गांधी हत्या और आरएसएस

लोकेन्द्र सिंह
राजनेताओं को यह समझना होगा कि अपने राजनीतिक नफे-नुकसान के लिए किसी व्यक्ति या संस्था पर झूठे आरोप लगाना उचित परंपरा नहीं है। कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी शायद यह भूल गए थे कि अब वह दौर नहीं रहा, जब नेता प्रोपोगंडा करके किसी को बदनाम कर देते थे। आज पारदर्शी जमाना है। आप किसी पर आरोप लगाएंगे तो उधर से सबूत मांगा जाएगा। बिना सबूत के किसी पर आरोप लगाना भारी पड़ सकता है। 

भले ही कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष इस मामले पर माफी माँगने से इनकार करके मुकदमे का सामना करने के लिए तैयार दिखाई देते हैं लेकिन कहीं न कहीं उन्हें यह अहसास हो रहा होगा कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर महात्मा गांधी की हत्या का अनर्गल आरोप लगाकर उन्होंने गलती की है। इसका सबूत यह भी है कि वह अदालत गए ही इसलिए थे ताकि यह प्रकरण खारिज हो जाए। गौरतलब है कि गांधी हत्या का आरोप संघ पर लगाने के मामले में कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके सीताराम केसरी को भी माफी का रास्ता चुनना पड़ा था। 
 
प्रसिद्ध स्तम्भकार एजी नूरानी को भी द स्टैटसमैन अखबार के लेख के लिए माफी मांगनी पड़ी थी। बहरहाल, वर्ष 2014 में ठाणे जिले के सोनाले में आयोजित चुनावी सभा में संघ को गांधी का हत्यारा बताने पर राहुल गांधी के खिलाफ आपराधिक मानहानि के मामले की सुनवाई कर रहे उच्चतम न्यायालय ने उन्हें चेतावनी देते हुए कहा है कि राहुल गांधी इस मामले में माफी माँगें या फिर मुकदमे का सामना करें। उच्चतम न्यायालय ने राहुल गांधी के भाषण पर सवाल उठाए और आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा कि 'उन्होंने गलत ऐतिहासिक तथ्य का उद्धरण लेकर भाषण क्यों दिया? राहुल गांधी को इस तरह एक संगठन की सार्वजनिक रूप से निंदा नहीं करनी चाहिए थी।' हमें गौर करना होगा कि कांग्रेस का राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रति विरोध और द्वेष प्रारंभ से ही है। वैचारिक विरोध और द्वेष के कारण ही कांग्रेस का एक धड़ा अनेक अवसर पर संघ को बदनाम करने का प्रयास करता रहा है। 
            
पंडित जवाहरलाल नेहरू से लेकर राहुल गांधी तक संघ के प्रति वही संकीर्ण नजरिया और द्वेष कायम है। साम्यवादी विचारधारा के प्रति झुकाव रखने के कारण जवाहरलाल नेहरू संघ का विरोध करते थे। वह किसी भी प्रकार संघ को दबाना चाहते थे। वर्ष 1948 में जब नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या की, तब संघ को बदनाम करने और उसे खत्म करने का मौका प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को मिल गया। 'नाथूराम गोडसे संघ का स्वयं सेवक है और गांधीजी की हत्या का षड्यंत्र आरएसएस ने रचा है।' यह आरोप लगवाकर कांग्रेसनीत तत्कालीन सरकार ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर न केवल प्रतिबंध लगाया, बल्कि देशभर में उससे संबंद्ध नागरिकों को जेल में ठूंस दिया, परंतु साँच को आँच क्या? 
 
तमाम षड्यंत्र के बाद भी सरकार गांधीजी की हत्या में संघ की किसी भी प्रकार की भूमिका को साबित नहीं कर सकी। संघ अग्नि परीक्षा में निर्दोष साबित हुआ। नतीजा, सरकार को संघ से प्रतिबंध हटाना पड़ा। क्या राहुल गांधी और संघ विरोधी बता सकते हैं कि जब संघ ने महात्मा गांधी की हत्या की थी, तब कांग्रेस ने ही उससे प्रतिबंध क्यों हटाया? राहुल गांधी संभवत: अब भी यह नहीं समझ पाए हैं कि गांधीजी की हत्या नाथूराम गोडसे ने की थी, संघ ने नहीं। उन्हें इसके लिए उच्चतम न्यायालय की टिप्पणी पर ध्यान देना होगा। न्यायालय ने कहा है कि गोडसे ने गांधी को मारा और संघ या संघ के लोगों ने गांधी को मारा, दोनों कथनों में बहुत बड़ा अंतर है। 
 
