बुराइयों पर अच्छाइयों की जीत का पर्व विजयदशमी आज भी उतना ही तर्कसम्मत लगता है, जितना सदियों पूर्व था। या कहें कि आज के समाज में उभरी कलुषताओं को देखकर तो लगता है कि वर्तमान युग में रावण दहन और अधिक समीचीन हो गया है। इस रावण दहन से आम जनता के मन की क्रोधाग्नि को शायद कुछ ठंडक मिले। दुराचारी को अग्निदाह दे दिया भले ही प्रतीक रूप में ही सही। यह जानते हुए भी कि अगले वर्ष वह पुनः खड़ा होगा फिर भी मन में विजेता की अनुभूति हुई। काश कि दुराचारी को जला देने से दुराचार भी जल जाता। व्यभिचारी को दफ़न करने से व्यभिचार दफ़न हो जाता। कलुषित को डुबो देने से कलुषता भी डूब जाती। किन्तु प्रकृति के नियमों में केवल देह नश्वर है, विचार नहीं।
रावण तो अमर है, पुतले के रूप में भी और जीवंत रूप में भी। छोटे बड़े अनेक रावण हमारे बीच घूम रहे हैं जिनकी करतूतों की ख़बरें आए दिन अख़बारों में छप रही हैं। आप भी इस बात से सहमत होंगे कि अख़बारों के पन्नों में इनकी सुर्खियां सर्वाधिक होती हैं। अधिकांश तो ऐसे हैं जो राम के वेश में घूम रहे हैं। हालिया ख़बरों में हमने कई वहशी चेहरों को बेनकाब होते देखा है। दुराचार सामने आने के बाद, दुराचारी के बारे में पड़ोसियों से पूछो तो वे यही कहेंगे कि आदमी तो बहुत ही सज्जन था। मनुष्य हर बार मुखौटा देखकर भ्रमित हो जाता है क्योंकि मुखौटे के पीछे राम है या रावण, साधारण आदमी की सामान्य समझ से परे है।
यदि मात्र ज्ञान किसी को दुराचारी बनने से रोक सकता तो महापंडित रावण दुराचारी नहीं होता। यदि भक्ति, व्यभिचार करने से भक्त को रोकने में समर्थ होती तो अनेक पंडितों, पादरियों और मौलानाओं को हम बेनकाब होते नहीं देखते। यदि पराक्रम किसी को अहंकारी बनने से रोक सकता तो सम्राट अशोक को कलिंग युद्ध के पश्चात युद्ध के मैदान को देखकर विलाप नहीं करना पड़ता।
यदि प्रतिष्ठा आदमी के चरित्र को मर्यादित कर सकती तो समाज के तथाकथित प्रतिष्ठित व्यक्तियों को अपने पुराने छुपे हुए दुष्कर्मों के लिए इस तरह लांछित और अवमानित नहीं होना पड़ता। जरा सोचिए, यदि बेशुमार दौलत किसी धनपति को लोभ से संरक्षित कर सकती तो शायद धनपतियों को दीवाले निकालने की आवश्यकता नहीं होती। यदि हम मान भी लें कि पश्चिमी देश ज्ञान और विकास के पायदानों पर हमसे आगे हैं तब भी मनुष्य की वृत्तियां तो वहां भी ऐसी ही हैं। यानी सदियों पूर्व जिन वृत्तियों से दशानन दूषित था वे आज भी मनुष्य में जस की तस मौजूद हैं।
जाहिर है मनुष्य ने भौतिक विकास तो किया है किन्तु सभ्यता के विकास में हम या तो जड़ हो चुके हैं या फिर पीछे जा चुके हैं। कम से कम रावण ने अपने मुख पर कोई मुखौटा तो धारण नहीं किया था। वह तो सम्पूर्ण रूप से उजागर था, स्वघोषित था अपनी कलाओं के साथ भी और दोषों के साथ भी। किन्तु आज के रावणों ने अपने दोषों को छुपाने की कला जरूर सीख ली है। प्रकट व्यक्तित्व पर सदाचारी होने का आवरण है। जिव्हा पर मीठी वाणी है। आंखें निर्मोही हैं। हंसी में रावण का अट्टहास नहीं है किन्तु वे अपने चरित्र में कहीं भी रावण से कम नहीं। चरित्र है जो सामने दिखता नहीं और जो दिखता है वह आवरण में है।
अतः निष्कर्ष तो यही निकला कि ज्ञान, धर्म, पराक्रम, शौर्य, धन मनुष्य की वृत्तियों पर नियंत्रण नहीं रखते बल्कि और उन्हें उजागर ही करते हैं चाहें फिर वे सुकृत हों या विकृत। सदाचारी होने के लिए ज्ञान, धर्म या पराक्रमी होने की आवश्यकता नहीं। अपढ़, गंवार, गरीब व्यक्ति सामान्यतः अधिक सदाचारी होते हैं। हमारा सोच यह है कि सदाचारी होने के लिए मनुष्य को संस्कारी होना चाहिए और संस्कार किसी गुरुकुल में नहीं मिलते। वे अपने पारिवारिक वातावरण, संगति और समाज से मिलते हैं।
संस्कारों से ही मनुष्य का चरित्र बनता है। किन्तु इस आपाधापी की दुनिया में आज मनुष्य को संस्कारों को सीखने और समझने के लिए समय कहां है। ज्ञानार्जन की भी और धनार्जन की भी एक होड़ सी लगी है। यह होड़ पूरी तरह नकारात्मक भी नहीं है, भागना भी चाहिए किन्तु ध्यान मात्र इतना रखना होगा कि हमारे रामत्व में निहित शील और सौहार्द कहीं पीछे नहीं छूट जाए। उन्हें भी साथ लेकर दौड़ना होगा अन्यथा रावण तो हर नुक्कड़ पर बैठे हैं हमें अपना अनुगामी बनाने के लिए। हमारा आग्रह है कि समाज के सभी चिंतनशील लोग रामत्व और रावणत्व के इस युग युगीन संघर्ष पर पुनः चिंतन अवश्य करें यही दशहरा पर्व की सार्थकता है। इन्ही विचारों के साथ पाठकों को दशहरे की शुभकामनाएं।