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आजादी के लिए बहिष्‍कार से लेकर 2022 तक बॉलीवुड बायकॉट ट्रेंड, क्‍या है इतिहास, कब और क्‍यों हुए विरोध?

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नवीन रांगियाल

इन दिनों किसी भी तरह का सामाजिक, राजनीतिक या धार्मिक मुद्दा उठते ही वो ट्विटर पर ट्रेंड करने लगता है। हैशटैग बनता है, उसके वीडियो आते हैं और पोस्‍ट शेयरिंग के नीचे लाखों की संख्‍या में लाइक्‍स और कमेंट्स का लंबा दौर चलता है। इसी तरह ट्रेंड बनता है और फिर कुछ घंटों के बाद वो मुद्दा खिसक कर नीचे आ जाता है और दूसरा सब्‍जेक्‍ट ट्रेंड करने लगता है। लेकिन इन दिनों इन ट्रेंड्स में ज्‍यादातर बायकॉट के हैशटैग होते हैं। फिल्‍मों का बायकॉट, किसी नेता का बायकॉट, किसी सेलेब्रेटी का बायकॉट।

पिछले कुछ दिनों में बायकॉट शब्‍द का इस्‍तेमाल आपने कई बार सुना होगा और सोशल मीडिया में देखा होगा। लेकिन बायकॉट कोई नई बात नहीं है, इसका अपना एक इतिहास रहा है। यह यही है कि इन दिनों इसका स्‍वरूप कुछ बदल गया है लेकिन यह अब भी आम बात है। हालांकिन वर्तमान में हर चीज का बायकॉट करने की मानसिकता कुछ ज्‍यादा ही चलन में है। आइए जानते हैं आखिर क्‍या है बायकॉट, क्‍या है इसके पीछे की मानसिकता और इसका इतिहास क्‍या रहा है।

इन दिनों बायकॉट एक अलग तरह की नुकसानदाय या स्‍वार्थ की मानसिकता है, लेकिन अतीत में जाएं तो देश की आजादी के लिए इसका इस्‍तेमाल किया गया है और तब यह बहिष्‍कार के तौर पर जाना जाता रहा है।

देश में बायकॉट की मानसिकता
दरअसल, हाल ही में #Boycott trends आपने कई बार देखें होंगे। ठीक इसी तरह एक्‍टर्स, नेताओं, खिलाड़ी के भी बायकॉट होते रहते हैं। इन्‍हीं बायकॉट का सहारा लेकर कई बार तोड़फोड़, आगजनी, हिंसा की घटनाएं होती हैं। कुछ लोग इसका व्‍यापारिक फायदा उठाते हैं तो कुछ राजनीतिक फायदा उठाते हैं। कई बार यह यहां तक पहुंचता है कि पोस्टर जलाए जाते हैं, स्क्रीन से फिल्म हटाना पड़ती है, वहीं कई बार तो सेलेब्स को धमकी भी मिलती। देश की संपत्‍ति को भी कई बार नुकसान पहुंचता है। हाल ही में फिल्‍म लालसिंह चड्ढा इसी बायकॉट की वजह से चर्चा में आई। फिल्म ने 4 दिनों में सिर्फ 38 करोड़ का कलेक्शन किया। क्‍या यह माना जा सकता है कि इसका कारण बायकॉट ट्रेंड हो सकता है। आखिर इसके पीछे की मानसिकता क्‍या है, यह भी वेबदुनिया ने मनोवैज्ञानिकों ने समझने की कोशिश की है।

बायकॉट से फायदे अपने- अपने
पिछले दिनों सरकार की सैनिकों की भर्ती के लिए अग्‍निवीर योजना का भी जमकर सोशल मीडिया में बायकॉट हुआ। हालांकि इसे लेकर सड़क पर भी हिंसाएं हुई। ट्रेंने जलाई गईं, स्‍टेशन, प्‍लेटफॉर्म, बसें, ट्रक, लोगों की बाइक्‍स को आग के हवाले किया गया। कुछ इसी तरह का ट्रेंड देश में किसान आंदोलन के दौरान बना था। चीनी सामान का बायकॉट हो या फिर किसी धार्मिक मुद्दे को हवा देनी हो, अक्‍सर बायकॉट का सहारा लिया गया।

कुछ राजनीति पार्टियों ने इसके फायदे उठाए तो वहीं औद्योगिक प्रतिस्‍पर्धाएं भी सामने आईं। किसी एक प्रोडक्‍ट का बायकॉट होता है तो उसी प्रोडक्‍ट को बनाने वाली दूसरी कंपनी खुद को फायदा पहुंचाने के लिए मौके का फायदा उठा लेती है। चाहे सामाजिक मुद्दा हो या धार्मिक, लोग, धर्म, संप्रदाय और संगठन अपने अपने हिसाब से इन बायकॉट ट्रेंड का फायदा उठा लेते हैं।

बॉलीवुड बायकॉट ट्रेंड्स
साल 2020 : सुशांत सिंह राजपूत की संदिग्‍ध मौत के बाद बॉलीवुड स्टार्स, फिल्में और पूरी इंडस्ट्री को बायकॉट ट्रेंड हुआ था। सुशांत की मौत के बाद लंबे समय तक हैशटैग ट्रेंड हुआ और कई स्टार्स, स्टारकिड्स और उनकी फिल्मों को बायकॉट किया गया। इससे कई स्टारकिड्स की फिल्में बुरी तरह फ्लॉप हुईं। सुशांत की मौत के बाद से ही अब यह काफी चलन में है।

