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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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कोटे में भी कोटे की लड़ाई

हमें फॉलो करें कोटे में भी कोटे की लड़ाई

नीलमेघ चतुर्वेदी

संसद और विधान मंडलों में महिलाओं को भी 33 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने संबंध में 108वें संविधान संशोधन विधेयक ने देश के जनमत को फिर चैतन्य कर दिया है। मालवा/निमाड़ क्षेत्र का महिला नेतृत्व तो कल्पना से ही बल्ले-बल्ले है।

महिलाओं के राजनीतिक सशक्तीकरण और लैंगिक असमानता दूर करने के उद्देश्य से राज्यसभा में रखा गया विधेयक इस रास्ते का पहला प्रयास नहीं है। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने प्रधानमंत्रित्वकाल में भी इस मोर्चे पर चिंतन हुआ था। पंचायती राज संस्थाओं और स्थानीय निकायों को संविधान में स्थान देने की योजना बनाते समय संसद और विधान मंडलों के लिए भी ऐसे ही कदम की रूपरेखा बनी थी। बाद में प्रयास फलीभूत नहीं हुआ।

बारह साल बाद महिला आरक्षण ने फिर जोर पकड़ा है। वर्तमान में इस साल के अंत में 5 राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनावों और अगले बरस लोकसभा चुनावों के मद्देनजर संप्रग कैबिनेट ने महिला आरक्षण संकल्प आपातकालीन बैठक में पारित किया है। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी एक्ट के बाद संभवतः संप्रग सरकार का यह दूसरा प्रमुख कदम होगा, जो वोट बैंक को प्रभावित करेगा।

महिला आरक्षण क्यों? : भारत में महिलाओं को सम्मान और समानता की विचारधारा उतनी ही सशक्त रही है जितनी कि इनके साथ असमानता की। भारतीय, श्रीरामचरित मानस की चौपाई 'महावृष्टि जल फुटि कियारी जिमि स्वतंत्र भई बिगड़त नारी' का जाप भी करते हैं और दुर्गा सप्तशती के 'या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता' का श्लोक वाचन भी करते हैं। सीताराम, राधेश्याम, लक्ष्मीनारायण में पहले नारी को स्थान दिया गया है।

  महिलाएँ त्याग, समर्पण, संसाधनों के पुनर्चक्रण (रिसाइक्लिंग) के बेजोड़ उदाहरण सामने रखती हैं। एक बार जिसके साथ सप्तपदी के फेरे लेती हैं, एक नहीं सात जन्मों तक उसी के होने की कसम खा लेती हैं।      
समय बीतने के साथ पुरुष प्रधान समाज ने ना मालूम कैसे रवैये में परिवर्तन कर लिया और नारी भी इसकी आदी हो गई। सती सावित्री, अहिल्या देवी, महारानी लक्ष्मीबाई, रानी दुर्गावती, अदिति पंत, बछेंद्री पाल, किरण बेदी, कल्पना चावला भारतीय महिलाओं के रोल मॉडल हैं। वह कौन-सा कार्य है, जो 'प्रस्तावित 33 फीसदी वर्ग' ने नहीं कर दिखाया है।

सफलता के प्रमाण : पंचायती राज और स्थानीय निकाय संबंधी 73वें और 74वें संविधान संशोधन विधेयक के अधिनियमित होने के बाद तो महिलाओं की आवाज इस मुद्दे पर और सशक्त हो चली है। धरातली संस्थानों में तो महिलाओं के लिए आरक्षण है, किंतु इनके लिए कानून बनाने वाले संस्थानों में नहीं।

महिला आरक्षण के लिए तर्क कम वजनदार नहीं हैं। महिलाएँ, त्याग, समर्पण, संसाधनों के पुनर्चक्रण (रिसाइक्लिंग) के बेजोड़ उदाहरण सामने रखती हैं। एक बार जिसके साथ सप्तपदी के फेरे लेती हैं, एक नहीं सात जन्मों तक उसी के होने की कसम खा लेती हैं। संसाधनों का इस्तेमाल पुरुषों की तुलना में महिलाएँ अधिक बेहतर ढंग से करती हैं।

घर की चद्दर फटे तो खिड़की के पर्दे, पर्दे फटे तो उससे तकिए की खोल, खोल फटे तो गुदड़ी में भरने के चिंदे और गुदड़ी फटे तो सफाई का पोंछा बना संसाधनों के पुनर्चक्रण की शिक्षा महिलाएँ देती हैं। रात की रोटी बचे तो सुबह स्वादिष्ट चूरा, दाल-सब्जी में नमक अधिक गिरे तो बेसन के गोले डाल खाने योग्य बनाने की कला महिलाएँ ही जानती हैं। महीने के अंत में जेब खाली होने पर महिलाओं की मिट्टी गुल्लक ही सिक्के उगलती है। पंचायती राज संस्थानों में 'मैडम सरपंच' के लिए स्थान बनाते समय इन्हीं बिंदुओं पर गंभीरता से विचार हुआ था। अब संवैधानिक संस्थानों के लिए भी ऐसी व्यवस्था जोरदार ढंग से अनुभव हो रही है।

क्या है समस्या : मौजूदा राजनीतिक समीकरण में रोचक तथ्य यह है कि संप्रग के समर्थन में राजग प्रमुख भाजपा अपना समर्थन लिए खड़ी है। संप्रग के बाह्य समर्थक वामदल भी आरक्षण विधेयक के समर्थक हैं। आखिर 'गृह मंत्रालय' व 'वित्तमंत्री' की नाराजगी कौन झेले? (कहीं महिलाएँ घर के लिए गृह मंत्रालय और कहीं वित्तमंत्री कहलाती हैं।

  कहीं महिलाएँ घर के लिए गृह मंत्रालय और कहीं वित्तमंत्री कहलाती हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था में चार वित्तमंत्री हैं। एक तो सरकार के वित्तमंत्री, दूसरा वित्तमंत्री मानसून, तीसरा वित्तमंत्री अन्नदाता और चौथा वित्तमंत्री गृहिणी।      
भारतीय अर्थव्यवस्था में चार वित्तमंत्री हैं। एक तो सरकार के वित्तमंत्री, दूसरा वित्तमंत्री मानसून, तीसरा वित्तमंत्री अन्नदाता और चौथा वित्तमंत्री गृहिणी।) संप्रग घटक राजद, द्रमुक, पीएमके दलित, पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक महिलाओं के लिए भी आरक्षण चाहता है। सपा भी कोटे में कोटे की पक्षधर है।

मंगलवार को उच्च सदन में विधेयक प्रारूप रखने के बाद जो स्थिति सामने आई, उसे टाला जा सकता था। विधेयक अब सदन की स्थायी समिति की संपदा है, जहाँ हर सदस्य को अपनी बात रखने का हक है। मंगलवार के बर्ताव ने महिलाओं का दिल फिर आहत किया है।

संसद के मानसून सत्र तक आम सहमति विकसित होने की आशा की जानी चाहिए। ऐसे में साल के अंत तक मध्यप्रदेश विधानसभा में भी महिलाओं के लिए 33 प्रश आरक्षण की संभावना प्रबल दिखाई देती है। दरअसल भारत के पड़ोसी राज्यों नेपाल और पाकिस्तान के संसदीय चुनावों में विजयी महिलाओं की संख्या (पाक 75, नेपाल 161) ने भारत में इस दिशा में दबाव बनाया है।

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