हिंसा से सुलगते जम्मू-कश्मीर के हालात लगातार बद से बदतर होते जा रहे हैं। राज्य के हालात की वजह से बीजेपी-पीडीपी गठबंधन के बीच बढ़ती दरार से यह प्रतीत हो रहा है कि जम्मू-कश्मीर राष्ट्रपति शासन की ओर बढ़ रहा है? कहा जा रहा है कि बीजेपी हाईकमान राज्य में राष्ट्रपति शासन पर जल्द फैसला ले सकती है। बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह 29 और 30 अप्रैल को राज्य का दौरा करने वाले हैं। माना जा रहा है कि इस दौरे के बाद महबूबा सरकार का नसीब तय होगा।
बीजेपी के कुछ लोग मानते हैं कि महबूबा सरकार अलगाववादी हिंसा से निपटने में नाकाम रही है। पार्टी के रणनीतिकार भी पीडीपी के साथ रिश्तों में बढ़ती खटास से भी ज्यादा खुश नहीं हैं। महबूबा सरकार पर आरोप है कि वह न्यूनतम साझा कार्यक्रम पर काम नहीं कर रही है। बताते हैं कि दोनों पार्टियों ने जो ‘गठबंधन का एजेंडा’ जारी किया था उसमें राज्य के सभी समूहों से संवाद करने, उनका भरोसा जीतने और टिकाऊ शांति के लिए हरसंभव प्रयास करने की बात कही गई थी, पर ‘एजेंडे’ की दिशा में कुछ करना तो दूर, राज्य सरकार कानून-व्यवस्था बहाल रखने में भी अक्षम साबित हो रही है। हालात बेहद त्रासद हैं।
पुलवामा में विद्यार्थियों पर की गई कथित दमनात्मक कार्रवाई पर विरोध जताने के लिए पिछले दिनों पूरी घाटी में छात्र-छात्राएं सड़कों पर उतर आए। सुरक्षाबलों पर पत्थर फेंके जाने तथा सुरक्षाबलों के बल प्रयोग का दायरा कुछ दिनों में बढ़ता ही गया है। इस सारे परिदृश्य में एक तरफ सुरक्षाबल हैं और दूसरी तरफ घाटी के नाराज युवा। एक तरफ बल प्रयोग की मशीनरी है और दूसरी तरफ व्यवस्था से मोहभंग। हो सकता है सीधे-सादे लोगों को बहकाने या भड़काने वाले शरारती तत्व तथा षड्यंत्रकारी भी सक्रिय हों, पर सवाल है कि वह राजनीतिक नेतृत्व कहां है जो उबाल को शांत कर शांति का रास्ता निकाल सके?
राज्य में सत्ताधारी गठबंधन में कलह की एक नजीर पिछले दिनों तब सामने आई जब पीडीपी विधायकों और मंत्रियों विधान परिषद् के नए सदस्यतों ने शपथ ग्रहण समारोह का बहिष्कार किया। 21 अप्रैल को दोनों पार्टियों में बैठकों का दौर चलता रहा। बीजेपी के राष्ट्रीय महासचिव और जम्मू-कश्मीर मामलों के प्रभारी राम माधव ने राज्य के वित्तमंत्री और पीडीपी के सीनियर नेता हसीब द्राबू से मुलाकात की। द्राबू ने बीजेपी नेता चंद्रप्रकाश गंगा के उस बयान की आलोचना की जिसमें उन्होंने पत्थरबाजों को गोली से जवाब देने की बात कही थी। उन्होंने एमएलसी चुनाव में पीडीपी उम्मीदवार अब्दुल कयूम की हार का मुद्दा भी उठाया। कयूम बीजेपी के असर वाली जम्मू सीट से प्रत्याशी थे। लेकिन फिर भी महज एक वोट से हार गए थे।
हालांकि घाटी में हिंसा का दौर पिछले साल जुलाई से ही चल रहा है जब बुरहान वानी को मारा गया था, पर इन दिनों वहां कानून-व्यवस्था की हालत जितनी खराब है उतनी हाल के इतिहास में शायद ही कभी रही हो। इस स्थिति के बाबत पीडीपी-भाजपा की सरकार अपनी जवाबदेही से पल्ला नहीं झाड़ सकती। जब पीडीपी और भाजपा का गठबंधन हुआ तो उसे बहुत-से लोगों ने दो बेमेल पार्टियों का मिलन कहा था, पर ऐसे भी लोगों की कमी नहीं थी जो इस विरोधाभासी गठबंधन में नई आशा, नई शुरुआत की संभावना देखते थे। उन्हें लगता था कि यह गठबंधन जम्मू और घाटी के बीच की मनोवैज्ञानिक खाई को पाटने का काम करेगा और साथ ही सांप्रदायिक सौहार्द का संदेशवाहक साबित होगा, पर वह उम्मीद धूमिल हो गई जान पड़ती है। जम्मू के लोगों ने भाजपा पर भरोसा जताया था तो घाटी के लोगों ने पीडीपी पर। दोनों पार्टियों का गठबंधन तो हुआ, पर इससे जिस नई शुरुआत की आस जोड़ी गई थी उसकी चिंदियां बिखर गई हैं।
