प्राकृतिक संसाधन प्रकृति के हैं। वे सीमित हैं। उनका उत्पादन सीमित है। वह समय लेता है। एक एकाग्रता के दूसरे के साथ कम से कम स्थानीय स्तर पर अंतरसंबंध हैं। इनका प्राकृतिक क्षरण भी होता है व पुनर्स्थापन भी। कुछ नवीकरणीय वर्ग में आते हैं अतः संसाधनों की कीमत पैसों से नहीं लगाई जा सकती है।
एक बूंद पानी का भी प्रयोगशाला में निर्माण या अपनी ही बीमारियों का इलाज व उनका शुद्ध हवा-पानी-भोजन से संबंध हमको-आपको यह बताने में पर्याप्त होना चाहिए। किंतु ऐसा जानना, न जानना बराबर है, यदि हम प्राकृतिक संसाधनों पर गलत घातक प्राथमिकताओं के लिए उन पर हक जताने, उनके दोहन और उनको प्रदूषित करने से बाज नहीं आ रहे हैं।
यदि बेकार जल्दी से जल्दी प्रकृति चक्र में घुल-मिल जाएं तो घातक कूड़े-कचरे के रूप में उनकी समस्या बने रहने की संभावनाएं कम होंगी। किंतु यदि ये इतने प्रदूषित या विरूपित हों कि प्रकृति की आत्मशुद्धि की क्षमता पर भारी बोझ डाल दें तो क्या होगा? उसी प्रकार जिन जलस्रोतों को हमने-आपने सुखा दिया, यदि वे स्वयं पुनर्जीवित न हो सके तो क्या होगा? जो मिट्टी यदि बंजर बना दी गई है यदि वह पुन: उर्वरा न हो सके तो क्या होगा?
इसी प्रकार यदि हम अपनी कारगुजारियों से वायुमंडल में ऐसे प्रदूषित गैस, ठोस या द्रव्य पहुंचा दें कि प्रकृति चाहकर भी आपको सांस लेने लायक शुद्ध हवा न प्रदान कर सके तो क्या होगा? निस्संदेह आने वाली पीढ़ियों का जीवन दूभर हो जाएगा। वनस्पति और जीव-जंतुओं की कई प्रजातियां भी संकटग्रस्त या समाप्त भी हो जाएंगी।
प्रकृति के साथ ये बेरहम मनमानी इसलिए भी हो रही है, क्योंकि प्रकृति के विभिन्न तत्व जमीन, पानी या हवा के खंडों के या तो हम खरीदकर, पैसे देकर मालिक हो गए हैं या बतौर सरकारें कानूनी मालिक हो गए हैं। हम पृथ्वी के मेहमान हैं, उसके मालिक नहीं। हमारा भविष्य साझा है अत: कुछ प्राकृतिक धरोहरों की संपदा भी साझा मानी जानी चाहिए। इन धरोहरों पर बाहुबल, धनबल या ज्ञान व टेक्नोलॉजी के ताकतवरों को या इन तक पहले पहुंचने वालों को इनकी लूट-खसोट की छूट नहीं दी जा सकती है।
किंतु कटु यथार्थ यह है कि ऐसी लूट-खसोटों का डर सच होने लगा है। शायद यही कारण है कि विभिन्न देशों के बीच चांद, मंगल अंतरिक्ष या ध्रुवों जैसे स्थलों में पहले पहुंचने की होड़ लगी है। जो वहां पहुंच रहा है, वह चुनी हुई जगहों पर अपने झंडे गाड़ रहा है। बाद में पहुंचने वाले के लिए हो सकता है कि कई प्रकार के संसाधनों की कमी हो जाए।
अंतरिक्ष का ही उदाहरण लें लें। वहां उपग्रहों व उनके कूड़ों की खतरनाक भीड़ इतनी बढ़ गई है कि अब वहां पर उपग्रहों को स्थापित करने लिए उपयुक्त कक्षाओं का भी अकाल होने लगा है। भविष्य में यह शर्त भी हो सकती है कि अंतरिक्ष में वही देश उपग्रह स्थापित करे, जो अपने उपग्रहों को अनियंत्रित होने पर उन्हें वापस लाने या खत्म करने की भी क्षमता रखते हों। इससे टेक्नोलॉजी में पिछड़े देश अंतरिक्ष में पहुंचने में और ही पिछड़ सकते हैं।
ऐसा ही उद्योगों के संदर्भ में भी हुआ है। पहले मनचाहे ईंधन, मनचाहे रसायनों से तेज औद्योगिक विकास करने वालों ने वायुमंडल में इतना प्रदूषण फैला दिया कि बिना जलवायु परिवर्तन के गंभीर खतरों को बढ़ाए अब औद्योगिक विकास की राह पकड़ने वालों को मुश्किलें हो रही हैं। इसी को तो ऐतिहासिक प्रदूषण भार, जलवायु बदलाव की वार्ताओं में कहा जा रहा है और विकसित देशों से इसकी भरपाई करने की मांग की जा रही है। विकास के पारिस्थितिकीय नुकसान की भरपाई केवल पैसों के जुर्माने से ही नहीं बल्कि प्रकृति के प्राकृतिक संसाधनों में बढ़ोतरी व संरक्षण के ठोस कार्यों को करने की जिम्मेदारी देने से भी होनी चाहिए।
नीति आयोग जैसी संस्थाओं या परियोजनाओं के लिए दान-अनुदान या वित्त प्रदान करने वाली संस्थाओं को भी नियोजन में पर्यावरणीय लागत की बात उनके आवंटन की तथा नियमित अनुश्रवण की भी आख्या करनी चाहिए। साथ ही जिस तरह योजना पूरी करने में देरी से आर्थिक भार की विवेचना होती है, उसी तरह कार्ययोजना में देरी से पर्यावरणीय लागत पर असर का भी संदर्भ लिया जाना चाहिए।
राज्यों या देशों के बीच-बीच अपनी-अपनी विकास योजनाओं के लिए नदी जल बंटवारे को लेकर या उपलब्ध व आवश्यक जल मात्रा को लेकर होने वाले विमर्श या विवाद इसी विचार को पुष्ट करते हैं। वित्तीय आवंटन के साथ-साथ उस योजना के लिए उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों का आकलन उसके क्रम में पैदा हुए बेकारों के निष्पादन पर भी प्राथमिक नियोजन में भी ध्यान रखा जाना चाहिए। (सप्रेस)