बहरहाल, नाथूराम गोडसे और संघ के संबंध में स्वयं गोडसे ने अदालत में कहा था कि वह किसी समय संघ की शाखा जाता था लेकिन बाद में उसने संघ छोड़ दिया। बहरहाल, यदि यह माना जाए कि एक समय गोडसे संघ का स्वयं सेवक था, इसलिए संघ गांधी हत्या के लिए जिम्मेदार है। तब यह भी बताना उचित होगा कि एक समय नाथूराम गोडसे कांग्रेस का पदाधिकारी रह चुका था। लेकिन संघ विरोधियों ने नाथूराम गोडसे और कांग्रेस के संबंध को कभी भी प्रचारित नहीं किया। इससे स्पष्ट होता है कि आज की तरह उस समय का तथाकथित बौद्धिक नेतृत्व, वामपंथी लेखक/इतिहासकार और कांग्रेस का नेतृत्व ऐन केन प्रकारेण संघ को कुचलना चाहता था। यह सच है कि एक समय में नाथूराम गोडसे संघ की गतिविधियों में शामिल रहा। 
 
लेकिन यह भी उतना ही सच है कि वह संघ की विचारधारा के साथ संतुलन नहीं बैठा सका। संभवत: वह संघ को कट्टर हिन्दूवादी संगठन समझकर उससे जुड़ा था, लेकिन बाद में जब आरएसएस के संबंध में गोडसे की छवि ध्वस्त हुई, तब गोडसे न केवल संघ से अलग हुआ बल्कि एक हद तक संघ का मुखर विरोधी भी बन गया था। उनके समाचार पत्र 'हिन्दू राष्ट्र' में संघ विरोधी आलेख प्रकाशित होते थे। गोडसे ने संघ की आलोचना करते हुए सावरकर को पत्र भी लिखा था। इस पत्र में उसने लिखा कि संघ हिन्दू युवाओं की ऊर्जा को बर्बाद कर रहा है, इससे कोई आशा नहीं की जा सकती। स्पष्ट है कि गोडसे संघ समर्थक नहीं, बल्कि संघ विरोधी था। 
 
गांधी हत्या की जांच के लिए गठित कपूर आयोग को दी अपनी गवाही में आरएन बनर्जी ने भी इस सत्य को उद्घाटित किया था। बनर्जी की गवाही इस मामले में बहुत महत्त्वपूर्ण थी, क्योंकि गांधीजी की हत्या के समय आरएन बनर्जी केन्द्रीय गृह सचिव थे। बनर्जी ने अपने बयान में कहा था कि यह साबित नहीं हुआ है कि वे (अपराधीगण) संघ के सदस्य थे। वे तो संघ की गतिविधियों से संतुष्ट नहीं थे। संघ के खेलकूद, शारीरिक व्यायाम आदि को वे व्यर्थ मानते थे। वे अधिक उग्र और हिंसक गतिविधियों में विश्वास रखते थे। (कपूर आयोग रिपोर्ट खंड 1 पृष्ठ 164)
            
राजनीतिक और वैचारिक षड्यंत्र के तहत ही गांधी हत्या के मामले में आरएसएस को घसीटा गया था। गांधी हत्या की प्राथमिकी (एफआईआर) तुगलक रोड थाने में दर्ज कराई गई है। इस प्राथमिकी (एफआईआर-68, दिनांक- 30 जनवरी, 1948, समय - सायंकाल 5:45 बजे ) में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का कहीं कोई जिक्र नहीं है। लेकिन गांधीजी की हत्या के बाद ही तत्कालीन प्रधानमंत्री और कांग्रेस नेता पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपने भाषणों में गांधी हत्या के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को दोष देना शुरू कर दिया। इस बात से जाहिर होता है कि पंडित नेहरू आरएसएस के संबंध में पूर्वाग्रह से ग्रसित थे और उन्हें तत्कालीन वामपंथी विचारकों/नेताओं द्वारा लगातार संघ के प्रति भड़काया जा रहा था। 
 
