क्या आप नहीं बनाना चाहेंगे धरती को हरा-भरा, इस आसान तरीके से कुदरत भी देगी साथ...

संदीपसिंह सिसोदिया
मंगलवार, 5 जून 2018 (11:49 IST)
फूलों ने ही तो जीवन सृजन किया है इसीलिए जब भी हमारे लगाए पौधे में फूल खिलते हैं तो हम भी खिल उठते हैं। शायद ही कोई होगा जिसे मैदानों, पर्वतों पर आच्छादित ताजी हरी घास-फूस की खुशबू भली न लगती हो। लेकिन जिस तरह से धरती से उसका हरित श्रृंगार मिट रहा है तो डर लगने लगा है कि क्या हमारी आने वाली पीढ़ी यह सब महसूस कर सकेगी? 
 
विकास कार्यों के चलते अब हरे-भरे पौधे और वृक्ष लुप्तप्राय: वस्तु बनते जा रहे हैं। UNEP की एक रिपोर्ट बताती है कि बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में हमारी धरती की सतह (भूमि) पर लगभग 7.0 अरब हेक्टेयर भूमि पर वन थे और 1950 तक वन्यावरण घटकर 4.8 अरब रह गया था। अब आंकड़े बता रहे हैं कि वन घटकर 2.35 अरब ही रह गए हैं। डराने वाला तथ्य है कि प्रतिवर्ष 7.3 मिलियन हेक्टेयर उष्णकटिबंधीय वन समाप्त हो रहे हैं और प्रति मिनट 14 हेक्टेयर नियंत्रित वन समाप्त हो रहे हैं।
 
हालांकि कई सरकारी एजेंसिया अपने स्तर पर प्रकृति को बचाने के लिए संघर्ष करती दिखाई दे रही हैं। परंतु कई बार यह सारे प्रयास नाकाफी होते हैं, कई बार इसमे लगने वाला धन-श्रम इतना अधिक होता है कि पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने की इच्छाशक्ति और संकल्प के बाद भी स्थिति जस की तस रहती है। 
 
बिगड़ती स्थिति को देखते हुए अब हमें लोगों को यह बताना तो जरूरी हो ही गया है कि पेड़ों को काटना बंद करें लेकिन उससे बेहतर यह है कि हम उन्हें पौधारोपण के लिए प्रेरित करना शुरू करें।
 
लेकिन बड़े पैमाने पर किया जाने वाला पौधारोपण अत्यंत खर्चीला और श्रमसाध्य कार्य है। उदाहरण के तौर पर सिर्फ मध्यप्रदेश की ही बात करें तो एक अध्ययन के अनुसार पिछले 5 वर्षों में मध्यप्रदेश सरकार ने पौधारोपण पर 350 करोड़ रुपए खर्च किए। इसका औसत 60 करोड़ रुपए सालाना बैठता है। कई मीडिया रिपोर्ट में दावा किया गया है कि पिछले पांच सालों में मध्यप्रदेश में में 40 करोड़ से ज्यादा पौधे लगाए गए हैं, लेकिन इनमें से आधे भी नहीं बच पाए। 
इसका यह मतलब नहीं कि अब कुछ नहीं हो सकता, यदि जनभागीदारी से परंपरागत तरीके और आधुनिक तकनीक के संगम से सस्ती और सफल तकनीक का इस्तेमाल किया जाए तो सूखे-बंजर इलाकों का भी सूरते-हाल बदला जा सकता है। 
 
आधुनिकीकरण के दौर में होने वाले सतत बदलाव के साथ प्रकृति को बचाए रखने के लिए प्रकृति प्रेमियों ने अपने आसपास की हरियाली को बचाए-बनाए रखने के कई उपाय किए हैं।
 
आज के नए जमाने में सीड बॉलिंग या सीड बॉमिंग एक ऐसा ही क्रांतिकारी विचार है। हालांकि यह मूलभूत रूप से जापानी विचार है लेकिन काफी समय से सारी दुनिया में लोकप्रिय हो गया है। 
 
