केवल औपचारिकता ही रहा ओसाका का जी-20 सम्मेलन

शरद सिंगी
जी-20 देशों का सम्मेलन जापान के शहर ओसाका में पिछले दिनों संपन्न हुआ। जी-20 दुनिया के 20 महत्वपूर्ण देशों का ऐसा समूह है, जो विश्व की 66 प्रतिशत आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं और आधी पृथ्वी के मालिक हैं। इनके पास वैश्विक व्यापार का अस्सी प्रतिशत हिस्सा है जो विश्व की 90 प्रतिशत जीडीपी को प्रभावित करता है यानी यह संपन्न राष्ट्रों का एक शक्तिशाली समूह है।

इस समूह को बनाने का उद्देश्य यह था कि इन सक्षम राष्ट्रों के राष्ट्राध्यक्ष वर्ष में एक बार मिलकर विश्व के जटिल मसलों पर अपना दिमाग खपाएंगे और उनका कोई उचित निदान तलाशेंगे, ताकि विश्व की विभिन्न समस्याओं (जैसे गरीबी, अविकसित देशों में महिलाओं और बच्चों की दुरावस्था, पृथ्वी का जलवायु परिवर्तन, संक्रामक बिमारियां, शरणार्थी संकट आदि) का कोई व्यावहारिक और साझा हल ढूंढा जा सके, किंतु सच कहें तो ये समस्याएं कम तो नहीं हुई हैं अलबत्ता पिछले कुछ वर्षों में नई और पैदा हो गई हैं और इस वर्ष का सम्मेलन तो महज औपचारिकता से अधिक कुछ नहीं लगा।

इस बार के सम्मेलन में तो विभिन्न राष्ट्राध्यक्ष अपने घरेलू मुद्दों से ही इतने परेशान थे कि वे अधिकांश समय स्वयं अपनी ही समस्याओं का हल खोजने में लगे थे। ऐसे में दुनिया की चिंता क्या करते? सऊदी अरब के युवराज का ध्यान पूरी तरह ईरान की समस्या पर था जिस पर आरोप है कि उसने खाड़ी में उत्पात मचा रखा है। ट्रंप अपने ही देश के मीडिया को सफाई देते-देते थक चुके हैं किंतु रूस के साथ चुनावी सांठगांठ के आरोप उनका पीछा नहीं छोड़ते। फिर वे चाहे दुनिया में कहीं भी हों। इसलिए ध्यान बंटाने के लिए उन्होंने सम्मेलन में ईरान का मुद्दा सामने रखा और यूरोप को अमेरिका की तरह ईरान पर आर्थिक प्रतिबंधों की घोषणा करने की सलाह दे डाली। उन्होंने बीच सत्र में उत्तरी कोरिया जाने की घोषणा भी कर दी अर्थात मीडिया को मूल मुद्दों से भटका दिया।

जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल स्वयं अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं। उन्होंने तो पहले ही संन्यास लेने की घोषणा कर रखी है। अतः अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में उनकी भूमिका अब पहले जैसी दबंग महिला की नहीं रही। इंगलैंड की प्रधानमंत्री इसी माह अपने पद से बिदा हो सकती हैं, ब्रेक्सिट ने उनकी कुर्सी भी लगभग छीन ली है। अतः उनकी उपस्थिति मात्र एक औपचारिकता भर थी। तुर्की के अजेय माने जाने वाले राष्ट्रपति एर्दोगन को अपने ही अखाड़े में विपक्ष के एक नेता से चुनौती मिल चुकी है। उन्हें अपना किला ढहता नज़र आ रहा है। चूंकि वे अपने देश के प्रजातंत्र का रिकॉर्ड ख़राब कर चुके हैं, अतः विश्व मंच पर उनकी साख कम हो चुकी है।

फ्रांस और कनाडा के राष्ट्राध्यक्ष अपने शासन पर पकड़ ढीली कर चुके हैं और अगले चुनावों में उनकी वापसी असंभव लग रही है। चूंकि ये नेता अपने देश की समस्याएं ही नहीं सुलझा पा रहे हैं, अतः वैश्विक समस्याओं पर उनकी सलाह का कोई अर्थ नहीं रहता। चीन अमेरिका के साथ अपने व्यापार को लेकर पिछले कुछ महीनों से परेशानी में है, अतः उसका पूरा ध्यान उसी पर था कि किस तरह ट्रंप को घेरा जाए। चीन सफल भी हुआ और कुछ समय के लिए उसे अमेरिका से रियायत मिल गई।

चीन पर इस समय यह आरोप भी है कि वहां दस लाख उइगर मुस्लिम इस वक्त किसी न किसी तरह प्रताड़ित किए जा रहे हैं। दूसरा, चीन के अधीन हांगकांग में प्रजातंत्रवादियों का विरोध मुखर हो चुका है। इन समस्याओं पर चीन मीडिया से छुपता रहा, क्योंकि वह उसकी दुखती रग है। इस तरह सारे राष्ट्र एक-दूसरे के साथ अपनी-अपनी समस्याओं के हल करने में व्यस्त रहे, फिर जब कुछ समय मिला तो जी-20 के बड़े समूह में जो छोटे-छोटे समूह हैं उन्होंने अपनी वार्ताएं रखीं। उदाहरण के लिए भारत की एक मीटिंग ब्रिक्स देशों के समूह के साथ हुई। फिर जय (यानी अमेरिका, जापान और इंडिया) के साथ और बाद में तीसरे समूह रूस, चीन और भारत की मीटिंग हुई। इस तरह अलग-अलग समूहों में बैठकें चलती रहीं, जिनके अपने एजेंडे विश्व से अलग थे।

अब सोचिए यदि दो दिनों में इतना सबकुछ होना था तो इन विश्व नेताओं के पास विश्व की समस्याओं के लिए समय कहां था? ओसाका सम्‍मेलन ने नेताओं को एक मंच पर फोटो खिंचवाने का अवसर जरूर दिया। हाथ मिलाना, गले लगना, मुटि्ठयां जोड़ना इत्यादि ऐसे क्षण थे, जिन्होंने प्रेस को थोड़ा 'चारा' दिया गपशप करने के लिए अन्यथा कोई सकारात्मक रिपोर्ट करने के लिए वहां कुछ भी नहीं था। सच कहें तो विश्व की समस्याओं को अगले सम्मेलन की ओर धकेल दिया गया। अब फिर मिलेंगे अगले वर्ष सऊदी अरब के रियाद में। शायद वहां चर्चा के लिए बेहतर पृष्ठभूमि हो। 
 

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