आपको बता दें कि बुरहान वानी के एनकाउंटर को लेकर हुए हिंसक प्रदर्शनों के बाद हाल में चुनावों के दौरान भी बड़े पैमाने पर हिंसा हुई थी। अब खबरें हैं कि बहुत सारे युवा दक्षिणी कश्मीर के शोपियां जिले में सड़कों पर हथियारों के साथ घूम रहे हैं। ये वे लोग हैं, जिन्हें अब राज्य की शासन-व्यवस्था पर भरोसा नहीं रहा। सुरक्षाकर्मी इनसे निपटने में खासी सावधानी बरत रहे हैं क्योंकि इन्हें स्थानीय लोगों का समर्थन हासिल है। बताते हैं कि ये युवक शोपियां, कुलगाम, पुलवामा और अवंतीपोरा में खुलेआम घूम रहे हैं। उच्च पदस्थ सूत्रों के मुताबिक, ये युवा लश्कर और हिजबुल जैसे आतंकी संगठनों से जुड़े हुए हो सकते हैं। बता दें कि बीते साल आठ जुलाई को बुरहान वानी के खात्मे के बाद घाटी के 200 से ज्यादा युवा कथित आतंकी संगठनों में शामिल हो चुके हैं। जम्मू कश्मीर की पुलिस पूरे मामले पर चुप्पी बरते हुए है। पुलिस का सिर्फ यही कहना है कि वह लापता युवाओं के बारे में पता लगा रही है।
जानकारों का कहना है कि इन युवाओं को सबसे बड़ा फायदा इस बात का मिल रहा है कि इन्हें दक्षिणी कश्मीर के इलाके में अच्छा-खासा जनसमर्थन हासिल है। स्थानीय लोग इन्हें खाना और आसरा देते हैं। एनकाउंटर वाली जगहों पर पथराव और प्रदर्शन की बढ़ती घटनाओं से इन्हें मिल रहे समर्थन की बात साबित होती है। ऐसी कई घटनाएं हुईं, जब स्थानीय लोगों ने सुरक्षा घेरा तोड़ने की कोशिश की। वहीं पुलिस सूत्रों का कहना है कि ये लोग छोटी-छोटी तादाद में एक जगह जुटकर लोगों को संबोधित कर रहे हैं। लोगों से 'आंदोलन के प्रति वफादार' होने की अपील की जा रही है। एक बड़े पुलिस अफसर ने माना कि दक्षिण कश्मीर में हालात बेहद खराब हैं। उन्होंने कहा कि अब ऐक्शन लेने का वक्त आ गया है। 90 के दशक से आज के हालात की तुलना की जाए तो आतंकवाद से जुड़ने वाले लोगों की वैचारिक धारणा पहले के मुकाबले ज्यादा मजबूत है। आतंकी और हुर्रियत नेता इन लोगों को बरगला रहे हैं और इनका सिस्टम पर से विश्वास खत्म हो रहा है। इसके अलावा, सोशल मीडिया के जरिए भी युवाओं को आतंकवाद से जुड़ने के लिए लुभाया जा रहा है।
कुछ दिन पहले प्रधानमंत्री घाटी के दौरे पर गए थे और उन्होंने वहां वाजपेयी के ‘इंसानियत, कश्मीरियत और जम्हूरियत’ के सूत्र को दोहराया। पर इस दिशा में कोई ठोस पहल न होने से वह एक कोरा जुमला होकर रह गया है। राजनीतिक दूरंदेशी के अभाव में हो बस यह रहा है कि संकट से जूझने के लिए सेना की तैनाती और बढ़ा दी जाती है। पर एक असामान्य स्थिति से निपटने का उपाय स्थाई नहीं हो सकता। श्रीनगर लोकसभा सीट के लिए हुए उपचुनाव में सिर्फ सात प्रतिशत मतदान हुआ। यह दो बातों की तरफ इशारा करता है।
एक यह कि इतना डरावना माहौल है कि लोग वोट डालने नहीं गए। दूसरे, यह कि लोगों ने मतदान का बहिष्कार कर अपने गुस्से का इजहार किया। सुरक्षाबल उपद्रव और विघ्न से निपटने की ही भूमिका निभा सकते हैं। वे लोकतांत्रिक प्रक्रिया में जनभागीदारी का जरिया नहीं बन सकते। इसलिए राजनीतिक नेतृत्व को घाटी के हालात की बाबत सुरक्षाबलों की भूमिका से आगे जाकर भी सोचना होगा। बहरहाल, कहा जा रहा है कि जिस प्रकार तेजी से कश्मीर के हालात बिगड़ रहे हैं, उससे यह प्रतीत हो रहा है कि बहुत जल्द वहां राष्ट्रपति शासन लग सकता है। कारण स्पष्ट है कि भाजपा-पीडीपी के गठबंधन की गांठ अब ढीली हो चुकी है। खैर, देखना है कि क्या होता है?