गैर संवैधानिक हस्तक्षेप, लोकतंत्र और समाज

अनिल त्रिवेदी (एडवोकेट)
गुरुवार, 27 अक्टूबर 2022 (22:46 IST)
लोकतांत्रिक व्यवस्था और समाज सांविधानिक प्रक्रियाओं के साथ ही नागरिकों की तेजस्विता के अभाव में प्रभावी रूप से नहीं चल सकता। लोकतंत्र में सबसे बड़ी कमजोरी नागरिकों की तेजस्विता का अभाव और अनमनापन होता है। हमारे लोकतंत्र में लोगों में याचनाभाव का अतिशय विस्तार हुआ जिसके कारण भीड़तंत्र और भेड़चाल का उदय हुआ।
 
लोकतांत्रिक देश या समाज में नागरिकगण 24 घंटे 12 मास चौकस रहकर ही जीवंत लोकतंत्र बना सकते हैं। पूर्ण स्वराज का संकल्प लेने वाला समाज आज भीड़तंत्र और भेड़चाल से ग्रस्त हो गया है। भारतीय समाज और लोकतंत्र में गैर संवैधानिक शक्तियों की देश के कोने-कोने में प्राण-प्रतिष्ठा हो गई हैं। कार्यपालिका, विधायिका और नागरिकों के असंवैधानिक कार्यकलापों को तो न्यायपालिका के समक्ष ले जाकर न्याय पाया जा सकता है।
 
पर शक्तिशाली तबके के गैर संवैधानिक हस्तक्षेप से निपटने के लिए भारत के आम नागरिकों को अपने मानस में गहराई से जड़ जमा रहे अराजकतावादी भीडतंत्र और भेड़चाल को सोच-समझकर त्यागना चाहिए। नागरिकों के तेजस्वितापूर्ण चिंतन और कृतित्व के कारण ही भारत का संविधान भी नागरिकों के साथ खड़ा हो जाता है। भीड़तंत्र की भेड़चाल मूलत: गैर संवैधानिक हस्तक्षेप का अंतहीन सिलसिला है, जो संवैधानिक लोकतांत्रिक राज और समाज को भीरू और श्रीहीन बनाकर असहाय और लाचारीभरा जीवन जीने की दिशा में निरंतर धकेलता है।
 
राजनीति, अर्थव्यवस्था, समाज, धर्म, पुलिस प्रशासन और निर्वाचन प्रक्रिया को गैर संवैधानिक शक्तियों के सामने भारतीय नागरिक आत्मसमर्पण करते निरंतर देखता है तो वह सक्रिय नागरिकत्व की भूमिका त्याग देता है जिससे गैर संवैधानिक हस्तक्षेप की अनैतिक ताकत के सामने नतमस्तक होने वाले लोग अपने लोभ-लालचवश, अपनी गिरावट को निरापद या व्यावहारिक रास्ता मानने लगे हैं।
 
नागरिकों द्वारा अपनी नागरिक तेजस्विता के बड़े पैमाने पर विसर्जन से उपजीं परिस्थितियों के चलते लोकतांत्रिक व्यवस्था पर गैर संवैधानिक शक्तियों का वर्चस्व बढ़ा है। इसके कारण अधिकतर लोग गली-मोहल्ले से लेकर समूचे तंत्र में गैर संवैधानिक शक्तियों के दखल को नकारना ही भूल गए हैं।
 
भारतीय समाज विविध विचारों वाला समाज प्राचीनकाल से रहा है। व्यक्ति और समाज ने विवेकशीलता को अपना सहज स्वाभाविक विचार माना इसलिए हमारे आजादी के आंदोलन में सभी धाराओं को मानने वाले लोग लगातार आजादी के आंदोलन में भागीदारी सुनिश्चित कर लोगों को जागरूक करते रहे। पर आजादी पाने के बाद से हम सभी लोगों का व्यक्तिगत और सामूहिक आचरण लोकतंत्र की मजबूती के बजाय भीड़तंत्र को मजबूत करने वाली धारा में बिना सोचे-समझे बहने लगा।
 
