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समरस पंचायत और महिलाओं का इस्तेमाल

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-सुनीति शर्मा
समरस पंचायत का अर्थ है, जहां पर गांव वालों की आपसी सहमति से पंचायत को चुना जाता है। इसमें वोटिंग नहीं होती है। जो ग्राम पंचायत समरस के तहत अपनी पंचायत का निर्माण करती है उस पंचायत को राज्य सरकार प्रशंसास्वरूप एक तय धनराशि देती है। जसपुरिया पंचायत के कन्नूभाई बताते हैं कि गांव का सौहार्द बनाए रखने, फिजूलखर्ची से बचाव और विवाद से बचने के लिए ही समरस पंचायत की जाती है।

जबकि मधु कहती हैं कि इन पंचायतों में पुरुष ही सरपंच बनते हैं। कभी किसी महिला को सरपंच या पंच बनने का मौका नहीं मिलता है। अगर वह सीट महिला के लिए आरक्षित न हो, महिलाओं को समरस में चुनकर लाने का केवल दो ही कारण होते हैं- एक या तो वह महिला सीट हो या फिर समरस करके सरकार से अधिक ग्रांट लेना हो।

मधु के पति कन्नूभाई की राय में ओपन सीट तो पुरुष सीट होती है और उस पर महिला नहीं आ सकती, ठीक वैसे ही जैसे महिला सीट पर पुरुष नहीं आ सकते। कन्नूभाई और उन जैसे अनेक लोगों का मानना है कि खुली सीट केवल पुरुषों के लिए ही होती है और महिला केवल आरक्षित सीट पर ही चुनाव लड़ सकती है।

समरस की इन 3 कहानियों में यह स्पष्ट दिखाई पड़ता है कि शासन में स्वतंत्र रूप आना और आत्मनिर्भरता से काम करना महिलाओं के लिए सरल नहीं है। महिला सीटों पर महिलाओं को लाना एक मजबूरी होती है और गांव के प्रभुत्वशाली लोग अपनी सत्ता को हाथ से जाने नहीं देना चाहते, तो अपने परिवार की अनिच्छुक महिलाओं को रबर स्टैम्प बनाकर स्वयं शासन करते हैं, वैसे ही जैसे वे करना चाहते हैं। ऐसे में महिलाओं को बाहर लाने और समान अवसर व स्थान दिलाने की नीतिकारों की मंशा फलीभूत होती नहीं दिखती। अगर किसी पंचायत में कोई जागरूक महिला अपने दम पर आना भी चाहे तो प्रभुत्वशालियों की पैनी चालों के आगे उसकी एक नहीं चलती और वह किसी न किसी तरह सत्ता से बाहर कर दी जाती है।

कहानी गीता की : यह कहानी भावनगर के पिपरला ग्राम पंचायत की है। इस गांव में आजादी के बाद से पहली बार चुनाव 2010 में इसलिए हुआ, क्योंकि गीता ने चुनाव कराने का मन बना लिया था। गीता एक आशा वर्कर है और वह अपने काम के माध्यम से वे गांव के लोगों में लोकप्रिय हैं। 2010 के चुनाव में पिपरला पंचायत की सीट ओपन सीट थी और गीता ने समरस के बजाय चुनाव की वकालत की। तीसरी कक्षा पास गीता ने चुनाव में प्रतिभाग किया और हार गईं, इस तरह समरस में पहले से तय चंदू भाई जोशी की जीत हुई।

गांव के कुछ चुनिंदा लोग जिनका गांव में प्रभुत्व होता, वही समरस करने के लिए आपसी सहमति बनाते हैं। गीता को जब 2010 में पता चला कि एक बार फिर से उनकी पंचायत समरस होने जा रही है तो उन्होंने गांव वालों के सामने इस बात को रखा कि वे चुनाव लड़ना चाहती हैं। गीता को काफी समझाया गया कि वह ऐसा न करें, परंतु गीता नहीं राजी हुईं। वह कहती है कि समरस में केवल वही चुनकर आता है, जो गांव के प्रभुत्वशाली पुरुष वर्ग जिसको चुनते हैं। चाहे उसमें लगन हो या न हो, चाहे वह काम करना जानता हो या नहीं, इससे उनको कोई फर्क नहीं पड़ता। जब कोई सीट महिला आरक्षित होती है तभी किसी महिला को समरस के तहत सरपंच बनने का मौका दिया जाता है, उसमें भी उस महिला को, जो गांव के मुखिया या अपने पति के अनुसार काम करे।