आमिर- शाहरूख से लेकर अर्जुन कपूर तक : आमिर खान की तुर्की यात्रा में वहां भी प्रथम महिला से मुलाकात और बाद में दिल्ली में एक आयोजन में उनकी पत्‍नी का असहिष्णुता पर दिया गया बयान कि भारत में डर लगता है। इसके बाद भी बॉलीवुड का बायकॉट किया गया।

माइ नेम इज खान और छपाक :  2009 में शाहरूख खान की फिल्‍म माइ नेम इज खान का विरोध किया गया था। वजह थी शाहरूख ने आईपीएल में पाकिस्‍तानी प्‍लेयर्स का सपोर्ट किया था और कहा था कि पाकिस्तानी प्लेयर्स को IPL में जगह दी जाना चाहिए। दीपिका पादुकोण के जेएनयू में जाने के बाद उनकी फिल्‍म छपाक का बायकॉट किया गया। इसके साथ ही असहिष्णुता वाले मुद्दों पर नसीरउद्दीन शाह, जावेद अख्‍तर, स्‍वरा भास्‍कर, तापसी पन्‍नू, अनुराग कश्‍यप आदि के बयानों और उनकी राय के बाद कई बार इस तरह का माहौल बनता रहा है। हाल ही में अर्जुन कपूर के बायकॉट ट्रेंड पर बयान दिया कि लोग बॉलीवुड की चुप्‍पी का फायदा उठा रहे हैं, इसके बाद अर्जुन कपूर के खिलाफ ट्रेंड चल रहा है।

गलवान के बाद चीन का बायकॉट
पिछले साल 15 जून को गलवान घाटी में हुई हिंसक झड़प में 20 भारतीय सैनिक शहीद हो गए थे। इस घटना के बाद से देश में गुस्से का माहौल है और चीनी सामान के बहिष्कार की मांग तेज हो रही है। लेकिन यह पहला मामला नहीं है, जब किसी विवाद की वजह से किसी से देश के सामान के बहिष्कार की मांग उठ रही है। भारत में इसका एक लंबा इतिहास रहा है।

क्‍या रहा है बायकॉट का इतिहास?

मैनचेस्टर के सूती कपड़ों का बहिष्कार
बायकॉट शब्‍द इन दिनों कुछ ज्‍यादा चलन में है, लेकिन इसके इतिहास में जाएं तो यह बहिष्‍कार के रूप में नजर आता है। देश में विदेशी सामानों के बहिष्कार की शुरुआत आजादी के आंदोलन के समय हुई थी। 1905 से 1912 तक चले स्वदेशी आंदोलन में पहली बार इसने राजनीतिक रूप लिया। लीडर्स के आह्वान पर भारतीयों ने तब मैनचेस्टर में बने सूती कपड़ों का बहिष्कार किया था और अंग्रेजों के आर्थिक मॉडल को चुनौती दी थी।

जर्मनी के उपकरणों का बहिष्‍कार
इसी तरह 1940 में भारतीय वैज्ञानिकों ने जर्मनी में बने वैज्ञानिक उपकरणों का बहिष्कार किया। 1946 में आणंद के डेयरी किसानों ने ब्रिटेन की कंपनी पोलसन का बहिष्कार किया। अंग्रेजों ने इस कंपनी को दुग्ध खरीद का अधिकार दिया था। इसी से आगे चलकर सफल कोऑपरेटिव ब्रांड अमूल का जन्म हुआ।

खेल जगत भी नहीं बायकॉट से अछूता
बायकॉट या बहिष्‍कार से खेल जगत भी अछूता नहीं रहा है। साल 1986 में Asia Cup के दूसरे एडिशन में भारत ने खेलने से इंकार कर दिया था।  श्रीलंका के साथ उस समय रहे तनावपूर्ण संबंध के मद्देनजर भारत ने Asia Cup, 1986 का बॉयकॉट किया था। साल 1990/91 के सीज़न में पाकिस्तान ने इसलिए खेलने से मना कर दिया था, क्योंकि उस वक्त Asia Cup, 1990/91 का मेज़बान भारत था। सीमा विवादों के साथ आतंकियों की खेप भारत की सरहदों में भेजने की वजह से भारत सरकार ने सख्त रवैया अपना रखा था। जिसकी वजह से पाकिस्तान ने Asia Cup, 1990/91 टूर्नामेंट का बॉयकॉट किया था।

क्‍यों और क्‍या है बायकॉट की मानसिकता?
यह अपना विरोध जताने का अहिंसक तरीका है और सोशल मीडिया के चलन के बाद काफी पॉपुलर हो रहा है। इसमें कैम्पनर को आभासी रूप से बड़ा सपोर्ट मिलता है, लेकिन वास्तविकता के धरातल पर उतना ही सपोर्ट मिलता होगा, यह कहना शायद सही नहीं होगा। हम सबमें सेल्फ करेक्शन की प्रवृत्ति होती है, हम सामूहिक रूप से घृणा को ज्यादा समय तक लेकर नहीं चल सकते। वैसे भी ‘बदनाम हुए तो क्या नाम होगा’ जैसे मुहावरे वाले देश में यह उलट ज्यादा पब्लिसिटी का काम भी कर जाता है। जिस व्यक्ति को कोई जान भी नहीं रहा होता है, उसकी चर्चा बड़े स्तर पर होने लगती है। वैसे देखा गया है कि समय के साथ ऐसे कैम्पेन धीमे पड़ते चले जाते हैं।
डॉ सत्‍यकांत त्रिवेदी, मनोविज्ञान, विशेषज्ञ, भोपाल

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