भारतीय समाज को इस बात पर खुलकर चर्चा और विचार-विमर्श करना चाहिए कि आजाद भारत में लोकतंत्र के संस्कार क्योंकर कम होते जा रहे हैं? साथ ही यह भी समझने की निरंतर कोशिश करना चाहिए कि गैर संवैधानिक शक्तियों को भारतीय समाज और लोकतंत्र से विदा करने के तरीके क्यों नहीं विकसित हो रहे हैं?
 
लोकतांत्रिक व्यवस्था और समाज दोनों को ही निर्भय और निष्पक्ष होना चाहिए। लोकतांत्रिक व्यवस्था केवल अकेले चुनाव संपन्न होने तक ही सीमित नहीं है। लोकतांत्रिक समाज व्यवस्था का अर्थ है कि सबको इज्ज़त और सबको काम। भारतीय समाज में सब बराबर के भागीदार हैं। सब मिल-जुलकर ही भारतीय समाज और लोकतंत्र की रखवाली कर सकते हैं, क्योंकि भारतीय समाज और लोकतंत्र सभी का है किसी एक व्यक्ति, विचार या गैर संवैधानिक शक्तियों की मनमानी गतिविधियों की क्रीड़ास्थली नहीं।
 
भारतीय समाज और लोकतंत्र दोनों में केवल कमियां ही हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता। भारतीय समाज और लोकतंत्र में तमाम मतभिन्नताओं के बाद भी भारतीय समाज की वैचारिक जड़ें बहुत मजबूत होकर व्यापक दृष्टिकोण लिए हुए हैं। फिर भी आज के भारत में नागरिकों की तेजस्विता में कमी आना और भीड़तंत्र की गतिविधियों में तेजी आना काल की एक बड़ी चुनौती है।
 
आज आभासी भारत और सूचना प्रौद्योगिकी ने ऐसा वातावरण खड़ा किया है जिससे भारतीय समाज में ऐसे मुद्दे खड़े हो गए हैं, जो मानो भारत में अविवेकी समाज की रचना कर रहे हैं। आज के भारत और दुनिया में प्रत्यक्ष लोकसंपर्क लुप्तप्राय: हो गया है। आभासी गतिविधियों को ही जीवन, समाज और लोकतंत्र का पर्याय मानने की दिशा में हम सब निरंतर आंखें बंद कर बढ़ते ही जा रहे हैं।
 
यही वह बुनियादी सवाल है, जो आज हम सब से उत्तर मांग रहा है। गैर संवैधानिक शक्तियों और भीड़तंत्र से तेजस्वी नागरिकों वाला देश ही मनमानीपूर्ण राज और समाज व्यवस्था पर अंकुश लगाने की सांविधानिक क्षमता रखता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था का मतलब ही लोगों की ताकत से चलने वाली राज और समाज की व्यवस्था है।
 
सर्वप्रभुतासंपन्न भारतीय समाज और नागरिक अपने आप में विपन्न, लाचार और बेरोज़गार नहीं है। गैर संवैधानिक शक्तियों ने भारत की राजनीति और समाज को भीड़तंत्र में बदलने वाला जो रास्ता भारतभर में चुना है, वह गैर संवैधानिक शक्तियों की भारत के बारे में नासमझी ही मानी जाएगी। तभी तो गैर संवैधानिक शक्तियां भारत की विशाल लोकशक्ति को व्यक्तिश: और सामूहिक रूप से तेजस्वी व यशस्वी बनाने के बजाय खुद को शक्तिशाली और नागरिकों को शक्तिहीन बनाने के अप्राकृतिक रास्ते पर चल रहे हैं।
 
(इस लेख में व्यक्त विचार/ विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/ विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)

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