गीता एक जागरूक और तार्किक महिला है। वह गांव में काम करने वाली एक स्थानीय महिला संस्था के साथ जुड़ी हुई है जिससे उन्हें पंचायत की प्रक्रियाओं और काम की काफी जानकारी है। उन्होंने इस बात को महसूस किया कि आजादी के बाद से उनके गांव में अभी तक कोई महिला सरपंच नहीं हुई है। इसके पीछे की वजह उन्हें यही लगी कि गांव में चुनाव ही नहीं होते थे और समरस में किसी महिला का नाम प्रस्तावित नहीं होता था। अत: उन्होंने इस परंपरा को तोड़ने का विचार किया और चुनाव में प्रतिभाग करने को तत्पर रहीं। उस बरस तो वे हार गईं लेकिन इसका खामियाजा उन्हें भुगतना ही पड़ा, जब अगले चुनावों में उन्हें जीत के 6 महीने बाद ही अविश्वास प्रस्ताव लाकर हटा दिया गया।

कहानी मधु बा की : मेहसाणा जिला गुजरात की राजधानी गांधीनगर से तकरीबन 80 किलोमीटर की दूरी पर है। इसकी कुल आबादी 2011 के मुताबिक तकरीबन 184 लाख है। इसी मेहसाणा जिले में एक तालुका है सतलासण जिसकी ग्राम पंचायत जसपुरिया एक समरस पंचायत है। जसपुरिया ग्राम पंचायत 3 गांव की पंचायत है जिसमें वसईजुत एक और वसईजुत दो और जसपुरिया गांव शामिल हैं। मधु बा इसी पंचायत की रहने वाली हैं और वह पहली महिला है, जो पिछले 20 वर्षों में पहली बार जसपुरिया पंचायत में समरस के तहत सरपंच बनी हैं, क्योंकि 2017 में यह महिला सीट थी। वह परमार समुदाय से हैं, जो गुजरात में अनुसूचित जाति है।

मधु बा के दो बच्चे हैं और उन्होंने कक्षा 8 तक शिक्षा ली है। उनके पति ने स्नातक तक शिक्षा ग्रहण की है। मधु बा के पति कन्नूभाई गांव में मिड डे मील का प्रबंध देखते हैं। परिवार की मासिक आमदनी तकरीबन 10,000 रुपए है। मधु बा के पति कन्नूभाई गांव में सभी की जरूरत के समय लोगों की मदद करते हैं और इसीलिए गांव में लोगों में लोकप्रिय हैं। मधु की न तो कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि है और न ही उनकी इच्छा सरपंच बनने की थी, पर कन्नूभाई के कहने से उन्हें सरपंच के चुनाव में भाग लेना पड़ा। यही वजह है कि सरपंच बनने के बाद भी उनके पति ही उनके स्थान पर सरपंच के सभी कामकाज संभालते हैं।

हालांकि मधु बा अपने पति कन्नूभाई के माध्यम से काम करती हैं फिर भी मधुबा के अब तक के कार्यकाल में अभी तक वसईजुत एक और दो में आरसीसी रोड का निर्माण कराया, बंद पड़ी स्ट्रीट लाइट को चालू कराया, जसपुरिया के विभिन्न मोहल्लों में आरसीसी की दीवार भी बनवाई और इन सबके साथ उन्होंने सतलासण में बच्चों के लिए क्रिकेट का टूर्नामेंट भी कराया जबकि वह अपने बाकी बचे कार्यों में सबसे पहले तीनों गांवों में इंदिरा आवास योजना के तहत 30 परिवारों को घर देने पर काम कर रही हैं।

