Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
webdunia
Advertiesment

सुब्रमण्यम स्वामी : प्रोफाइल

हमें फॉलो करें सुब्रमण्यम स्वामी : प्रोफाइल
, बुधवार, 23 दिसंबर 2015 (15:45 IST)
गुजरे जमाने के एक बंद अखबार 'नेशनल हेराल्ड' मामले में सोनिया गांधी और राहुल गांधी को अदालत तक घसीट लाने वाले सुब्रमण्यम स्वामी अपने सार्वजनिक जीवन में कई वजहों से चर्चा में रहते हैं। वे कई मामलों में एक असाधारण व्यक्ति हैं जिनकी क्षमताओं का अंदाजा लगाना आसान नहीं है।  
डॉ. स्वामी एक प्रतिभाशाली गणितज्ञ के तौर पर मशहूर रहे हैं और उन्हें कानून का जानकार भी माना जाता है। उनसे जुड़ी कई महत्वपूर्ण बातों पर गौर करके आप समझ सकते हैं कि वे कई मामलों में असाधारण हैं। डॉ. स्वामी के पिता सीताराम सुब्रमण्यम एक जाने-माने गणितज्ञ थे और एक समय पर वे केंद्रीय सांख्यिकी इंस्टीट्‍यूट के डायरेक्टर के पद पर भी रहे थे। पिता की तरह ही स्वामी भी गणितज्ञ बनना चाहते थे। उन्होंने हिन्दू कॉलेज से गणित में स्नातक की डिग्री ली। इसके बाद से वे भारतीय सांख्यिकी इंस्टिट्‍यूट, कोलकाता पढने गए।
 
स्वामी के जीवन का विद्रोही गुण पहली बार कोलकाता में जाहिर हुआ। उस वक्त भारतीय सांख्यिकी इंस्टीट्‍यूट, कोलकाता के डायरेक्टर पीसी महालानोबिस थे, जो स्वामी के पिता के प्रतिद्वंद्वी थे। इस कारण से उन्होंने स्वामी को खराब ग्रेड देना शुरू किया था लेकिन स्वामी ने 1963 में एक शोध पत्र लिखकर बताया कि महालानोबिस की सांख्यिकी गणना का तरीका मौलिक नहीं है, बल्कि यह पुराने तरीके पर ही आधारित है।
 
स्वामी ने महज 24 साल में हार्वर्ड विश्वविद्यालय से पीएचडी की डिग्री हासिल कर ली थी। मात्र 27 साल की उम्र में वे हार्वर्ड में गणित पढ़ाने लगे थे। 1968 में अमर्त्य सेन ने स्वामी को दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स में पढ़ाने का आमंत्रण दिया। स्वामी दिल्ली आए और 1969 में आईआईटी दिल्ली से जुड़कर अध्यापन करने लगे, लेकिन उन्होंने आईआईटी के सेमिनारों के दौरान यह कहना शुरू किया था कि भारत को पंचवर्षीय योजनाएं खत्म करनी चाहिए और विदेशी फंड पर निर्भरता से छुटकाया पाया जाए।
 
उनका यह भी दावा था कि इसके बिना भी भारत 10 फीसदी की विकास दर को हासिल कर सकता है। डॉ. स्वामी तब इतने महत्वपूर्ण हो चुके थे कि उनकी राय पर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा था यह विचार वास्तविकता से परे और व्यवहारिक नहीं है, लेकिन तब इंदिरा गांधी की नाराजगी के चलते स्वामी को दिसंबर, 1972 में आईआईटी, दिल्ली की नौकरी गंवानी पड़ी।
 
वे इसके खिलाफ अदालत गए और 1991 में अदालत का फैसला स्वामी के पक्ष में आया। वे एक दिन के लिए आईआईटी गए और इसके बाद अपना इस्तीफा दे दिया। उस समय प्रख्यात समाजसेवी नानाजी देशमुख ने स्वामी को जनसंघ की ओर से राज्यसभा में 1974 में भेजा। 
 
जब देश में आपातकाल लगा था, लेकिन वे कांग्रेसी सरकार की पकड़ में नहीं आए। आपातकाल के 19 महीने के दौर में सरकार उन्हें गिरफ्तार नहीं कर सकी। इस दौरान उन्होंने अमेरिका से भारत आकर संसद सत्र में हिस्सा भी ले लिया और वहां से फिर गायब भी हो गए थे। 
 
वे 1977 में जनता पार्टी के संस्थापक सदस्यों में रहे। 1990 के बाद वे जनता पार्टी के अध्यक्ष रहे। 11 अगस्त, 2013 को उन्होंने अपनी पार्टी का विलय भारतीय जनता पार्टी में कर दिया। इस समय सोनिया गांधी को मुश्किल में डालने वाले स्वामी ने वर्ष 1999 में वाजपेयी सरकार को भी गिराने की कोशिश की थी। इसके लिए उन्होंने सोनिया और जयललिता की अशोक होटल में मुलाकात भी कराई। हालांकि ये कोशिश नाकाम हो गई, लेकिन इसके बाद वे हमेशा के लिए गांधी परिवार के विरोधी हो गए। 
 
हालांकि उसी समय एक दौर ऐसा भी था जब उस समय में स्वामी राजीव गांधी के नजदीकी दोस्तों में भी जाने जाते थे। इतना ही नहीं, बोफोर्स कांड के दौरान उन्होंने संसद में यह सार्वजनिक तौर पर कहा था कि राजीव गांधी ने कोई पैसा नहीं लिया है। एक इंटरव्यू में स्वामी ने यह दावा किया था कि वे राजीव के साथ घंटों समय व्यतीत किया करते थे और उनके बारे में सबकुछ जानते थे।
 
आज की नरेंद्र मोदी सरकार डॉक्टर सुब्रमण्यम स्वामी के निर्णायक कदमों को ही आगे बढ़ाते हुए लुटियंस दिल्ली की सत्ता का हिस्सा बनी है। बंद हो चुके अखबार 'नेशनल हेराल्ड' में धोखाधड़ी के मामले में सोनिया गांधी और राहुल गांधी के निचली अदालत में पेश होने के घंटों पहले ही इस मामले के मुख्य शिकायतकर्ता और गांधी परिवार की ताजा मुश्किलें बढ़ाने वाले सुब्रमण्यम स्वामी को राष्ट्रीय राजधानी के सबसे बेशकीमती इलाके लुटियंस जोन में बंगला अलॉट किया गया है।
 
कहना गलत न होगा कि डॉ. स्वामी भी बहुत से विवादों के केन्द्र में रहे हैं और सरकारी सूत्रों ने गृह मंत्रालय के ताजा आकलन के हवाले से बताया है कि सुब्रमण्यम स्वामी पर बढ़ते खतरे को देखते हुए उन्हें ये बंगला दिया गया है। स्वामी अब तक एक निजी घर में रहते थे जिसमें जेड श्रेणी की सुरक्षा वाले राजनेता की सुरक्षा में तैनात पुलिसकर्मियों के ठहरने लायक जगह नहीं थी, लेकिन स्वामी खुद को सिर्फ एक राजनेता नहीं मानते हैं। इस बात को यह कहकर प्रचारित किया जा रहा है कि डॉ. स्वामी को यह बंगला मोदी सरकार की सेवाओं के कारण मिली है।
 
यह तो सभी जानते हैं कि वे खुद को कांग्रेस की वंशवादी राजनीति (नेहरू, गांधी परिवार) को खत्म करने वाला और प्रणालीगत सत्यनिष्ठा और न्याय के लिए लड़ने वाला योद्धा कहलाना पसंद करते हैं, इसलिए सवाल यह पैदा होता है कि स्वामी, भारतीय जनता पार्टी की राजनीति में कहां फिट बैठते हैं? 
 
अभी तक डॉ. स्वामी का भारतीय जनता पार्टी के साथ रिश्ता उतार-चढ़ाव वाला रहा है। भाजपा के पहले प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी, स्वामी को तनिक भी पसंद नहीं करता थे और उन्होंने अपनी नापसंदगी को कभी नहीं छुपाया। स्वामी ने 1998 में जयललिता की एआईडीएमके के सहयोग वाले एनडीए गठबंधन की सरकार को खतरे में ही डाल दिया था।
 
जयललिता इस गठबंधन की बेहद अहम सहयोगी थीं और उनकी जिद थी कि सुब्रमण्यम स्वामी को वित्तमंत्री बनाया जाए। तब जयललिता ने डॉ. स्वामी के लिए केन्द्र में गठबंधन छोड़ने की धमकी तक दे डाली थी। तब वाजपेयी ने भविष्य की मुश्किलों को भलीभांति भांप गए थे। हालांकि स्वामी हार्वर्ड विश्वविद्यालय के ख्यात अर्थशास्त्री रहे हैं लेकिन वाजपेयी राजनीतिक परिणामों की चिंता किए बिना नए ढांचागत सुधारों को लागू करने के एजेंडे में उनके फिट होने को लेकर पूरी तरह आश्वस्त नहीं थे।
 
स्वामी के अर्थशास्त्र पर उनके सामाजिक विचारों का रंग चढ़ा था। वे विदेशी बैंकों में रखे गए काले धन को वापस लाने के अपने विचार को सख्‍ती से लागू करने के हिमायती थे। हालांकि उनके सुधारों की संकल्पना का आधार 'स्वदेशी' था जो वाजपेयी और उनके आर्थिक सलाहकारों के लिए किसी बड़ी मुश्किल से कम नहीं था।   थी, इसलिए स्वामी को वित्त मंत्री का पद नहीं मिल सका लेकिन तब उन्होंने वाजपेयी के लिए मुश्किलें खड़ी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। 
 
