आत्मसम्मान के मामले में दिलीप कुमार बहुत संवेदनशील हैं, फिर भी दोस्ती और प्रेम की खातिर उन्होंने राजनीति के आँगन में कदम रखा और अपनी पसंद के उम्मीदवारों के लिए चुनाव प्रचार में भाग लेते रहे।कांग्रेस की ओर से वे राज्यसभा सांसद तो रहे लेकिन सक्रिय राजनीति में उन्होंने कभी दिलचस्पी नहीं दिखाई। इस क्षेत्र से उनका नाता प्राय: फिल्म उद्योग के हितों की देखरेख तक सीमित रहा, फिर भी जवाहरलाल नेहरू, शाहनवाज खान, मौलाना आजाद और फखरुद्दीन अली अहमद से अपने रिश्तों पर उन्हें सदैव नाज रहा। सबसे पहले नेहरूजी ने ही उन्हें युवक कांग्रेस के एक सम्मेलन में भाषण देने के लिए बुलाया था और बाद में कहा था कि हमारे संगठन में ऐसे बहुत कम लोग हैं जो दिलीप कुमार जैसी कुशलता से अपनी बात कह सकें। विदेश-पलट और वामपंथी कृष्ण मेनन 1957 में जब उत्तर मुंबई से लोकसभा का चुनाव लड़े तो नेहरूजी की मंशानुसार दिलीप-देव-राज की त्रिमूर्ति ने उन्हें समर्थन देकर जितवा दिया। 1962 में भी इस त्रिमूर्ति ने मेनन का साथ नहीं दिया, क्योंकि तब तक रक्षामंत्री के रूप में वे कुख्यात हो चुके थे और भारत-चीन युद्ध में हम राष्ट्रीय शर्म झेल चुके थे। 1967 के चुनाव में मेनन एक अदने-से प्रत्याशी से हार गए थे।साठ के दशक में आरंभिक वर्षों में दिलीप कुमार को राजनीति में मोहभंग का सामना भी करना पड़ा, जब एक जासूसी प्रकरण के सिलसिले में उनके घर और दफ्तर पर दबिश दी गई। दिलीप कुमार की कंपनी सिटीजन फिल्म्स के प्रॉडक्शन विभाग के एक कर्मचारी का संबंध पड़ोसी देश से पाया गया था। वह पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) का था और इस महानायक ने उसे निरापद आदमी समझकर रख लिया था। छापे की कार्रवाई में सरकार को ऐसी कोई सामग्री हाथ नहीं लगी, जिसके आधार पर दिलीप कुमार को आरोपित किया जा सके। लेकिन इस कार्रवाई से वे बहुत आहत हुए और उन्हें इस बात का यकीन हो गया कि मुसलमान होने के कारण उन पर संदेह किया गया। इस मामले में नेहरूजी के जीवनकाल में ही सरकार ने संसद में बयान देकर स्पष्ट किया था कि 'अराष्ट्रीय गतिविधियों' से दिलीप कुमार का कोई संबंध नहीं है।इस घटना के बाद वे राजनीति में और भी संभलकर चलने लगे और अपने आपको केवल चुनिंदा-प्रत्याशियों के चुनाव प्रचार तक सीमित कर लिया। दिलीप कुमार की राजनीति का लक्ष्य भाईचारे और सांप्रदायिक सद्भाव के लिए काम करना और संविधान के सेक्यूलर ढाँचे की रक्षा करना मात्र है।सन 1981 में दिलीप कुमार मुंबई के शेरिफ नियुक्त हुए और इस किरदार को भी उन्होंने बखूबी अंजाम दिया। इस कार्यकाल में उन्होंने विकलांगों की काफी मदद की। बाबरी मस्जिद कांड के बाद दिलीप कुमार ने अपनी 'लो-की' रजनीति को तिलांजलि दे दी और वे काफी मुखर हो गए।अब वे किसी एक पार्टी के समर्थक नहीं हैं। राष्ट्रीय एकता, अखंडता और शांति के लिए होने वाले सम्मेलनों-समारोहों में लगातार शिरकत करते रहे हैं। प्रेस-जगत के प्रतिनिधि उनसे अकसर राष्ट्रीय मुद्दों पर राय पूछते रहते हैं।
