बढ़ती आत्मनिर्भरता से ही बचेंगे गांव

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- भारत डोगरा
 
करोड़ों गांववासियों की आजीविका की रक्षा एवं गांववासियों की बुनियादी जरूरतों को पूरा  करने के लिए ग्रामीण संकट का समाधान करना जरूरी है। आज गांवों का संकट लगभग  पूरी दुनिया में मौजूद है, पर इसके रूप अलग-अलग हैं। 
 
संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे अन्य विकसित देशों में यह इस रूप में प्रकट हुआ है कि  अपेक्षाकृत छोटे किसान और खेत लुप्त होते जा रहे हैं व बड़ी कंपनियों के हाथों में अधिक  भूमि केंद्रित हो रही है। कनाडा में वर्ष 1941 में जितने किसान थे, 55 वर्ष बाद 1996 में  उनमें से मात्र एक चौथाई ही बचे हैं। आज भी किसानों की संख्या कम होती जा रही है।
 
अमेरिका में वर्ष 1935 में 68 लाख किसान थे, जबकि आज मात्र 19 लाख किसान बचे हैं।  रीगन के राष्ट्रपतिकाल में अनुमान लगाया गया था कि हर 8 मिनट में एक किसान अपनी  खेती-किसानी का पैतृक व्यवसाय छोड़ने को मजबूर हो रहा था। आज अमेरिका में 0.1  प्रतिशत जनसंख्या के हाथ में लगभग 50 प्रतिशत कृषि भूमि है। इसमें से बहुत-सी भूमि  विशालकाय कंपनियों के हाथ में है। दूसरे शब्दों में भूमि स्वामित्व का केंद्रीकरण हो गया है  व लाखों साधारण किसान परिवार अपनी आजीविका गंवा बैठे हैं। 
 
यूरोप के 6 देश सबसे पहले यूरोप की सामान्य आर्थिक नीति के अंतर्गत संगठित हुए थे।  वर्ष 1957 में यहां 220 लाख किसान थे जबकि वर्ष 2003 तक यहां किसानों की संख्या  सिमटकर 70 लाख रह गई थी। ब्रिटेन में वर्ष 1953 में 4,54,000 किसान थे जबकि वर्ष  1981 में उनकी संख्या 2,42,300 रह गई। 
 
दूसरी ओर कई विकासशील देशों में, विशेषकर लेटिन अमेरिकी देशों में यह ग्रामीण संकट  इस रूप में प्रकट हुआ है कि गांवों की आबादी बहुत सिमट गई है। ये देश मुख्य रूप से  शहरी आबादी के देश बन गए हैं। इनमें से कुछ देशों में शहरी जनसंख्या का प्रतिशत कुछ  विकसित/ औद्योगिक देशों से भी आगे पहुंच गया है। यहां की लगभग 80 प्रतिशत तक  जनसंख्या शहरी क्षेत्र में रहने के उदाहरण भी हैं। इस स्थिति में शहरी स्लम निवासियों की  संख्या भी बहुत बढ़ गई है।
 
तीसरी श्रेणी भारत जैसे विकासशील देशों की है, जहां जनसंख्या का अधिक हिस्सा अभी  गांवों में ही है (शहरों के कई परिवारों के भी अभी गांवों से काफी नजदीकी संबंध बने हुए  हैं), पर ग्रामीण जनसंख्या का एक महत्वपूर्ण हिस्सा आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहा है।  इसमें मुख्य रूप से भूमिहीन मजदूर, दस्तकार व छोटे किसान सम्मिलित हैं।
 
हालांकि कई बार मध्यम श्रेणी के किसान भी इससे प्रभावित होते हैं। इस संकट की एक  मुख्य अभिव्यक्ति यह है कि अपनी ओर से भरपूर मेहनत करने के बावजूद अधिकांश लोग  अपनी बुनियादी जरूरतें पूरी करने में असमर्थ हैं। वे कर्जग्रस्त हो रहे हैं। बेहद अभावग्रस्त  व तनावग्रस्त जीवन जीने को मजबूर हैं। कभी कोई इससे तंग आकर आत्महत्या करता है  तो थोड़ी-बहुत चर्चा होती है अन्यथा यह दर्द गांव में ही सिमटा-दबा रहता है।
 
इनमें से बढ़ती संख्या में अभावग्रस्त लोग नियमित तौर पर वर्ष में कई महीनों के लिए  दूर-दूर के इलाकों में मजदूरी के लिए भटकते रहते हैं। कई गांवों में अधिकांश परिवारों का  यही हाल है। इसका दूसरा पक्ष यह है कि गांव के अधिकांश मेहनतकशों के बाहर रहने के  कारण गांव में स्थायी, टिकाऊ विकास के अवसर प्रतिवर्ष और कम होते जा रहे हैं। अपने  गांव की मिट्टी से रोटी प्राप्त करने की संभावना कम होती जा रही है और कहा नहीं जा  सकता कि कब गांव से नाता टूट जाएगा या तोड़ना पड़ेगा?
 
अत: ग्रामीण आर्थिक संकट के संसाधन के लिए हमें ऐसी सोच चाहिए, जो कमजोर वर्ग के  परिवारों को अपने ही गांव में मेहनत कर बुनियादी जरूरतें पूरी करने में सक्षम बनाएं। यदि  गांव में रहते हुए ही सब परिवार अपनी आर्थिक जरूरतें पूरी करने में सक्षम होते हैं तो  इसके साथ यह संभावना भी जरूरी है कि गांव के मेहनतकश अपने गांव व आसपास के  खेत, चरागाह, वन, जलस्रोत सुधारकर गांव के दीर्घकालीन विकास व गांव के पर्यावरण की  रक्षा की संभावनाओं को निरंतर बढ़ा सकेंगे।
 
प्राय: यह देखा गया है कि यदि किसी गांव या गांवों के समूह के सब संसाधनों (कृषि भूमि,  चरागाह, वन, लघु खनिज, जलस्रोत आदि) का उपयोग गांव के सब लोगों की जरूरतों को  पूरा करने के लिए समतामूलक आधार पर किया जाए तो गांव के सब लोगों की बुनियादी  जरूरतें पूरी हो सकती हैं। साथ ही जरूरी है जलस्रोतों की, मिट्टी के उपजाऊपन की, चरागाह  व वनों की रक्षा करने की।
 
मूल बात यह है कि प्राकृतिक संसाधनों का समतामूलक उपयोग हो व उनकी रक्षा सब  लोगों की भागीदारी से हो। इसके लिए जरूरी है कि प्रकृति का विनाश करने वाली तकनीकें  न अपनाई जाएं। ऐसी तकनीकें न अपनाई जाएं जिनसे मिट्टी का प्राकृतिक उपजाऊपन नष्ट  हो या जलस्रोतों में जहरीले रसायन पहुंचें। खाद्य चक्र को जहरीले पदार्थों से मुक्त रखना  जरूरी है। 
 
जरूरत ऐसी तकनीक की है, जो प्रकृति की प्रक्रियाओं को समझे व उसके अनुकूल खाद्य  उत्पादन या अन्य उत्पादन बढ़ाने का प्रयास करें। ग्रामीण अर्थव्यवस्था में कृषि के साथ  अन्य रोजगार भी जुड़ने चाहिए। एक मूल सिद्धांत यह अपनाना चाहिए कि लोगों की अपनी  जरूरत को पूरा करने वाले जो उत्पाद लघु व कुटीर स्तर पर स्थानीय गांव-कस्बे में बन  सकते हैं, उन्हें स्थानीय स्तर पर ही बनाना चाहिए। 
 
कपास की खेती गांव में अवश्य होनी चाहिए व इसके आधार पर एक मूल आवश्यकता  वस्त्र, विशेषकर खादी वस्त्र का स्थानीय उत्पादन हो सकता है। सब तरह के वस्त्रों के  अतिरिक्त जूते, फर्नीचर, बेकरी उत्पाद, शीतल पेय, पत्ते-गोबर की खाद, ऊर्जा के स्रोतों  आदि से भी गांव आत्मनिर्भरता की राह पर काफी आगे बढ़ सकते हैं। लघु वन-उपज व  लघु खनिज आधारित कुटीर उद्योग भी विकसित होने चाहिए।
 
गांवों में अच्छी शिक्षा व स्वास्थ्य सुविधाएं सबको समानता के आधार पर उपलब्ध होनी  चाहिए। आपसी झगड़ों, शराब, अन्य मादक पदार्थ, जुए व दहेज जैसी सामाजिक बुराइयों  को दूर करने के लिए गांववासियों को अपने संगठन बनाकर पंचायत के सहयोग से कार्य  करने चाहिए। उसमें महिलाओं को अग्रणी भूमिका मिलनी चाहिए। 
 
लिंग, धर्म, जाति के आधार पर किसी से भी कोई अन्याय या भेदभाव रोकने का कार्य भी  इन्हीं संगठनों को करना चाहिए। गांववासियों के मजबूत संगठनों की (पंचायतों की सहायता  से) गांव के संसाधनों पर बाहरी तत्वों के नियंत्रण से बचाने व किसानों/ गांववासियों के  बुनियादी अधिकारों को बुलंद करने में महत्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिए। किसानों व ग्वालों  को लघु वन-उपज करने वालों को उचित मूल्य प्राप्त होना चाहिए व साथ ही उन्हें  उपभोक्ताओं से सीधे संपर्क बनाने चाहिए ताकि उपभोक्ताओं को शुद्ध खाद्य मिलें व  किसानों/ गांववासियों को उचित दाम मिले। 
 
विस्थापन की समस्याओं को न्यूनतम करना चाहिए व जहां इसके बिना काम न चले, वहां  कुछ जमीन छोड़ते हुए उसका मुआवजा लेते हुए भी ग्रामीण जीवन का अस्तित्व यथासंभव  आसपास के क्षेत्र में ही बचाए रखने का प्रयास करना चाहिए। (सप्रेस) 
 
(भारत डोगरा प्रबुद्ध एवं अध्ययनशील लेखक हैं।)

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