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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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किसका बलात्कार है यह...

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वर्तिका नंदा

नीला आसमान वाकई सो गया है। यह बात फिल्मी नहीं है। यह बात सच का वह सिलसिला है, जो हर रोज दिखाई दे रहा है। जिस देश की सत्ता को अपनी सत्ता बचाने में ही अपनी ताकत और साख का बड़ा हिस्सा लगाना हो और सरकारी विज्ञापनों के जरिए खबर के आकार को संचालित करने की जुगत लगानी हो, वहां असल खबर के जल्दी खो जाने में की हैरानी होनी भी नहीं चाहिए।

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फिर भी खबर पूरी तरह से छिपाई भी नहीं जा सकती। यही लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की खास पहचान भी है। बलात्कार के मामलों में हरियाणा देश में अव्वल हो गया है, खबर यह है या यह कि ममता बनर्जी मानती हैं कि ज्यादा आजाद माहौल बलात्कारों की वजह है और सोनिया गांधी कहती हैं कि इस देश में सब जगह ही बलात्कार हो रहे हैं।

खबर क्या यह है कि बलात्कार से बचने के लिए जल्द से जल्द शादी कर देनी चाहिए या यह भी है कि बलात्कार की शिकार महिला के घर जाने से पहले सियासतदान यह जानना पसंद करते हैं कि उसकी जाति क्या है और उससे कितने फायदे की उम्मीद है या फिर यह भी कि बलात्कार को लेकर यूट्यूब एकाएक सक्रिय हो उठे हैं।

बलात्कार की लाइव रिपोर्टिंग के दिनों की शुरुआत हो चुकी है। वैसे इन सबके बीच इस देश की कथित सुचारु संस्थाएं- राष्ट्रीय महिला आयोग, प्रेस आयोग कितनी सक्रिय हैं, खबर शायद यह भी है।

हरित क्रांति और दुग्ध क्रांति का देश और अब भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए लैस होता दिखता यह देश बलात्कार की बढ़ती तादाद को लेकर चिंतित है, इसके भयावह संकेत मिल रहे हैं हमें। पहली खबर यहीं से शुरू होती है।

सरकारी आंकड़े कहते हैं कि देश के 35 बड़े शहरों में दिल्ली महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित शहर है। 2010 में दिल्ली में बलात्कार के 414 मामले दर्ज हुए। इसके बाद नंबर आया मुंबई का जहां 194 मामले दर्ज हुए।

इसी तरह दिल्ली में महिलाओं के अपहरण के 1422 मामले सामने आए जो कि 35 शहरों में दर्ज हुए मामलों का 37.7 प्रतिशत है। दहेज के 112 मामले और घरेलू हिंसा के 1273 मामले सामने आए।

और एक बड़ी खबर - पिछले साल दिल्ली में घरेलू हिंसा से बचने के लिए 15000 महिलाओं ने पुलिस की शरण ली और एक भी मामले का संतोषजनक हल नहीं हो सका।

यानी बड़े शहर असुरक्षा के घेरे में है। देश की राजधानी, जहां से सत्ता संचालित होती है और जिसकी कानून और व्यवस्था की स्थिति को देश की सेहत का बैरोमीटर तक मान लिया जाता है, वहां मामला अटका पड़ा है। आखिर क्यों।

महिला हेल्पलाइन में फोन कीजिए। राष्ट्रीय महिला अपराध शाखा या राज्य की महिला अपराध शाखाओं में फोन कीजिए। अदालतों में जाइए। पीड़ितों से मिलिए और अपराधियों को एक दूरी से देखिए। आप समझ जाएंगे कि इस देश में अपराध के गालों पर गुलाबी चमक क्यों है।

और फिर उसके बाद नए जमाने में अपराध की रिपोर्टिंग। कई बार ऐसा लगता है कि किसी मसेदार फिल्म का लाइव प्रसारण हो रहा हो। सोशल नेटवर्किंग साइट्स की सक्रियता ने अपराध की रिपोर्टिंग को चकाचौंध भरे पंख और लोमड़ी-सी फुर्ती भी दे डाली है।

गुवाहाटी में बदसलूकी की शिकार होती युवती के लिए पुलिस उबासी लेती ही रह जाती है और उसकी लाइव फुटेज यूट्यूब पर एक फिल्मी नजारा बन जाती है।

समाज में मानसिक भूकंप भी इस स्थिति को बेहतर बना सकता है क्योंकि अपराध के गालों पर सुनहली चमक है और उसके हाथों में सत्ता की छिपी हुई बंदूक। अब शब्द नहीं, सहयोग चाहिए और उससे भी बढ़कर - एक क्रांति
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यह भी एक वजह है कि पीड़ित ज्यादातर मामलों में चुप्पी साधे रहते हैं। 2003 में सिरीफोर्ट ऑडिटोरियम के बाहर एक स्विस राजनयिक से बलात्कार होता है। पुलिस अपराधी की पहचान तो नहीं कर पाती पर पीड़ित की पहचान मजे से सार्वजिनक हो जाती है। नतीजा - दो दिन बाद वो महिला हमेशा के लिए देश छोड़कर चली जाती है।

ऐसे नतीजे बहुत से निकले हैं और बार-बार संवेदनहीनता की तरफ इशारा करते रहे हैं। पीले पड़े सरकारी कागजों में हर साल यह भर देना आसान है कि ज्यादातर महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों में कोई कार्रवाई इसलिए नहीं हो पाती क्योंकि गवाह नहीं मिलते, क्योंकि पीड़ित खुद पीछे हट जाती हैं, क्योंकि पीड़ित की सड़क पर छांव नहीं होती।

अपराध की कई परतें होती हैं, उसके कई संकेत भी। अपराध का विश्लेषण समाज के कई हिस्सों को उधेड़कर सामने रखता है। अपराध देश-समाज की दशा-दिशा का सटीक आकलन देता है। इसलिए वह आंकड़ा भर नहीं है। अपराध सत्ताओं की ताकत और उनकी नीयत को भी खोलकर सामने रखता है। यह देश के कर्म का रिपोर्ट कार्ड है।

फिलहाल बलात्कारों को लेकर सत्ता की सियासत शुरू हो गई है। अखबारें और फेसबुक भी लहलहा रहे हैं। सत्ताएं बयान देने में मशगूल हैं। आंदोलनों और आगामी चुनावों के बीच कभी-कभार फीके पड़ते खबरों के रनऑर्डर में जब सिनेमा और क्रिकेट भी नहीं होता तो अपराध बहुत काम आता है।

अपराध की रिपोर्टिंग और अपराध से जूझते समाज के लिए इससे त्रासद और क्या होगा कि अपराध से खेलता खूंखार अपराधी उसका इस्तेमाल अपने प्रशिक्षण के लिए करता है। समाज में मानसिक भूकंप भी इस स्थिति को बेहतर बना सकता है क्योंकि अपराध के गालों पर सुनहली चमक है और उसके हाथों में सत्ता की छिपी हुई बंदूक। अब शब्द नहीं, सहयोग चाहिए और उससे भी बढ़कर - एक क्रांति।

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