उस समय डॉ. स्वामी को जयललिता और उस वक्त राजनीतिक शुरुआत करने वाली सोनिया गांधी में ऐसे दो भरोसेमंद सहयोगी दिखे जो वाजपेयी की सरकार गिराकर उनकी योजना को आगे बढ़ाने और लागू करने में अहम भूमिका निभा सकते थे। इसका परिणाम यह हुआ कि जब तक भाजपा पर अटलबिहारी वाजपेयी की पकड़ रही, स्वामी पार्टी में अपने पैर नहीं जमा पाए। 
 
लेकिन आज आरएसएस और विश्व हिन्दू परिषद में ऐसे कुछ लोग हैं जो इस पूर्व अर्थशास्त्री, गणितज्ञ के लिए सम्मान का भाव रखते थे। ऐसे लोगों को स्वामी में एक सहज बुद्धि, पांडित्य, छल का आदर्श मिश्रण दिखाई देता था। अतीत में यह बात सामने आई है कि लालकृष्ण आडवाणी जैसा नेता भी स्वामी को पार्टी में वापस चाहते थे। 
 
चेन्नई के चार्टर्ड अकाउंटेंट एस. गुरुमूर्ति और संघ के विचारक और पूर्व राज्यसभा सांसद बलबीर पुंज भी उनके समर्थन में थे। वाजपेयी और आडवाणी के बाद के युग के नेताओं में कुछ ही स्वामी को पसंद करते थे और उनके विद्रोही स्वभाव को समझते थे, लेकिन मोदी इसके अपवाद थे।
 
लेकिन भाजपा का कांग्रेस और गांधी परिवार को कमजोर करने का उत्साह जो 'कांग्रेस मुक्त' नारे में बदल गया, से प्रभावित मोदी को स्वामी में अपने एजेंडा आगे बढ़ाने वाला सहयोगी दिखा। 2014 के चुनावों से ठीक पहले मोदी, स्वामी को वापस पार्टी में ले आए। स्वामी पहले भी सोनिया गांधी पर पुरातत्व की चीजों की तस्करी का मामला दर्ज करा चुके हैं।
 
वे उनकी शैक्षणिक योग्यता को भी चुनौती दे चुके हैं और उन्होंने 2004 में कांग्रेस की जीत से नाराज स्वामी ने सोनिया गांधी की विदेशी नागरिकता का मुद्दा भी उठाया। तब से फिर से अपने पूराने काम पर लग चुके हैं। उन्हें मोदी से हरी झंडी भी मिली। वे अदालत गए और राहुल की कथित दोहरी नागरिकता के मामले में सुनवाई की मांग की। ये मंसूबा नाकाम हो गया लेकिन कांग्रेस को भाजपा के सामान्य रिश्ते रखने के इरादों पर संदेह हो गया। अंत में, वे 'नेशनल हेराल्ड' मामला लेकर आए और स्वामी ने गांधी परिवार के खिलाफ अपनी शिकायत को आगे बढ़ाया। इस बीच जो सरकार कांग्रेस की मदद से जीएसटी और अन्य विधेयक पास करने की कोशिश कर रही थी, उसकी सारी कोशिशों पर पानी फिर गया। हालांकि इस बात को लेकर संदेह है कि क्या मोदी ने स्वामी के इरादों का समर्थन किया है?
 
हेराल्ड मामले को प्रतीक बनाकर अपने 'भ्रष्टाचार मुक्त भारत' के एजेंडे में फिर से जान फूंकने के लिए समूची भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस पर आक्रामक हो गई। भाजपा ने इसे हाल के दिनों का बोफोर्स जैसा मामला बना लिया है। दरअसल, स्वामी एक अप्रत्याशित शख्स हैं। भाजपा सांसद कीर्ति आजाद के वित्त मंत्री अरुण जेटली पर दिल्ली और डिस्ट्रिक्ट क्रिकेट एसोसिएशन (डीडीसीए) का 2013 तक अध्यक्ष रहने के दौरान कथित भ्रष्टाचार के आरोपों से तिलमिलाई भाजपा ने स्वामी की प्रतिक्रिया का इंतजार किया।
 
भाजपा को राहत देते हुए स्वामी ने कहा कि कीर्ति आजाद के आरोपों से जेटली के भाजपा का वरिष्ठ नेता और मंत्री होने से कोई संबंध नहीं है क्योंकि ये एक ऐसे पद से जुड़े हैं जिस पर वह अपनी निजी हैसियत से थे। स्वामी ने एक बार 'सही तरीके' से काला धन वापस न लाने के मुद्दे पर अरुण जेटली की आलोचना की थी। लगता है अब स्वामी मन और विचार से बदल गए हैं और इसके साथ ही, उनका एजेंडा भी समय के साथ बदल रहा है। हालांकि कांग्रेस ने इस मुद्दे को एक प्रचार अभियान चलाने के मौके की तरह इस्तेमाल किया और सारे मामले में कांग्रेस की प्रतिक्रिया ठीक वैसी ही रही, जैसीकि लोगों की उम्मीद थी।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi