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Diwali ki Katha: दिवाली की संपूर्ण पौराणिक कथा

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WD Feature Desk

, गुरुवार, 24 अक्टूबर 2024 (14:41 IST)
Diwali ki katha: कार्तिक मास की त्रयोदशी को धनतेरस, चतुर्दशी को नरक चर्तुदशी और रूप चौदस, अमावस्या पर दिवाली, प्रतिपदा पर गोवर्धन और अन्नकूट और अंत में दूज पर भाई दूज का त्योहार मनाया जाता है। दिवाली की कथा इन पांचों त्योहारों से जुड़ी हुई है। दीपावली भारतीय पर्वों में सबसे प्रमुख पर्व है और वर्तमान में ही नहीं बल्कि युगों से दीपावली का पर्व मनाया जा रहा है, जिसका प्रमाण इन कथाओं में मिलता है। पढ़ें दीपावली से जुड़ी पौराणिक कथाएं... 
 
1 सतयुग की दीपावली- सर्वप्रथम तो यह दीपावली सतयुग में ही मनाई गई। जब देवता और दानवों ने मिलकर समुद्र मंथन किया तो इस महा अभियान से ही ऐरावत, चंद्रमा, उच्चैश्रवा, परिजात, वारुणी, रंभा आदि 14 रत्नों के साथ हलाहल विष भी निकला और अमृत घट लिए धन्वंतरि भी प्रकटे। इसी से तो स्वास्थ्य के आदिदेव धन्वंतरि की जयंती से दीपोत्सव का महापर्व आरंभ होता है। कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी अर्थात धनतेरस को। तत्पश्चात इसी महामंथन से देवी महालक्ष्मी जन्मीं और सारे देवताओं द्वारा उनके स्वागत में प्रथम दीपावली मनाई गई। 
 
2 त्रेतायुग की दीपावली- त्रेतायुग भगवान श्रीराम के नाम से अधिक पहचाना जाता है। महाबलशाली राक्षसेन्द्र रावण को पराजित कर 14 वर्ष वनवास में बिताकर राम के अयोध्या आगमन पर सारी नगरी दीपमालिकाओं से सजाई गई और यह पर्व अंधकार पर प्रकाश की विजय का प्रतीक दीप-पर्व बन गया। श्रीराम के अयोध्या आगमन पर संपूर्ण अवध राज्य में दीपोत्सव मनाया गया था।
 
3 द्वापर युग की दीपावली- द्वापर युग श्रीकृष्ण का लीलायुग रहा और दीपावली में दो महत्वपूर्ण आयाम जुड़ गए। पहली घटना कृष्ण के बचपन की है। इंद्र पूजा का विरोध कर गोवर्धन पूजा का क्रांतिकारी निर्णय क्रियान्वित कर श्रीकृष्ण ने स्‍थानीय प्राकृतिक संपदा के प्रति सामाजिक चेतना का शंखनाद किया और गोवर्धन पूजा के रूप में अन्नकूट की परंपरा बनी। कूट का अर्थ है पहाड़, अन्नकूट अर्थात भोज्य पदार्थों का पहाड़ जैसा ढेर अर्थात उनकी प्रचुरता से उपलब्धता। वैसे भी कृष्ण-बलराम कृषि के देवता हैं। उनकी चलाई गई अन्नकूट परंपरा आज भी दीपावली उत्सव का अंग है। यह पर्व प्राय: दीपावली के दूसरे दिन प्रतिपदा को मनाया जाता है। 
 
4. द्वापर युग की दीपावली 2- दूसरी घटना कृष्ण के विवाहोपरांत की है। नरकासुर नामक राक्षस का वध एवं अपनी प्रिया सत्यभामा के लिए पारिजात वृक्ष लाने की घटना दीपोत्सव के एक दिन पूर्व अर्थात रूप चतुर्दशी से जुड़ी है। इसी से इसे नरक चतुर्दशी भी कहा जाता है।
 
अमावस्या के तीसरे दिन भाईदूज को इन्हीं श्रीकृष्ण ने अपनी बहिन द्रौपदी के आमंत्रण पर भोजन करना स्वीकार किया और बहन ने भाई से पूछा- क्या बनाऊं? क्या जीमोगे? तो जानते हो, कृष्ण ने मुस्कराकर कहा- बहन कल ही अन्नकूट में ढेरों पकवान खा-खाकर पेट भारी हो चला है इसलिए आज तो मैं खाऊंगा केवल खिचड़ी। हां, क्यों न हो, सारे संसार के स्वामी ने यही तो संदेश दिया था कि- तृप्ति भोजन से नहीं, भावों से होती है। प्रेम पकवान से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। 
 
5 कलियुग की दीपावली- वर्तमान कलियुग दीपावली को स्वामी रामतीर्थ और स्वामी दयानंद के निर्वाण के साथ भी जोड़ता है। भारतीय ज्ञान और मनीषा के दैदीप्यमान अमरदीपों के रूप में स्मरण कर इनके पूर्व त्रिशलानंदन महावीर ने भी तो इसी पर्व को चुना था अपनी आत्मज्योति के परम ज्योति से महामिलन के लिए। जिनकी दिव्य आभा आज भी संसार को आलोकित किए है प्रेम, अहिंसा और संयम के अद्भुत प्रतिमान के रूप में।
 
- कौस्तुभ हृदय माहेश्वरी
साभार - देवपुत्र
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महालक्ष्मी के जन्म पर दिवाली की पौराणिक कथा: 
एक बार सनतकुमार ने ऋषि-मुनियों से कहा- महानुभाव! कार्तिक की अमावस्या को प्रातःकाल स्नान करके भक्तिपूर्वक पितर तथा देव पूजन करना चाहिए। उस दिन रोगी तथा बालक के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति को भोजन नहीं करना चाहिए। सायंकाल विधिपूर्वक लक्ष्मी का मंडप बनाकर उसे फूल, पत्ते, तोरण, ध्वजा और पताका आदि से सुसज्जित करना चाहिए। अन्य देवी-देवताओं सहित लक्ष्मी का षोड्शोपचार पूजन करना चाहिए। पूजनोपरांत परिक्रमा करनी चाहिए।
 
मुनिश्वरों ने पूछा- लक्ष्मी पूजन के साथ अन्य देवी-देवताओं के पूजन का क्या कारण है?
 
सनतकुमारजी बोले- लक्ष्मीजी समस्त देवी-देवताओं के साथ राजा बलि के यहां बंधक थीं। तब आज ही के दिन भगवान विष्णु ने उन सबको कैद से छुड़ाया था। बंधन मुक्त होते ही सब देवता लक्ष्मीजी के साथ जाकर क्षीरसागर में सो गए।
 
इसलिए अब हमें अपने-अपने घरों में उनके शयन का ऐसा प्रबंध करना चाहिए कि वे क्षीरसागर की ओर न जाकर स्वच्छ स्थान और कोमल शय्या पाकर यहीं विश्राम करें। जो लोग लक्ष्मीजी के स्वागत की तैयारियां उत्साहपूर्वक करते हैं, उनको छोड़कर वे कहीं भी नहीं जातीं। रात्रि के समय लक्ष्मीजी का आवाहन और विधिपूर्वक पूजन करके उन्हें विविध प्रकार के मिष्ठान्न का नैवेद्य अर्पण करना चाहिए। दीपक जलाने चाहिए। दीपकों को सर्वानिष्ट निवृत्ति हेतु अपने मस्तक पर घुमाकर चौराहे या श्मशान में रखना चाहिए।
 
राजा का कर्तव्य है कि नगर में ढिंढोरा पिटवाकर दूसरे दिन बालकों को अनेक प्रकार के खेल खेलने की आज्ञा दें। बालक क्या-क्या खेल सकते हैं, इसका भी पता करना चाहिए। यदि वे आग जलाकर खेलें और उसमें ज्वाला प्रकट न हो तो समझना चाहिए कि इस वर्ष भयंकर अकाल पड़ेगा।
 
  • यदि बालक दुख प्रकट करें तो राजा को दुख तथा सुख प्रकट करने पर सुख होगा।
  • यदि वे आपस में लड़ें तो राज-युद्ध होने की आशंका होगी।
  • बालकों के रोने से अनावृष्टि की संभावना करनी चाहिए।
  • यदि वे घोड़ा बनकर खेलें तो मानना चाहिए कि किसी दूसरे राज्य पर विजय होगी।
  • यदि बालक लिंग पकड़कर क्रीड़ा करे तो व्यभिचार फैलेगा।
  • यदि वे अन्न-जल चुराएं तो इसका अर्थ होगा कि राज्य में अकाल पड़ेगा।
 

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