वैसे यह भी कहा जाता है कि प्राचीन काल में यह तरीका मिस्रवासियों ने अपनाया था लेकिन एक जापानी किसान मासानोबू फुकुओका ने इसे लोकप्रियता दिलाई और उन्होंने इसका उपयोग अपने खेतों में खाद्य उत्पादन को बढ़ाने की तकनीक के तौर पर किया। इस तरह सीड बॉलिंग या सीड बॉमिंग दुनिया के कई देशों में प्रयोग किया जा रहा है। 
 
क्या होती है सीड बॉल या सीड बॉम : बीजों को जब क्ले मिटटी (तालाब/झील के तलछट की मिट्टी) या गोबर से 1/2 इंच से लेकर 1 इंच तक की गोल गोल गोलियां से सुरक्षित कर लिया जाता है उसे सीड बॉल कहते हैं। 
 
कई देशों में कोयला, प्राकृतिक उर्वरक और मिट्टी की गेंद भी इस्तेमाल की जाती है। उल्लेखनीय है कि भारत के कई समुदाय भी बहुत समय से इसी तरह से जंगल उगाने और खेती करने के लिए इससे मिलती जुलती पद्धति अपनाते रहे हैं।
 
सीड बॉल का उपयोग बिना जुताई और बिना जहरीले रसायनों के कुदरती खेती करने और मरुस्थलों को हरियाली में बदलने के लिए उपयोग में लाया जाता है। यह सर्वोत्तम खाद होती है। यह गोली आम जंगली बीजों की तरह जमीन पर पड़ी रहती है बरसात या अनुकूल मौसम आने पर उग आती है। मिट्टी की जैविकता तेजी से पनप कर नन्हे पौधे को पर्याप्त पोषक तत्व प्रदान कर देती है। 
 
इसी तरह सीड बॉमिंग या एरियल रिफॉरेस्टेशन से पुनर्वनीकरण (Re-Forestation) एक ऐसी तकनीक है जिसके तहत हवाई जहाज से हजारों सीड बॉल्स को जंगलों या सीधे खड़ी ढ़लानों वाली बंजर जमीन (जहां वनीकरण का सफल होना मु‍श्क‍िल होता है) पर बरसाया जाता है।  
 
इस तरह का पहले पुनर्वनीकरण का प्रारंभिक रिकॉर्ड 1930 में मिलता है, जब होनोलुलु के जंगलों में आग लगने के बाद दुर्गम पहाड़ों पर बीजों को फैलाने के लिए इस तकनीक का उपयोग किया गया था। इसके सफल होने के बाद से ही इसे कई देशों में इस्तेमाल किया जा रहा है। 
 
इस समय अमेरिका, कनाडा, चीन, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के दस लाख एकड़ हेक्टेयर के वनों में इसका सफलतापूर्वक उपयोग किया जाता है। उत्तरी अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में बड़े पैमाने पर किए गए प्रयोगों में मिली सफलता से वैज्ञानिक अब इसका विकासशील देशों में भी उपयोग करने लगे हैं। 
 
भारत में प्राचीनकाल से ही वृक्षों की प्राकृतिक देवों के रूप में पूजा की जाती रही है और अनेक प्राचीन ग्रंथो में उनके महत्व के कारण पूर्ण देव के रूप में भी महिमामंडित किया गया है। 
 
मूले ब्रह्मा त्वचा विष्णु शाखा शंकरमेव च
पत्रे पत्रे सर्वदेवायाम् वृक्ष राज्ञो नमोस्तुते ।।
 
वृक्षों के विषय में कहा भी गया है कि इनके मूल में ब्रह्मा, छाल में विष्णु शाखाओं में शंकर तथा पत्ते पत्ते पर सब देवताओं का वास होता है।
 
और अंत में, आइए इस पर्यावरण दिवस पर हम अपनी धरती को उसका हरित श्रृंगार लौटाने का संकल्प लें। यह भी कि इस बार यह बातें केवल आभासी (सोशल मीडिया) ही न रह कर धरती पर भी दिखाई देनी चाहिए...

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