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सामाजिक क्रांति के अग्रदूत कबीर

कबीर जयंती (22 जून) पर विशेष

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डॉ. अशोक कुमार भार्गव

भारतीय चिंतन परंपरा में सामाजिक क्रांति के अग्रदूत कबीर का चिंतन सामाजिक जड़ता, अराजकता, जन्म के आधार पर भेदभाव, साम्प्रदायिकता, अस्पृश्यता और ऊंच-नीच जैसी अमानवीय व्यवस्था के खिलाफ शंखनाद है। वे ऐसे आदर्श मानवीय समाज की परिकल्पना करते हैं जहां सामाजिक समरसता पर आधारित मानवीय धर्म की प्रतिष्ठा हो।

कहा जाता है कि काशी में लहरतारा तालाब पर नीरू तथा नीमा नामक जुलाहा दंपति को एक नवजात शिशु अनाथ रूप में प्राप्त हुआ। इन दोनों ने  बालक का पालन-पोषण किया, जो संत कबीर के नाम से विख्यात हुए। निम्न और वंचित समझी जाने वाली जुलाहा जाति में पलकर भी तत्कालीन धर्म के दिग्गज पंडितों, मौलवियों को एक ही साथ फटकार सकने में समर्थ कबीर ने 'मसी' और 'कागद' न छूकर तथा कलम हाथ में न पकड़कर भी केवल अपने प्रामाणिक अनुभव के बल पर जो कुछ कहा, उसे सुनकर बड़ी-बड़ी पोथियों के अध्येता भी चकित रह गए।

मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के प्रणेता कबीर ने निराकार ब्रह्म के उपासक होकर भी अपने प्रियतम के वियोग में जो चिरंतन व्याकुलता प्रकट की वह किसी भी सगुणोपासक अथवा प्रेमोपासक की विकलता से कहीं अधिक मार्मिक तीव्र एवं गहन बन गई। संत कबीर का उद्भव जिन युगीन परिस्थितियों मे हुआ वे अत्यंत संकीर्ण, विषम और विसंगति पूर्ण थीं। उत्तर भारत में मुस्लिम साम्राज्य अपनी जड़ें पूरी तरह जमा चुका था। तुर्क, अफ़गान, खिलजी, तुगलक, सैयद लोदी वंश अपने-अपने काल में इन जड़ों को और गहरा बनाने में कामयाब रहे। हिंदुओं के छोटे-छोटे राज्य भी अब समाप्त हो चुके थे।

राजनीतिक दृष्टि से हिंदुओं में अब कोई शक्ति शेष नहीं थी। धार्मिक क्षेत्र में भी भेदभाव का साम्राज्य था। देश के पूर्वी भागों में वज्रयानी सिद्धों के तंत्र-मंत्रों का और पश्चिमी भाग में नाथ संप्रदाय के हठयोग का प्रभाव था। हिंदू धर्म वैष्णव, शैव और शाक्त संप्रदायों में विभक्त था और इन धर्म साधनाओं में परस्पर प्रबल विरोध और संघर्ष की स्थिति थी। हिंदुओं में मूर्ति पूजा प्रचलित थी।

एकेश्वरवादी इस्लाम मूर्ति पूजा विरोधी था। इस्लाम के साथ सत्ता थी उनमें ऊंच-नीच का भेद नहीं था। कुछ वर्गों में सांप्रदायिक कट्टरता एवं संकीर्णता पनप रही थी। समाज में धर्मगत, जातिगत, वर्णगत संप्रदाय गत विषमताएं विकट थीं। फलस्वरूप समाज का निम्न और अछूत वर्ग शोषण, उत्पीड़न, उपेक्षा, अपमान और सामाजिक धार्मिक निर्योग्यताओं का शिकार होने से इनमें आक्रोश, असंतोष और विक्षोभ प्रबल हो रहा था।

ऐसी विषम स्थिति में कबीर की क्रांत दर्शिता विभिन्न मतवादों को समन्वित कर 'सूप' का स्वभाव लेकर उभरी जो किसी भी मत और संप्रदाय के 'थोथे' तत्व को उड़ा सकने एवं उसके सार तत्व को ग्रहण कर सकने में समर्थ है। यही कारण है कि उनकी बानियां लोक मंगल की भावना से प्रेरित लोक मंगल की साधना को समर्पित है। कबीर का चिंतन आचरण शुद्धि, लोक कल्याण, सांप्रदायिक सद्भाव तथा दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन पर केंद्रित है।

कबीर ने तत्कालीन समाज में फैले कर्मकांडों, पाखंडों, जातिगत भेदभावों अंधविश्वासों, बाह्यचारों और सामंती व्यवस्था की खुलकर आलोचना की। हिंदू हो या मुसलमान, पंडित हो या मौलवी सबको समान रूप से फटकार लगाई। कबीर ने मुसलमान की हिंसात्मक प्रवृत्ति की निंदा की। मूर्ति पूजा का खंडन किया। हिंदुओं को मुसलमान बनाने के विरुद्ध बगावत की।माला जपने, जप-तप करने, व्रत रखने, रोजे रखने, मस्जिद में बांग लगाने आदि अनेक पाखंडों की आलोचना की। कबीर ने 'जाति-पांति पूछे नहि कोई। हरि को भजै सो हरि को होई' कहकर समाज को एक नई दिशा दी।

कबीर की कटु आलोचनाओं से समाज के ठेकेदारों के निहित स्वार्थ जब प्रभावित होने लगे तो इन्होंने बादशाह सिकंदर लोदी से शिकायत की। काजियों ने कहा कि कबीर लोगों को इस्लाम के विरुद्ध नसीहत देते हैं, जिससे मुसलमान हिंदुओं की तरह ध्यान और भजन करने लगे हैं। पंडितों ने कहा कि कबीर परंपरा से चले आ रहे धार्मिक और सामाजिक नियमों का खंडन करते हैं। लोगों को ऐसे मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं जिसे न हिंदू कहा जा सकता है, न मुसलमान। बादशाह ने कबीर को ऐसा न करने का आदेश दिया। किंतु कबीर झुके नहीं और निर्भय होकर कहा कि पारस्परिक मतभेदों में समन्वय कर यदि जीवन को सार्थक बनाने योग्य समता मूलक सच्चे सिद्धांतों पर अमल किया जाए तो इसमें क्या दोष है? धर्म के ठेकेदारों को यह मंजूर नहीं था।

बादशाह भी स्वयं मुसलमान था उसने तलवार के जोर से इस्लाम का प्रचार किया। इसलिए बादशाह ने कबीर को मृत्युदंड दिया। कबीर पंथियों का मत है कि लोदी ने अनेक प्रकार के उपायों से कबीर को मरवाने की कोशिश की, किंतु किसी दैवी शक्ति या चमत्कार से कबीर का कुछ नहीं हुआ। अंततः कबीर के अलौकिक व्यक्तित्व के समक्ष सिकंदर लोदी नतमस्तक हुआ और कबीर को स्वतंत्र कर दिया।

एक बार कबीर को बादशाह को सलाम अदा करने के लिए कहा, तब कबीर ने उत्तर दिया 'एक परमात्मा के सिवाए मालिके मखलूक और कोई नहीं। मैं उसी को सलाम करता हूं, मिट्टी से बने किसी इंसान को नहीं। कबीर के इस प्रबल आत्मविश्वास और निर्भयता के पीछे उनके अनुभव की प्रामाणिकता, ईमानदारी, सच्चाई और नैतिकता कार्य कर रही थी। खरी-खरी सुनाने का अद्भुत साहस कोई खरी अनुभूति वाला व्यक्ति ही कर सकता है। कबीर अशिक्षित थे सहज, सरल सबके लिए सुलभ थे। उन्होंने जिंदगी की पोथी को खुली आंखों से पढ़ा था। वे प्रेम के एक अक्षर को पढ़कर ही पंडित हो गए थे। उनकी भक्ति में ज्ञान, योग और प्रेम का अद्भुत समन्वय है।

ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं और गुरु के बिना ज्ञान नहीं। कबीर स्वामी रामानंद से गुरु दीक्षा के अभिलाषी थे, किंतु शास्त्रानुसार जुलाहे कबीर पात्र नहीं थे। स्वामी रामानंद ने विवशता बताई और कबीर के स्पर्श के कारण दुबारा गंगा स्नान करने को कहा। तब कबीर ने टूटे हुए हृदय से कहा, आपकी पवित्रता मुझे  पावन न बना सकी, किंतु मेरी अपावनता ने आपको पुनः स्नान के लिए बाध्य कर दिया। सुना था देवता के स्पर्श से पापी तक पावन हो जाते हैं किंतु आज एक देवता मनुष्य को छूकर अपावन हो गया। स्वामी रामानंद ने कबीर के कथन में निहित सत्य को अनुभूत किया और बाद में कबीर को अपने आश्रम ले आए। कबीर ने सदैव शारीरिक श्रम की महत्ता को स्वीकार किया और आजीवन जुलाहे कर्म का निष्ठा से पालन किया।

कबीर की मृत्यु पूर्व की सूचना पर उनके हजारों हिंदू-मुस्लिम भक्त एकत्र हो गए। हिंदू उनका दाह संस्कार करना चाहते थे और मुसलमान दफन। किंतु कबीर जो जीवनभर सांप्रदायिक सद्भाव और एकता के लिए संकल्पित रहे, उनका यह विश्वास टूटने पर अलौकिक शक्ति से अपने शव को अदृश्‍य कर दिया और उस स्थान पर कुछ पुष्प बिखरे रह गए। आधे पुष्प हिंदुओं ने लेकर दाह संस्कार कर समाधि बना दी, मुसलमानों ने आधे पुष्प दफन कर मकबरा बना दिया।

वस्तुतः कबीर हिंदू के भी थे और मुसलमान के भी। वे दोनों को जोड़कर एक मानव संस्कृति के निर्माण की आधारशिला रख रहे थे। अपने सिद्धांतों के लिए जीने, मरने वाले कबीर न किसी जाति में पैदा हुए और न किसी धर्म में मरे, जो एकसाथ कब्र में दफन और समाधि में समाधिस्थ भी।

निःसंदेह कबीर साधना के क्षेत्र में युग गुरु और साहित्य के क्षेत्र में युग दृष्टा हैं। उनकी साधना वैयक्तिक और आध्यात्मिक होते हुए भी समष्टिपरक है। वे ऐसे सर्जक हैं, जो परंपरा को तोड़ते ही नहीं बल्कि अपनी समकालीनता से उसे नए अर्थ भी देते हैं। कबीर में परंपरा के प्रति निरर्थक मोह नहीं है। वे आत्मा-परमात्मा का रहस्य बतलाते हुए कहते हैं कि आप सब अपने दिलों से हिंदू-मुसलमान, ऊंच-नीच, अमीर-गरीब और छोटे-बड़े का भेदभाव मिटा दो। हम सब एक ही राम-रहीम के बंदे हैं। आपस में सद्भाव से मिलजुलकर प्रेम से रहते हुए ईश्वर की भक्ति कर नेक जिंदगी जिएं। यही मेरा संदेश और मजहब है।

एक दिन कबीर ने पुत्र कमाल को कहा, मुझे मगहर पहुंचा दो। मैं काशी में मरना नहीं चाहता। कमाल ने आश्चर्य से कहा कि अब्बा, लोग तो दूर-दूर से मरने के लिए काशी में आते हैं और आप काशी छोड़कर मगहर जाना चाहते हैं। सुना है काशी में मरने पर स्वर्ग मिलता है और मगहर में मरने पर नरक। कबीर ने हंसते हुए कहा कि मैं इसी भ्रम को तोड़ना चाहता हूं। वैसे न मैं स्वर्ग में विश्वास करता हूं, न नरक में। स्वर्ग और नरक मन का भ्रम हैं। कर्मों की पवित्रता, नैतिकता से मिलने वाली आत्मशांति स्वर्ग है और पाप कर्मों से मिलने वाली यातना नरक। मुझे अपने कर्मों की पवित्रता पर विश्वास है। मैं मगहर में मरकर भी स्वर्ग ले लूंगा और कबीर ने मगहर में अपना पार्थिव शरीर छोड़ दिया।

नि:संदेह साहित्य और धर्म के क्षेत्र में एक नवीन क्रांति के जनक कबीर भौतिक रूप से हमारे मध्य नहीं है, किंतु मानवता को हर प्रकार के बंधनों से मुक्त कर अखंड आनंद की प्राप्ति कराने वाला उनका समग्र सृजन, साखियां, बानियां, उलटबासियां, दोहे, बीजक आदि साहित्य प्रगतिशील समाज के लिए प्रेरणा की अमूल्य धरोहर हैं, जिनका आध्यात्मिक रहस्य दुनिया के किसी भी धर्म ग्रंथ से कमतर नहीं है। (लेखक मोटिवेशनल स्पीकर, स्वतंत्र लेखक एवं पूर्व आईएएस हैं।)

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