अक्टूबर 1994 में वे विप्र सिंह के साथ डलास (अमेरिका) में भारतीय मुसलमानों के फेडरेशन में भाग लेने गए थे। मई 1995 में दिलीप कुमार ने अमेरिका जाकर बोस्निया के युद्ध पीड़ितों के लिए धन-संग्रह अभियन में भाग लिया और 1 लाख डॉलर एकत्र किए।
1996 के आम चुनाव में दिलीप कुमार ने अलवर (राजस्थान) में कांग्रेस प्रत्याशी दुरु मियाँ के लिए प्रचार किया। उस समय उन्होंने कहीं कांग्रेसी और कहीं समाजवादी प्रत्याशियों को जिताने के बयान जारी किए जिससे कुछ भ्रम अवश्य हुआ, लेकिन हकीकत यह थी कि दिलीप कुमार अल्पसंख्यक समुदायों के इस सामूहिक फैसले से सहमत हुए थे कि चुनाव में किसी पार्टी विशेष को थोकबंद समर्थन देने के बजाय मूल्यों के आधार पर विभिन्न पार्टियों के प्रत्याशियों को समर्थन दिया जाए।
तब दिलीप कुमार ने घोषणा की थी कि उन्होंने राजनीति में प्रवेश नहीं किया है, वे सिर्फ देश की एकता और अखंडता में विश्वास करने वाले उम्मीदवारों के लिए बोलेंगे। तब अलीगढ़ में दिलीप कुमार ने समाजवादी उम्मीदवार सत्यपाल मलिक को जिताने की अपील की थी, जो भाजपा प्रत्याशी से हार गए थे।
अगस्त 1997 में दिलीप कुमार ने लखनऊ में ऑल इंडिया मुस्लिम ओबीसीज कॉन्फ्रेंस में मुसलमानों से आह्वान किया कि वे अपने अधिकारों के लिए लड़ें। यह पहला मौका था जब वे अल्पसंख्यक समुदाय के समर्थन में खुलकर सामने आए। मुंबई दंगों के समय वे सिर्फ मुसलमानों की दुर्दशा और उनकी जरूरतों के बारे में ही बोलते रहे थे। लखनऊ कॉन्फ्रेंस में उन्होंने कांग्रेस पर मुसलमानों की भावनाओं से खिलवाड़ करने का आरोप भी लगाया था।
लेकिन 1998 के लोकसभा चुनाव से पहले दिलीप कुमार की माँग बनी रही और इस प्रकार के मुआवजे के रूप में चाँदनी चौक दिल्ली में दिलीप कुमार ने डॉ. मनमोहन सिंह के लिए प्रचार किया। तब डॉ. मनमोहन सिंह ने कहा था कि दिलीप कुमार ने देश की एकता और अखंडता के जो कार्य किए, उन्हें स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा।
1999 में दिलीप कुमार ने दिल्ली के अलावा महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश के मुस्लिम बहुल इलाकों में भी चुनाव प्रचार किया। अहमदाबाद में उन्होंने पूर्व चुनाव आयुक्त टीएन शेषन की सभाओं में राजनीति में धर्म के दुरुपयोग पर अपने विचार रखे थे और भारत के बेहतर भविष्य की कामना की थी। तब उन्होंने कुरआन का हवाला देते हुए मुसलमानों से कहा था कि इस्लाम सभी धर्मों के सम्मान की हिदायत देता है।
मैंने गीता, बाइबिल, ओल्ड टेस्टामेंट आदि धर्मग्रंथ भी पढ़े हैं। कोई भी धर्म आदमी-आदमी के बीच भेदभाव की वकालत नहीं करता। दिलीप कुमार मंत्रमुग्ध कर देने वाले वक्ता हैं। वे बहुत सोच-समझकर बोलते हैं। राजनीति में पैंतरे बदलते रहते हैं। दिलीप कुमार ने सुसंस्कारित व्यक्तित्व के अनुकूल संयमित राजनीति की है। सन 2000 में उन्होंने राज्यसभा में कांग्रेस का नुमाइंदा बनने की पेशकश मंजूर कर ली।