कांग्रेस के शीर्ष नेताओं के भड़काऊ भाषणों से देशभर में कांग्रेस के लोग संघ से संबंध रखने वाले लोगों को प्रताड़ित करने लगे थे। संघ कार्यालयों पर पथराव हुआ, तोडफोड़ हुई और कई जगह आगजनी भी की गई। लेकिन संघ के अनुशासित स्वयं सेवकों ने कोई प्रतिकार नहीं किया। कांग्रेस की हिंसा का शांति से सामना कर उन्होंने सिद्ध कर दिया था कि संघ अहिंसक संगठन है। बहरहाल, गांधी हत्या में आरएसएस की भूमिका की पड़ताल करने के लिए तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल की निगरानी में देशभर में अनेक गिरफ्तारियां, छापेमारी और गवाहियां हुईं। इनसे धीरे-धीरे यह स्पष्ट होने लगा कि गांधी हत्या का संघ से कोई वास्ता नहीं है। संघ पर जघन्य आरोप साबित नहीं होते देख पंडित जवाहरलाल नेहरू कुछ विचलित हुए और उन्होंने जाँच पर असंतोष जाहिर करते हुए सरदार पटेल को पत्र लिखा। 
 
उन्होंने अपने पत्र में आरोप लगाया कि दिल्ली की पुलिस और अधिकारियों की संघ के प्रति सहानुभूति है। इस कारण संघ के लोग पकड़े नहीं जा रहे। उसके कई प्रमुख नेता खुले घूम रहे हैं। उन्होंने यह भी लिखा कि देशभर से जानकारियां मिली हैं और मिल रही हैं कि गांधीजी की हत्या संघ के व्यापक षड्यंत्र के कारण हुई है, परंतु उन सूचनाओं की ठीक प्रकार से जांच नहीं हो रही। जबकि यह पक्की बात है कि षड्यंत्र संघ ने ही रचा था। आदि-आदि। सरदार पटेल ने इस पत्र का क्या जवाब दिया वह बहुत महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि कुछ लोग सरदार पटेल को भी गलत अर्थों में उद्धृत करते हैं। संघ विरोधी सरदार पटेल की तत्कालीन प्रतिक्रियाओं को तो लिखते हैं, जिनमें उन्होंने भी यह माना कि गांधी हत्या में संघ की भूमिका हो सकती है। लेकिन जाँच के बाद सरदार पटेल की क्या धारणा बनी, यह नहीं बताते। 
 
खैर, पंडित नेहरू की जिज्ञासा को शांत करने के लिए सरदार पटेल पत्र (27 फरवरी, 1948) में लिखते हैं कि गांधीजी की हत्या के सम्बन्ध में चल रही कार्यवाही से मैं पूरी तरह अवगत रहता हूं। सभी अभियुक्त पकड़े गए हैं तथा उन्होंने अपनी गतिविधियों के सम्बन्ध में लम्बे-लम्बे बयान दिए हैं। उनके बयानों से स्पष्ट है कि यह षड्यंत्र दिल्ली में नहीं रचा गया। वहां का कोई भी व्यक्ति षड्यंत्र में शामिल नहीं है। षड्यंत्र के केन्द्र बम्बई, पूना, अहमदनगर तथा ग्वालियर रहे हैं। यह बात भी असंदिग्ध रूप से उभरकर सामने आई है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ इससे कतई सम्बद्ध नहीं है। यह षड्यंत्र हिन्दू सभा के एक कट्टरपंथी समूह ने रचा था। यह भी स्पष्ट हो गया है कि मात्र 10 लोगों द्वारा रचा गया यह षड्यंत्र था और उन्होंने ही इसे पूरा किया। इनमें से दो को छोड़ सब पकड़े जा चुके हैं। इस पत्र व्यवहार से भी स्पष्ट है कि कांग्रेस का एक धड़ा लगातार पंडित नेहरू को संघ के विरोध में गलत सूचनाएं उपलब्ध करा रहा था। लेकिन वास्तविकता धीरे-धीरे स्पष्ट होती जा रही थी। 
            
महात्मा गांधी की हत्या से संबंधित संवेदनशील मामले को सुनवाई के लिए न्यायमूर्ति आत्मा चरण की विशेष अदालत को सौंपा गया। प्रकरण की सुनवाई के लिए 4 मई, 1948 को विशेष न्यायालय का गठन हुआ। 27 मई से मामले की सुनवाई शुरू हुई। सुनवाई लालकिले के सभागृह में शुरू हुई। यह खुली अदालत थी। सभागृह खचाखच भरा रहता था। 24 जून से 6 नवंबर तक गवाहियां चलीं। 1 से 30 दिसंबर तक बहस हुई और 10 जनवरी 49 को फैसला सुना दिया गया। सुनवाई के दौरान न्यायालय ने 149 गवाहों के बयान 326 पृष्ठों में दर्ज हुए। आठों अभियुक्तों ने लम्बे-लम्बे बयान दिए, जो 323 पृष्ठों में दर्ज हुए। 632 दस्तावेजी सबूत और 72 वस्तुगत साक्ष्य पेश किए गए। इन सबकी जांच की गई। 
 
न्यायाधीश महोदय ने अपना निर्णय 110 पृष्ठों में लिखा। नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे को मृत्युदंड की सजा सुनाई गई। शेष पाँच को आजन्म कारावास की सजा हुई। इस मामले में कांग्रेस और वामपंथियों ने अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी विनायक दामोदर सावरकर को भी फंसाने का प्रयास किया था। लेकिन उनका यह षड्यंत्र भी असफल रहा। न्यायालय से सावरकर को निर्दोष बरी किया गया। इसी फैसले में न्यायालय ने स्पष्ट तौर पर यह कहा कि महात्मा गांधी की हत्या से संघ का कोई लेना-देना नहीं है। स्पष्ट है कि उच्चतम न्यायालय के निर्णय के बाद बात यहीं खत्म हो जानी चाहिए थी। लेकिन, नहीं। न्यायालय के निर्णय से कांग्रेस और वामपंथी नेता संतुष्ट नहीं हुए। संघ विरोधी लगातार न्यायालय के प्रति असम्मान प्रदर्शित करते हुए गांधी हत्या के लिए संघ को बदनाम करते रहे। 
 
बाद में, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को दबाव या भरोसे में लेकर इस मामले को फिर से उखाड़ा गया। वर्ष 1965-66 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने गांधी हत्या का सच सामने लाने के लिए न्यायमूर्ति जीवनलाल कपूर की अध्यक्षता में कपूर आयोग का गठन किया। दरअसल, इस आयोग के गठन का उद्देश्य गांधी हत्या का सच सामने लाना नहीं था, अपितु संघ विरोधी एक बार फिर आरएसएस को फंसाने का प्रयास कर रहे थे। लेकिन इस बार भी उन्हें मुंह की खानी पड़ी। कपूर आयोग ने तकरीबन चार साल में 101 साक्ष्यों के बयान दर्ज किए तथा 407 दस्तावेजी सबूतों की छानबीन कर 1969 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। आयोग अपनी रिपोर्ट में असंदिग्ध घोषणा करता है कि महात्मा गांधी की जघन्य हत्या के लिए संघ को किसी प्रकार जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। (रिपोर्ट खंड 2 पृष्ठ 76)  
            
न्यायालय और आयोग के स्पष्ट निर्णयों के बाद भी आज तक संघ विरोधी गांधी हत्या के मामले में संघ को बदनाम करने से बाज नहीं आते। इस प्रकरण से यह भी स्पष्ट होता है कि संघ विरोधियों का भारतीय न्याय व्यवस्था, संविधान और इतिहास के प्रति क्या दृष्टिकोण है? जब यह मामला शीर्ष न्यायालय में पहुंच गया है तब न्यायालय को यह भी ध्यान देना चाहिए कि गांधी हत्या के लिए बार-बार संघ को जिम्मेदार बताने से न केवल एक संगठन पर कीचड़ उछाली जाती है, वरन भारतीय न्याय व्यवस्था के प्रति भी अविश्वास का वातावरण बनाया जाता है। 
 
उच्चतम न्यायालय के निर्णय के बाद भी संघ को गांधी हत्या के लिए आज तक जिम्मेदार बताना, न्यायपालिका के प्रति असम्मान प्रकट करता है। न्यायालय को इस संबंध में भी संज्ञान लेना चाहिए। बहरहाल, हमें इस सच को स्वीकार करना होगा कि गांधी हत्या में संघ को बार-बार इसलिए घसीटा जाता है ताकि सत्ताधीश और वामपंथी विचारक अपने निहित स्वार्थ पूरे कर सकें। संघ विरोधियों ने अब तक गांधी हत्या प्रकरण को राजनीतिक दुधारू गाय समझ रखा था। लेकिन उन्हें यह समझना चाहिए कि अब प्रोपेगंडा राजनीति का दौर बीत चुका है।  
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)
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