीं होता। तो फिर वैसे पदार्थ का संयोग होने पर आत्मा कि जिसे ज्ञानीपुरुष मुख्य ज्ञानस्वरूप लक्षण वाला कहते हैं, वह वैसे (घटपटादि, पृथ्वी, जल, वायु, आकाश) पदार्थों से किसी तरह उत्पन्न हो सकने योग्य नहीं है। ज्ञानस्वरूपता आत्मा का मुख्य लक्षण है और उसके अभाववाला मुख्य लक्षण जड़ का है। उन दोनों के ये अनादि सहज स्वभाव हैं। यह तथा वैसे दूसरे हजारों प्रमाण आत्मा की नित्यता का प्रतिपादन कर सकते हैं।

ज्ञानदशा में, अपने स्वरूप के यथार्थबोध से उत्पन्न हुई दशा में वह आत्मा निजभाव का अर्थात ज्ञान, दर्शन (यथास्थित निर्धार) और सहज समाधि परिणाम का कर्ता है। अज्ञानदशा में क्रोध, मान, माया, लोभ इत्यादि प्रकृति का कर्ता है और उस भाव के फल का भोक्ता होने से प्रसंगवशात घटपटादि पदार्थ का निमित्तरूप से कर्ता है अर्थात घटपटादि पदार्थ के मूल द्रव्य का कर्ता नहीं है परंतु उसे किसी आकार में लाने रूप क्रिया का कर्ता है। यह जो पीछे उसकी दशा कही है उसे जैन 'कर्म' कहता है, वेदांत 'भ्रांति' कहता है तथा दूसरे भी तदनुसारी ऐसे शब्दकहते हैं। वास्तविक विचार करने से आत्मा घटपटादि का तथा क्रोधादि का कर्ता नहीं हो सकता, मात्र निजस्वरूप ज्ञान परिणाम का ही कर्ता है, ऐसा स्पष्ट समझ में आता है।

अज्ञानभाव से किए हुए कर्म प्रारंभकाल में बीजरूप होकर समय का योग पाकर फलरूप वृक्ष परिणाम से परिणमते हैं अर्थात वे कर्म आत्मा को भोगने पड़ते हैं। जैसे अग्नि के स्पर्श से उष्णता का संबंध होता है और उसका सहज वेदनारूप परिणाम होता है, वैसे ही आत्मा को क्रोधादि भाव के कर्तारूप से जन्म, जरा, मरणादि वेदनारूप परिणाम होता है।

* ईश्वर क्या है? क्या वह सचमुच जगतकर्ता है?
- हम आप कर्मबंध में फँसे हुए जीव हैं। उस जीव का सहजस्वरूप अर्थात कर्मरहित रूप से मात्र एक आत्मत्वरूप से जो स्वरूप है, वह ईश्वरत्व है। जिसमें ज्ञानादि ऐश्वर्य है, उसे ईश्वर कहना योग्य है और वह ईश्वरता आत्मा का सहजस्वरूप है। जो स्वरूप कर्मप्रसंग से प्रतीत नहीं होता परंतुउस प्रसंग को अन्य स्वरूप जानकर, जब आत्मा की ओर दृष्टि होती है, तभी अनुक्रम से सर्वज्ञतादि ऐश्वर्य उसी आत्मा में प्रतीत होता है और उससे विशेष ऐश्वर्य वाला कोई पदार्थ समस्त पदार्थों को देखते हुए भी अनुभव में नहीं आ सकता। इसलिए जो ईश्वर है, वह आत्मा का दूसरा पर्यायवाची नाम है।

वह जगतकर्ता नहीं है अर्थात परमाणु, आकाश आदि पदार्थ नित्य होने योग्य हैं, वे किसी भी वस्तु में से बनने योग्य नहीं हैं। कदाचित्‌ ऐसा मानें कि वे ईश्वर में से बने हैं तो यह बात भी योग्य नहीं लगती क्योंकि ईश्वर को यदि चेतनरूप से मानें तो उससे परमाणु, आकाश इत्यादि कैसे उत्पन्न हो सकते हैं? क्योंकि चेतन से जड़ की उत्पत्ति होना ही संभव नहीं है।

यदि ईश्वर को जड़रूप स्वीकार किया जाए तो वह सहज ही अनैश्वर्यवान ठहरता है तथा उससे जीवरूप चेतन पदार्थ की उत्पत्ति भी नहीं हो सकती। जड़ चेतन उभयरूप ईश्वर मानें तो फिर जड़ चेतन रूपजगत है, उसका ईश्वर ऐसा दूसरा नाम कहकर संतोष मानने जैसा होता है और जगत का नाम ईश्वर रखकर संतोष मानना, इसकी अपेक्षा जगत को जगत कहना, यह विशेष योग्य है। कदाचित परमाणु, आकाश आदि को नित्य मानें और ईश्वर को कर्मादि का फल देने वाला मानें तो भी यह बात सिद्ध प्रतीत नहीं होती।

* मोक्ष क्या है?
- जिस क्रोधादि अज्ञानभाव में देहादि में आत्मा को प्रतिबंध है उससे सर्वथा निवृत्ति होना, मुक्ति होना, उसे ज्ञानियों ने मोक्षपद कहा है। उसका सहज विचार करने पर वह प्रमाणभूत लगता है।

* मोक्ष मिलेगा या नहीं, यह निश्चित रूप से इस देह में ही जाना जा सकता है?
- एक रस्सी के बहुत से बंधों से हाथ बाँध दिया गया हो, उनमें से अनुक्रम से ज्यों-ज्यों बंध छोड़ने में आते हैं, त्यों-त्यों उस बंध के संबंध की निवृत्ति अनुभव में आती है और वह रस्सी बल छोड़कर छूट जाने के परिणाम में रहती है, ऐसा भी मालूम होता है, अनुभव में आता है। उसी प्रकार अज्ञानभाव के अनेक परिणाम रूप बंध का प्रसंग आत्मा को है।

वह ज्यों-ज्यों छूटता है, त्यों-त्यों मोक्ष का अनुभव होता है और जब उसकी अतीव अल्पता हो जाती है, तब सहज ही आत्मा में निजभाव प्रकाशित होकर अज्ञानभावरूप बंध से छूट सकने का प्रसंग है, ऐसास्पष्ट अनुभव होता है तथा समस्त अज्ञानादिभाव से निवृत्ति होकर संपूर्ण आत्मभाव इसी देह में स्थितिमान होते हुए भी आत्मा को प्रगट होता है और सर्व संबंध से सर्वथा अपनी भिन्नता अनुभव में आती है अर्थात मोक्षपद इस देह में भी अनुभव में आने योग्य है।

* दुनिया की अंतिम स्थिति क्या होगी?
- सब जीवों की स्थिति सर्वथा मोक्षरूप से हो जाए अथवा इस दुनिया का सर्वथा नाश हो जाए, वैसा होना मुझे प्रमाणभूत नहीं लगता। ऐसे के ऐसे प्रवाह में उसकी स्थिति संभव है। कोई भाव रूपांतर पाकर क्षीण हो तो कोई वर्धमान हो, परंतु वह एक क्षेत्र में बढ़े तो दूसरे क्षेत्रमें घटे इत्यादि इस सृष्टि की स्थिति है। इससे और बहुत ही गहरे विचार में जाने के अनंतर ऐसा संभवित लगता है कि इस सृष्टि का सर्वथा नाश हो या प्रलय हो, यह न होने योग्य है। सृष्टि अर्थात एक यही पृथ्वी, ऐसा अर्थ नहीं है।

* क्या दुनिया का प्रलय तय है?
- प्रलय अर्थात सर्वथा नाश, यदि ऐसा अर्थ किया जाए तो यह बात योग्य नहीं है, क्योंकि पदार्थ का सर्वथा नाश होना संभव ही नहीं है। प्रलय अर्थात सर्व पदार्थों का ईश्वरादि में लीन होना तो किसी के अभिप्राय में इस बात का स्वीकार है, परंतु मुझे यह संभवित नहीं लगता क्योंकि सर्व पदार्थ, सर्व जीव ऐसे समपरिणाम को किस तरह पाए कि ऐसा योग हो और यदि वैसे समपरिणाम का प्रसंग आए तो फिर पुनः विषमता होना संभव नहीं है।

यदि अव्यक्त रूप से जीव में विषमता हो और व्यक्त रूप से समता हो, इस तरह प्रलय को स्वीकार करें तो भी देहादि संबंध केबिना विषमता किस आश्रय से रहे? देहादि संबंध मानें तो सबकी एकेंद्रियता मानने का प्रसंग आए और वैसा मानने से तो बिना कारण दूसरी गतियों का अस्वीकार समझा जाए अर्थात ऊँची गति के जीव को यदि वैसे परिणाम का प्रसंग मिटने आया हो, वह प्राप्त होने का प्रसंग आए इत्यादि बहुत से विचार उठते हैं। सर्व जीव आश्रयी प्रलय का संभव नहीं है।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi