काम को अपनी प्रथम पूजा मानते थे शास्त्रीजी
एक सफल और सशक्त लोकतंत्र । तभी उत्तरोतर विकास, वृद्धि करता है, जब उस लोकतंत्र का प्रत्येक नागरिक कर्तव्य परायण और अपने मूल अधिकारों एवं दायित्वों के प्रति दृढ़ संकल्पित हो। नागरिकों को इस योग्य बनाने का काम देश के कर्णधार और राष्ट्र के शीर्ष पदों पर बैठे लोग ही कर सकते हैं, बशर्ते देश के प्रमुख पदों पर बैठे ये व्यक्ति ईमानदार, सजग और कर्तव्यनिष्ठ हों। उनकी आत्मा की आवाज राष्ट्र की आवाज बनकर देश के अंतिम व्यक्ति तक पहुँचना चाहिए। उनका दिशा-निर्देशन आम लोगों में यह विश्वास पैदा करने वाला होना चाहिए कि यह राष्ट्र और आम जनता के हित में है। नागरिक उस निर्देश का परिपालन ही न करें, अपितु उसे राष्ट्र हित में आगे भी बढ़ाएँ। हमारे देश के चिंतन की मान्यताओं तथा आजादी के बाद हमने जिस भावना से 'लोकतांत्रिक प्रणाली' अपनाई है, उसका मूर्तरूप लालबहादुर शास्त्री के कार्यों, विचारों, निर्णयों और आदर्शों में स्पष्ट रूप से दिखता है। शास्त्रीजी की आदर्श अभिलाषा कि 'राष्ट्र का अंतिम व्यक्ति सुखी, शिक्षित और समृद्ध हो' ने उन्हें राजा के रूप में भी रंक बनाकर रखा। शास्त्रीजी के चिंतन की विशिष्टता यह थी कि उनमें नैतिक मूल्योंके प्रति दृढ़ आस्था और उन पर आचरण करने का दृढ़ संकल्प मौजूद था। इसीलिए राष्ट्र के प्रत्येक नागरिक ने शास्त्रीजी के आह्वान का परिपालन किया। शास्त्रीजी के व्यक्तित्व में भारतीय संस्कृति और राष्ट्र प्रेम की भावनाएँ बचपन से ही विकसित हो रही थीं। उनका बचपन आम लोगों के बीच कठिन संघर्ष करते हुए बीता था। जीवन की समस्याओं को उन्होंने न केवल नजदीक से देखा था बल्कि उन्हें प्रत्यक्ष अनुभव किया था और उनका सामना भी किया था।
शास्त्रीजी की आदर्श अभिलाषा कि 'राष्ट्र का अंतिम व्यक्ति सुखी, शिक्षित और समृद्ध हो' ने उन्हें राजा के रूप में भी रंक बनाकर रखा। शास्त्रीजी के चिंतन की विशिष्टता यह थी कि उनमें नैतिक मूल्यों के प्रति दृढ़ आस्था और उनपर आचरण करने का दृढ़ संकल्प मौजूद था
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सत्ता का शिखर भी शास्त्रीजी को गरीब लोगों से दूर नहीं कर पाया। राष्ट्र के अंतिम व्यक्ति की भी उन्हें सदा चिंता रही। स्नातकोत्तर चिकित्सा सम्मेलन का नई दिल्ली में 23 नवंबर 1964 को उद्घाटन करते समय शास्त्रीजी ने कहा था, 'चूँकि मैंने लगभग पचास वर्षों तक एक छोटे से कार्यकर्ता के रूप में गाँवों में काम किया है। इसलिए मेरा ध्यान इस क्षेत्र के लोगों की समस्याओं की ओर स्वाभविक रूप से चला जाता है।'
शास्त्रीजी किसी भी बात के विस्तार और गहराई में जाने वाले व्यक्ति थे। इसलिए पंडित नेहरू उन्हें कभी-कभी 'मुंशीजी' भी कहा करते थे। कार्य के प्रति उनकी गंभीरता और समर्पण अनुकरणीय थे। वे ऐसे भद्र पुरुष थे जो दूसरों को प्रोत्साहन देकर उन्हें ऊपर उठाने में विश्वासरखते थे। उनका विशाल व्यक्तित्व उनकी स्वाभाविक विनम्रता में प्रतिबिंबित होता था। शास्त्रीजी ऐसे कर्तव्यनिष्ठ राजनीतिज्ञ थे जिनकी श्रम और सेवा में गहरी आस्था थी। वे काम को अपनी प्रथम पूजा मानते थे।
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में 19 दिसंबर 1964 को 'डॉक्टर ऑफ लॉ'की मानद उपाधि गृहण करते हुए उन्होंने कहा था, 'कार्य की अपनी गरिमा होती है और अपने कार्य को अपनी पूरी क्षमता के अनुसार करने में संतोष मिलता है। काम चाहे जो भी हो, उसमें अपने आपको पूरी गंभीरता और समर्पण के साथ लगा देना चाहिए।' शास्त्रीजी ने राजनीति को जनसेवा का सबसे सरल एवं सशक्त माध्यम माना था और वे इसमें पूर्णतः सफल रहे।