यहूदी, ईसाई और इस्लाम तीनों ही धर्म के पैगंबर हजरत इब्राहीम ने कुर्बानी का जो उदाहरण दुनिया के सामने रखा था, उसे आज भी परंपरागत रूप से याद किया जाता है।
आकाशवाणी हुई कि अल्लाह की रजा के लिए अपनी सबसे प्यारी चीज कुर्बान करो, तो हजरत इब्राहीम ने सोचा कि मुझे तो अपनी औलाद ही सबसे प्रिय है। उन्होंने अपने बेटे को ही कुर्बान कर दिया। उनके इस जज्बे को सलाम करने का त्योहार है ईद-उल-जुहा।
कुर्बानी का फर्ज : कुर्बानी का अर्थ है कि रक्षा के लिए सदा तत्पर। हजरत मोहम्मद साहब का आदेश है कि कोई व्यक्ति जिस भी परिवार, समाज, शहर या मुल्क में रहने वाला है, उस व्यक्ति का फर्ज है कि वह उस देश, समाज, परिवार की हिफाजत के लिए हर कुर्बानी देने को तैयार रहे।
ईद-उल-फितर की तरह ईद-उल-जुहा में भी गरीबों और मजलूमों का खास ख्याल रखा जाता है। इसी मकसद से ईद-दल-जुहा के सामान यानी कि कुर्बानी के सामान के तीन हिस्से किए जाते हैं। एक हिस्सा खुद के लिए रखा जाता है, बाकी दो हिस्से समाज में जरूरतमंदों में बांटने के लिए होते हैं, जिसे तुरंत बांट दिया जाता है।
नियम कहता है कि पहले अपना कर्ज उतारें, फिर हज पर जाएं। तब बकरीद मनाएं। इसका मतलब यह है कि इस्लाम व्यक्ति को अपने परिवार, अपने समाज के दायित्वों को पूरी तरह निभाने पर जोर देता है।