यह कोई जरूरी तो नहीं है कि महात्मा गाँधी को हम केवल गाँधी जयंती या 2 अक्टूबर को ही याद करें। 2 अक्टूबर को तो लालबहादुर शास्त्री को भी याद किया जा सकता है। उनके अलावा अन्य हजारों लोगों का जन्म इस दिन हुआ था।
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अब तो मुन्नाभाई लगे हैं गाँधीजी को बुलाने, वह भी रामधुन गाकर। फिल्में देखने से कतराने वाले भी यदि इस फिल्म को देखने की हिम्मत करें तो शायद गाँधीजी के विचारों और कार्यक्रमों पर सोचने की नए सिरे से शुरुआत हो जाए। गाँधीजी के व्यक्तित्व व व्यक्तिगत जीवन की घटनाएँ तो बहुत ही साधारण थीं, मगर उनका आग्रह असाधारण था।
केवल धोती-दुपट्टा पहनकर या बकरी का दूध लेकर वे ब्रिटेन के प्रधानमंत्री या भारत के वायसराय या मेवाड़ के महाराणा से मिलने में झेंपे नहीं, तकली या चरखे पर सूत कातने में हिचके नहीं और झाडू लेकर सड़क साफ करने या पाखाना उठाने में शर्माए नहीं। फोटो भी नहीं खिंचवाई और छपाई।
अंतिम समय तक शांति और अहिंसा का आग्रह करते रहे। अपनी हत्या के प्रयत्नों की जानकारी और शारीरिक दुर्बलता के बावजूद प्रार्थना सभा में उपस्थित रहने का साहस जुटाया। लोगों ने उनके साथ ज्यादती की। एक गाल पर चाँटा खाकर दूसरा गाल सामने करने वाले गाँधीजी को मजबूरी की मसीहा बताया गया।
अब क्या गाँधीजी वापस आएँगे? नहीं। अब तो यह यकीन करना भी कठिन है कि गाँधीजी इस धरती पर पैदा हुए थे। उनकी हर बात से हम अपने को दूर कर रहे हैं। विश्व-शांति की बात तो कर रहे हैं, मगर सेना, सुरक्षा, परमाणु शक्ति और अंतरिक्ष अनुसंधान पर अरबों रुपया व्यय कर रहे हैं। सत्य की खोज में लगे हैं और अपने भक्तों व परिवार के सदस्यों से ही झूठ बोल रहे हैं। विज्ञापनों में बड़े अक्षरों व तस्वीरों में जो लिखते हैं, उसका अपवाद पढ़े न जा सकने वाले छोटे अक्षरों में छापते हैं।
राजस्व और अनुदान की चोरी को चोरी नहीं मानते। खादीस्वावलंबन के बजाए निर्यात का आधार हो गई है। घरों में वाहन रखने की जगह नहीं है और शहरों में बस स्टैंड नहीं है, मगर अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे तैयार हो रहे हैं। बकरी को पालना मुश्किल है, यंत्रीकृत डेरियों का पैकेज्ड दूध ही पीना होगा। नई सभ्यता, संस्कृति,शिक्षा प्रणाली ओर वैश्वीकरण, उदारीकरण, निजीकरण, वैज्ञानिक प्रगति तथा राजनीतिक रणनीतियों के चक्रव्यूह में गाँधीजी के उभरकर खड़े रहने की कोई संभावना नहीं है।