शिशु हृदय और वज्र संकल्प वाला विराट व्यक्तित्व

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- शक्तिसिंह रिदि म

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धरती के लाल लालबहादुर शास्त्री ने बाइबिल की उक्ति -'विनम्र ही पृथ्वी के वारिस होंगे' को अपने राजनीतिक जीवन में साकार कर दिखाया। उनके विनम्र व्यक्तित्व में मानवीय संवेदनाओं के संदर्भ में आँसू बहाकर रो पड़ने वाला शिशु हृदय और जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान कीदगाबाजी की सजा देने के लिए भारतीय सेना को राष्ट्रीय सीमा पार करके पश्चिमी पाकिस्तान में घुस जाने का आदेश देने वाला वज्र संकल्प एक साथ मौजूद था।

आज हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार का बोलबाला है। ऐसे समय में बहुत से लोगों की यह बात चौंकाने वाली लग सकती है कि देश के विभिन्न महत्वपूर्ण पदों के बाद प्रधानमंत्री पद पर पहुँचे इस महान व्यक्ति का जब निधन हुआ, तब उनके पास अपना खुद का मकान तक नहीं था। जब शास्त्रीजी प्रधानमंत्री थे, तब उनकी माता किराए के मकान में रहती थीं और रिक्शे में चला करती थीं। ऐसी थीं उनमें नैतिक मूल्यों के प्रति दृढ़ आस्था और उस पर आचरण करने का दृढ़ संकल्प।

शास्त्रीजी का देश के युवा वर्ग के संदर्भ में 'वैचारिक मंथन' स्वामी विवेकानंद से समरूपता रखता था। जब देश पर आक्रमण हुआ था, तब शास्त्रीजी ने दृढ़ता और कुशल नेतृत्व का परिचय देते हुए, राष्ट्र के नाम (13 अगस्त 1965) को अपने संदेश में युवा वर्ग में विश्वास व्यक्त करते हुए कहा था कि 'मैं जानता हूँ कि हमारे देश का हर युवा व्यक्ति आज अपना सब कुछ न्योछावर करने को तैयार है ताकि भारत अपना सिर और अपना झंडा ऊँचा करके रह सके। जब आजादी को चुनौती दी जा रही हो तथा क्षेत्रीय अखंडता खतरे में हो, तब केवल एक ही कर्तव्यहै कि हम उस चुनौती का अपनी पूरी ताकत के साथ मुकाबला करें।'
प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उनके त्यागपत्र की सूचना लोकसभा में देते हुए उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। 'उनमें ऊँचे दर्जे की ईमानदारी, आदर्श के प्रति निष्ठा, अंतरात्मा की आवाज सुनने और कड़ी मेहनत करने की आदत है।'


शास्त्रीजी देश की सेवा व सुरक्षा के संदर्भ में प्रत्येक देशवासी से अपेक्षा करते थे। लालकिले की प्राचीर से 15 अगस्त 1965 को उन्होंने पुनः दोहराया, 'हम रहें या न रहें लेकिन यह झंडा रहना चाहिए और देश रहना चाहिए। मुझे विश्वास है कि यह झंडा रहेगा, हम और आप रहें नरहें, लेकिन भारत का सिर ऊँचा होगा।'

शास्त्रीजी ने देश की आजादी की लड़ाई में भाग लेने के लिए गाँधीजी के असहयोग आंदोलन में 1921 में स्कूल छोड़ दिया था। देश सेवा की उनकी भावना का अनुमान इसी बात से लगा सकते हैं कि सन्‌ 1930 से 1945 के 15 वर्षों में वे 7 बार जेल गए थे तथा कुल 9 वर्ष तक जेल में बंद रहे।

शास्त्रीजी शांति और प्रेम के प्रबल समर्थक थे। लेकिन रक्षा, अर्थव्यवस्था व परमाणु शस्त्रों संबंधी उनके विचार आज भी अपनी प्रासंगिकता सिद्ध करते हैं। 10 दिसंबर 1965 को संसद के भाषण में उन्होंने कहा था, 'भारत का शांति और अंतरराष्ट्रीय सद्भाव में अडिग विश्वास है। हम सभी से विशेषतः अपने पड़ोसियों से मित्रता चाहते हैं। हम अपनी शक्ति को अपने देश की आर्थिक अवस्था को सुधारने और अपने लोगों के जीवन स्तर को ऊँचा उठाने के बड़े काम में लगाना चाहते हैं। जो धन आज रक्षा के काम में खर्च होता है, हम उसे गरीबी से लड़ने में खर्चकरना चाहते हैं, यदि हमारे देश को भारी खतरा न होता।'

वर्तमान में सत्तालोलुपता राजनीति का केन्द्र बन चुका है। प्रत्येक व्यक्ति पद (कुर्सी) रूपी अर्थ के बिना सब कुछ 'व्यर्थ' बताता है। ऐसे समय में नैतिकता के नाम पर इस्तीफा देना तो दूर, बल्कि विपक्ष द्वारा इस्तीफा माँगने पर भी शर्म महसूस नहीं हो पाती। ऐसे समय में शास्त्रीजी की घटना याद आती है। जब शास्त्रीजी रेल मंत्री थे, तब दक्षिण भारत में अलियालूर में एक रेल दुर्घटना हो गई थी। उस दुर्घटना की नैतिक जिम्मेदारी अपने ऊपर लेते हुए उन्होंने त्यागपत्र दे दिया था।

प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उनके त्यागपत्र की सूचना लोकसभा में देते हुए उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। 'उनमें ऊँचे दर्जे की ईमानदारी, आदर्श के प्रति निष्ठा, अंतरात्मा की आवाज सुनने और कड़ी मेहनत करने की आदत है।' चूँकि वे आत्मा की आवाज सुनने वाले शख्स हैं इसलिए जब उनको सौंपी गई जिम्मेदारी में कमी आई, तब उनको गहरी भावनात्मक ठेस लगी।' क्या वर्तमान में इस तरह के सिद्धांतों का पालन करने वाले नेता सामने आएँगे?
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