* स्वाति शैवाल
नन्हे से बीज से अंकुरित होता एक जीवन... जिसकी नर्म, मुलायम कोंपलें छूने पर ठीक वैसे ही सिकुड़ जाती हैं, जैसे किसी नवजात शिशु की नाजुक हथेलियाँ मुड़ जाती हैं मुट्ठी में.. धीरे-धीरे फिर मिट्टी से अपना पोषण पाता वो बढ़ता जाता है... फिर कई साल हर तरह से मनुष्य तथा अन्य प्राणियों का भला करने के बाद एक दिन वो खुद भरभरा कर ढह जाता है और मानो कह जाता है... मैंने हमेशा कोशिश की तुम्हारा साथ देने की और आज इसी कोशिश का अंतिम पड़ाव है। जिंदगी की इस यात्रा में मैं तुम्हें जितना भी दे सका, मैंने दिया... अब अपना शरीर भी छोड़े जा रहा हूँ.. शायद किसी काम आ सके..
एक पेड़ जो हमें इतना देता है, बदले में क्या पाता है? चलिए जानें आज पेड़ की भावना, उसका जीवन, उसकी कहानी.. उसकी ही जुबानी-
मैं अंकुर छोटा सा--मैं आम की एक गुठली के खोल से बाहर कदम रख रहा हूँ। बस अभी कुछ ही देर पहले तो मैंने आँखें खोली हैं और सूरज की तेज किरण की चमचमाहट ने मुझे स्तब्ध कर दिया है। ठीक वैसे ही जैसे पहली बार फोटो खींचने पर किसी शिशु के साथ होता है। माँ का स्नेहिल आँचल मुझे पूरे समय दिलासे वाले स्पर्श के साथ ज़मीन से जुड़े रहने की सीख दे रहा है।
हवा मुझे धीरे-धीरे झूला झुला रही है। आस-पास खड़े मेरे परिवार के अन्य सदस्य तथा मित्र भी भी अपनी डालियाँ हिला कर मेरी आगवानी कर रहे हैं। मैं मुग्ध हूँ, ये सारा परिवेश देखकर और खुशी से एक अंगड़ाई लेकर मैं अपनी अधमुँदी पलकों को पूरा खोल लेता हूँ।
क्रमश: