चिंताजनक है संयुक्त राष्ट्र संघ (यूएनओ) का कमजोर होना

शरद सिंगी
हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी सितंबर में संयुक्त राष्ट्रसंघ के वार्षिक अधिवेशन में राष्ट्राध्यक्षों का मेला लगा। यद्यपि इस वर्ष विभिन्न देशों के राष्ट्राध्यक्षों अथवा उनके प्रतिनिधियों की रिकॉर्ड उपस्थिति रही, किन्तु उनकी इतनी बड़ी संख्या में उपस्थिति ही क्या संयुक्त राष्ट्र संघ को प्रभावी बनाती है? कदाचित नहीं। जिस गति से संयुक्त राष्ट्र संघ की उपयोगिता का ह्रास होता जा रहा है, वह चिंता का विषय बन गया है। विडंबना यह है कि प्रत्येक देश इस मंच को सद्भावना मंच नहीं, अपितु एक कूटनीतिक मंच अधिक समझता है। यह सही है कि इस मंच का उपयोग विश्व के सामने अपनी बात रखने और विश्व के हित में सुझाव देने के लिए होना चाहिए, किन्तु अधिकांश भाषण 'तू तू-मैं मैं' वाले होते हैं। भाषणों में रचनात्मकता लगभग समाप्त हो चुकी है।


संयुक्त राष्ट्र संघ के निष्प्रयोजन होने का प्रमुख कारण है सुरक्षा परिषद् में मिले पांच राष्ट्रों को वीटो का विशेषाधिकार। इस विशेषाधिकार के चलते यह संस्था शांति और सुरक्षा के अपने मुख्य उद्देश्य को कभी पूरा नहीं कर सकती। हालत ये हो चुकी है कि कई सदस्य देश अपना सालाना शुल्क भी नहीं भर रहे हैं। पाकिस्तान जैसे कुछ देशों के पास तो पैसा ही नहीं है भरने के लिए, किन्तु ये एक अलग बात है। संयुक्त राष्ट्र के प्रमुख एंटोनियो ग्युटेरेस को चेतावनी देनी पड़ी कि यदि शुल्क जल्दी नहीं भरा गया तो संस्था दिवालिया होने की राह पर जा रही है। जहां दूसरे राष्ट्र अपने सदस्यता शुल्क को लेकर गंभीर नहीं हैं, वहीं वीटो शक्ति प्राप्त राष्ट्र अपना शुल्क अदा करने में कभी देर नहीं करते, क्योंकि उन्हें इतनी शक्ति मिली हुई है कि एक अकेला राष्ट्र ही पूरे सदन की भावना को ख़ारिज कर सकता है। जब तक इस वीटो को हटाकर एक न्यायोचित मतदान प्रणाली द्वारा बहुमत आधारित निर्णयों को मान्य नहीं किया जाता तब तक अधिकांश देश उदासीन बने रहेंगे। वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा मामलों की समिति में यूरोपीय राष्ट्रों को स्पष्ट रूप से अधिक प्रतिनिधित्व मिला हुआ है और अन्य क्षेत्र संगत रूप से प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। यह शिकायत दीर्घकाल से है जो संयुक्त राष्ट्र की वैधता को चुनौती देती है।

बड़े राष्ट्र यह भी जानते हैं कि यदि संयुक्त राष्ट्र संघ कोई कठोर निर्णय ले भी ले तो उसको क्रियान्वित करना उसकी क्षमता से परे है। क्रियान्वयन के लिए उसे महाशक्तियों का सहयोग चाहिए, क्योंकि उसके पास खुद की कोई सेना तो है नहीं ऊपर से आर्थिक रूप से भी दुर्बल हो चुका है। उदाहरण के लिए अमेरिका, संयुक्त राष्ट्र संघ के लिए धन का सबसे बड़ा स्रोत है। अब सोचिए, वह अमेरिका से धन लेकर अमेरिका के ही विरुद्ध कोई कार्यवाही कैसे कर सकता है? पिछले सप्ताह ही संयुक्त राष्ट्र संघ की एक कोर्ट ने ईरान की एक याचिका पर अमेरिका के विरुद्ध फैसला देते हुए अमेरिका को ईरान के विरुद्ध कुछ प्रतिबंधों को उठाने के लिए कहा, किन्तु अमेरिका इस निर्णय को कौनसा मानने वाला है?

विश्व के सामने आतंकवाद, पर्यावरण, शरणार्थी समस्या विकराल रूप ले रही हैं, किन्तु इस मंच से देश एक दूसरे को निपटाने में लगे हैं। इस सत्र की शुरुआत हमेशा की तरह अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने की। उत्तरी कोरिया को लेकर स्वयं अपनी पीठ थपथपाई। ईरान को लेकर अपना गुस्सा उगला। भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने संयुक्त राष्ट्र संघ को एक परिवार की तरह काम करने की सलाह दी और उन राष्ट्रों को नसीहत दी जिन्हें 'मैं' के अतिरिक्त कुछ दिखाई नहीं देता। भारत ने आतंक का मामला उठाया और पाकिस्तान को लपेटा। पाकिस्तान के पास कश्मीर के अलावा कुछ भी कहने को नहीं था। इसी तरह अन्य देश भी एक-दूसरे पर उंगली उठाते रहे। इस समय अधिकांश देश अपनी-अपनी परेशानियों में उलझे हुए हैं। किसी को फुर्सत नहीं किसी दूसरे के फटे में पैर डालने की। सब अपनी सुनाना चाहते हैं। सुनने का सब्र किसी के पास नहीं है।

आजकल तो नेताओं पर यह भी आरोप लग रहे हैं कि नेता संयुक्त राष्ट्र संघ के पोडियम से जैसे अपने देश की जनता को संबोधित कर रहे हैं। इस तरह हमने देखा कि यूएन की पूरी संरचना में आमूलचूल परिवर्तन की आवश्‍यकता है, नहीं तो हर वर्ष इसी तरह मेले लगेंगे और उठ जाएंगे। नेता बिदा लेंगे, फिर मिलेंगे अगले वर्ष की तर्ज पर। अगले बरस जल्दी आने की किसी को पड़ी नहीं है। आराम से भी आओ। कुछ फर्क नहीं पड़ता। अधिकारियों का सैर-सपाटा अवश्य हो जाता है और नेताओं की झांकी जम जाती है। विश्वहित की चिंता किसे है? इस आलेख को पढ़कर आप हम जैसे चिंतनशील लोग इस बिगड़ती व्यवस्था से थोड़े समय के लिए चिंतित जरूर हो जाएंगे, किंतु सुधार की शुभकामना करने के अतिरिक्त हमारे वश में है ही क्या? ईश्वर संसार के नेताओं को सद्बुद्धि दे।

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