 कहानी वर्षा बा (बदला हुआ नाम) की : तीसरी कहानी भावनगर के शिहोर तालुका में बसे लाजपत नगर पंचायत (बदला हुआ नाम) की है। इस पंचायत में आजादी के बाद से अब तक केवल 3 बार ही पंचायत चुनाव हुए हैं, मगर इन तीनों ही चुनाव में न तो किसी महिला को चुनाव लड़ने का ही मौका मिला और न ही कोई महिला सरपंच बनी। लाजपत नगर पंचायत की कुल आबादी 890 है जिसमें तकरीबन 425 महिलाएं होंगी। इसके बावजूद यहां महिलाओं को ग्राम पंचायत में सर्वोच्च पद से वंचित रखा जाता रहा।

ये 2018 के चुनाव थे जिनमें ही पहली बार कोई महिला सरपंच बनी है, वह भी केवल इसलिए कि पिछले चुनाव में यह गांव महिला ओपन सीट के लिए आरक्षित थी। वर्तमान में इस पंचायत की सरपंच हैं वर्षा बा। वर्षा बा के साथ ही उनकी पंचायत में सभी 8 पंचों में महिलाओं को समरस के तहत चुना गया है। इन 8 पंचों में केवल 3 पंच ऐसी है, जो कि पढ़ी-लिखी हैं।

52 वर्षीय वर्षा बा कक्षा 8 तक पढ़ी हैं। वर्षा बा के परिवार में 3 एकड़ खेती है और उनको खेती से हर महीने तकरीबन 7,000 से 8,000 तक की आमदनी हो जाती है। वर्षा बा क्षत्रिय समुदाय से आती हैं। लाजपत नगर ग्राम पंचायत एक क्षत्रिय बहुल गांव है जिस वजह से अधिकतर इस गांव के सरपंच इसी समुदाय से हैं।

वर्षा बा तो संयोग से इस पंचायत में सरपंच बनीं। दरअसल, उनके देवर प्रवीण सिंह (बदला हुआ नाम) और अपनी पत्नी भानुमती गोहिल (बदला हुआ नाम) के लिए चुनाव की तैयारी कर रहे थे। मगर उनके 3 बच्चे होने की वजह से वे चुनाव में भाग नहीं ले सकीं इसलिए उन्होंने गांव के बड़े लोगों से बात करके अपनी भाभी वर्षा बा का नाम सरपंच पद के लिए प्रस्तावित किया। वर्षा बा नि:संतान हैं इसलिए वे सरपंच बन सकती थीं।

रणनीतिक तौर से उनके देवर प्रवीण सिंह ने गांव को एक बार फिर से समरस ग्राम पंचायत करने की गुहार भी लगाई। उन्हें चुनाव के नतीजों पर कम भरोसा था और वे सशंकित थे कि उनकी भाभी वर्षा बा चुनाव जीत पाएंगी और फिर समरस पंचायत को अलग से ग्रांट मिलती है। वर्षा बा या मधु समरस के तहत सरपंच तो बनी हैं, मगर सरपंची का काम अधिकतर उनके पति व देवर ही करते हैं। वे सरपंच बनी, क्योंकि उनके परिवार वाले चाहते थे। वर्षा बताती हैं कि वे एक ऐसे समुदाय से आती हैं, जहां पर महिलाओं को घर से बाहर के काम के लिए नहीं निकाला जाता है इसलिए उनको अपने समुदाय की परंपरा का सम्मान रखते हुए घर के कामकाज ही देखने पड़ते हैं।

घर से बाहर के कामकाज और पंचायत के कामकाज उनके घर के पुरुष ही कर लेते हैं। ऐसे में यह सवाल उठना बेहद लाजमी हो जाता है कि महिलाओं को पंचायत में लाया तो जा रहा है, किंतु क्या उनको भागीदारी करने का सही मौका मिल पा रहा है? दूसरी तरफ गीता जैसी बहुत ही कम महिलाएं होंगी, जो कि गांव के प्रभुत्वशाली लोगों के खिलाफ जाने का हौसला करती होंगी। यदि होंगी भी तो जैसा गीता के साथ हुआ, समरस का विरोध करने के एवज में उनको हार का सामना करना पड़ा।

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