सशस्त्र वामपंथी संघर्ष के खिलाफ थे पटेल

सरदार पटेल के जन्मदिन 31 अक्टूबर पर विशेष

उमेश चतुर्वेदी
सरदार पटेल को जब से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्रीय एकता के प्रतीक के तौर पर अहमियत देना शुरू किया है, तब से उनसे जुड़े एक तथ्य को बार-बार प्रकाश में लाया जाता है। महात्मा गांधी की हत्या के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर लगे प्रतिबंध के लिए सरदार पटेल को खूब याद किया जाता है। लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि सरदार पटेल वामपंथी अतिवाद के भी खिलाफ थे।
 
आजाद भारत में वामपंथी नेता बीटी रणदिवे ने 22 फरवरी 1949 को सशस्त्र संघर्ष की शुरुआत की थी। तब मंत्री के नाते सरदार पटेल ने इस संघर्ष को खत्म करने के खिलाफ कमर कस ली थी। उन्होंने इस संघर्ष पर काबू पाने के लिए कम्युनिस्ट नेताओं की धर-पकड़ शुरू कर दी थी। बलदेव वंशी की पुस्तक – 'एकता की ब्रह्ममूर्ति : पटेल' के मुताबिक प्रधानमंत्री नेहरू इस धर-पकड़ के खिलाफ थे।
 
आज भी छत्तीसगढ़ या दूसरे नक्सल प्रभावित इलाकों में जब नक्सली अतिवादी व्यापक खून-खराबा करते हैं, तब उनके खिलाफ सैनिक कार्रवाई की मांग होने लगती है। लेकिन नागर समाज की ओर से इसका विरोध होने लगता है। नेहरू विरोधी बौद्धिक इस विरोध की जड़ मार्क्सवादी सशस्त्र क्रांति के खिलाफ पंडित नेहरू के नरम रुख में ही देखते हैं।
 
आजाद भारत में मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित सशस्त्र विद्रोह को लेकर सरदार पटेल का रुख स्पष्ट था। वे कम्युनिस्ट विचारधारा की आलोचना तो नहीं करते थे, लेकिन सशस्त्र विद्रोहियों को वे रियायत देने के मूड में नहीं थे। हैदराबाद के निजाम ने जब भारतीय संघ में मिलने से इनकार किया और रजाकारों के हाथों खेलने लगे तो सरदार पटेल ने कड़ा रुख अख्तियार किया।
 
उन दिनों रजाकारों ने हैदराबाद राज्य की हिंदू प्रजा के खिलाफ कत्लेआम की धमकी दी थी और उन्हें बीटी रणदिवे की अगुआई वाले उग्र वामपंथी धड़े ने समर्थन भी दिया था। उससे सरदार पटेल क्षुब्ध थे। पटेल ने इसके खिलाफ उन दिनों एक भाषण में अपना क्षोभ जाहिर किया था। तब हैदराबाद में खासकर हिंदुओं को निशाना बनाया गया था। इसे लेकर पटेल बेहद नाराज थे। 
 
सरदार पटेल ने कहा था, “हैदराबाद का नवरंग एरिया है। जिसमें कम्युनिस्ट लोग कोई-कोई काम करते हैं। वहां जो लोग फसाद कर रहे हैं, वे सब तो कम्युनिस्ट नहीं हैं, क्योंकि उनको लूटपाट का मौका मिल गया है। लेकिन उनको जोड़ने वाले हैं कम्युनिस्ट लोग। यदि उनके दिल में यह हो कि हिंदुस्तान में चीन की तरह साम्यवादी पंथ बने तो वे लोग पागल हैं। मैं कहना चाहता हूं कि जिस प्रकार ये लोग कर रहे हैं, उस प्रकार तो चीन वालों ने भी नहीं किया। मैं नहीं समझता कि दुनिया में कोई भी कम्युनिस्ट वैसा पागलपन करेगा, जैसा हिंदुस्तान में किया जा रहा है।”
 
इसके बाद इतिहास गवाह है। सरदार पटेल ने तत्कालीन मेजर जनरल जेएन चौधरी की अगुआई में हैदराबाद में निजाम शासन और रजाकारों के खिलाफ सैनिक कार्रवाई की और हैदराबाद को भारतीय संघ का हिस्सा बनाने में हिचक नहीं दिखाई। 
 
आजाद भारत में तोड़फोड़ के वामपंथी मजदूर आंदोलनों के भी सरदार के खिलाफ थे। उन्होंने कहा था, “मुल्क में गड़बड़ कराओ, अशांति पैदा करो और रेल की पटरी उखाड़ दो। इस प्रकार की हड़ताल कराओ कि राज शासन चले ही नहीं, यह कम्युनिस्टों का काम है। तब हमने सोच लिया कि इन कम्युनिस्टों के साथ ट्रेड यूनियन में बैठना मुल्क के लिए बड़ी खतरनाक चीज है। इस लिए हमने अलग रहने का फैसला किया।”
 
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े मजदूर संगठन की आलोचना करते हुए 6 मई 1949 को इंदौर में राष्ट्रीय मजदूर संघ के दूसरे अधिवेशन में कहा था, “आज तक ट्रेड यूनियन कांग्रेस के ही प्रतिनिधि बाहर जाते थे, जो वहां हमारी बदनामी करते थे और कहते थे कि ये तो कैपिटलिस्टों के पिट्ठू हैं। हम लोग सब सुनते रहते थे और बर्दाश्त करते रहते थे।”
 
हैदराबाद के रजाकारों को वामपंथी विद्रोहियों द्वारा सहयोग मिलने के बाद वामपंथी विचारधारा से पटेल बेहद नाराज थे। उन्होंने कहा था, “जो अपने कम्युनिस्ट समझते हैं, उनके प्रति मुझे प्रेम है, आदर है। मगर उनमें खुद में ताकत होगी, तब उन्हें दुनिया के मजदूरों का आदर-प्रेम पैदा होगा।” 
 
हैदराबाद को भारतीय संघ में मिलाने के साथ ही पटेल ने सशस्त्र वामपंथी विद्रोह के खिलाफ भी कड़ा रुख अख्तियार किया। उन्होंने सैकड़ों कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं और नेताओं को हिंसा फैलाने के जुर्म में गिरफ्तार किया था। यह बात और है कि 15 दिसंबर 1950 को उनका जब निधन हो गया तो तत्कालीन केंद्र सरकार ने उन्हें रिहा कर दिया था।
 
(सभी उद्घरण भारत की एकता का निर्माण, सरदार पटेल के भाषण पुस्तक से लिए गए हैं। जिसे प्रकाशन विभाग ने प्रकाशित किया है।)

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