Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
webdunia
Advertiesment

क्या असली लड़ाई अब इस्लाम और ईसाइयत के बीच है?

हमें फॉलो करें क्या असली लड़ाई अब इस्लाम और ईसाइयत के बीच है?
webdunia

राम यादव

, रविवार, 2 अक्टूबर 2022 (07:30 IST)
स्तेफ़ान वाइडनर के अनुसार, जिन देशों को आज हम 'पश्चिम' कहते हैं, उनकी आरंभ में ऐसी राजनीतिक व्यवस्थाओं के रूप में परिकल्पना की गई थी, जहां स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे का राज होगा। 18वीं सदी के अंत में साढ़े 10 वर्षों तक चली फ्रांसीसी क्रांति ने 'पश्चिम' को यही तीन आदर्श दिए थे। स्तेफ़ान वाइडनर इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि फ्रांसीसी क्रांति के इन आदर्शों में से अब केवल 'स्वतंत्रता' वाला आदर्श ही शेष बचा है –– आर्थिक कारोबार की स्वतंत्रता; यानी जो जैसे चाहे वैसे पैसा बनाए।

'समानता' का अब कोई ख़ास महत्व नहीं रहा और 'भाईचारा' क्या है, इसे हम जानते ही नहीं। फ्रैंसिस फ़ुकुयामा कहते हैं कि लोगों का मुख्य प्रयास दूसरों के साथ होड़ में अपनी महत्वाकांक्षाएं साकार करना होता है। यही प्रतिस्पर्धात्मक पूंजीवाद है। इसके लिए यह वांछित नहीं है कि लोगों के बीच बहुत ज़्यादा समानता हो। समानता होगी, तो प्रतिस्पर्धा की भावना घटेगी।' 
 
इस्लाम का 'पश्चिमीकरण' हो गया है : तो, इसका क्या यह अर्थ लगाया जाए कि असली लड़ाई अब इस्लाम और ईसाइयत के बीच नहीं, अपितु दो राजनीतिक प्रणालियों के बीच है? स्तेफ़ान वाइडनर ऐसा नहीं मानते। कहते हैं, 'क्लासिकल इस्लाम, इब्न अराबी वाला इस्लाम तो अब है ही नहीं। आज हम जिस इस्लाम को पाते हैं, वह धर्म नहीं एक राजनीतिक विचारधारा है। दुनिया के प्रति उसका दृष्टिकोण बहुत आधुनिक है। वह कम्युनिज़्म के साथ, पूंजीवाद के साथ प्रतिस्पर्धा करना चाहता है। मेरी नज़र में उसका इस बीच 'पश्चिमीकरण' हो गया है। वह पश्चिम में 20वीं सदी वाले फ़ासीवाद और साम्यवाद से प्रभावित है।'
 
वाइडनर इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि आज के इस्लाम, और साम्यवाद या फ़ासीवाद के बीच – किसी पारंपरिक धर्म या स्वयं पारंपरिक इस्लाम की अपेक्षा– कहीं अधिक समानता है। हमें इस सब से उबरना होगा। हमें विचारधारा-पश्चात के एक ऐसे युग में पहुंचना होगा, जिसमें विभिन्न सामाजिक मॉडलों के लिए कहीं अधिक खुलापन हो। उसमें इस्लाम का रहस्यवादी सूफ़ी मॉडल – इब्न अराबी जिसके प्रतिनिधि थे – एक अग्रगामी मॉडल हो सकता है, हालांकि उसे इतनी सरलता से पुनर्जीवित भी नहीं किया जा सकता।' 
 
पश्चिम की श्रेष्ठता का युग बीत गया है : वाइडनर का यह भी कहना है कि 'पश्चिम की श्रेष्ठता का युग बीत गया है। अब ज़रूरत है एक नए विश्व राजनीतिक (कॉस्मोपोलिटकल) चिंतन की।' दूसरी ओर, हम देखते हैं कि पश्चिम अपनी सारी शक्ति लगाकर दुनिया में अपना वर्चस्व बनाए रखना चाहता है। वाइडनर का कहना है, 'यदि हम उन लोगों से बात करें, जो यूरोप या अमेरिका में नहीं रहते, तो पाएंगे कि शायद ही कोई मानेगा कि पश्चिम के पास उन समस्याओं के समाधान हैं, जो आज हमारे सामने खड़ी हैं।'
 
'लोग भले ही मानवाधिकारों, निजी स्वतंत्रताओं और आत्मनिर्णय के अधिकार जैसे पश्चिमी आदर्शों के कायल हों, तब भी यही कहेंगे कि क्या पश्चिम इनका विश्वसनीय ढंग से प्रतिनिधित्व कर सकता है? कम से कम इन आदर्शों के प्रसंग में पश्चिम का दबदबा अब नहीं रहा। पश्चिम के ही प्रयासों से आज पूरी दुनिया राष्ट्र-राज्य वाले उस सिद्धांत के अनुसार गठित है, जो कि फ्रांसीसी क्रांति की दी हुई एक अवधारणा है। उसे साकार करने में यूरोप में भी काफ़ी समय लगा था। लेकिन आज हम देख रहे हैं कि राष्ट्र-राज्य, नागरिकों के प्रति अपने दायित्वों का निर्वाह नहीं कर पा रहे हैं। जर्मनी और यूरोप के कुछेक देशों को छोड़ दें, तो दूसरे बहुतेरे देशों में ऐसा ही है। यानी, राष्ट्र-राज्य वाली पश्चिम की अवधारणा अपनी विश्वसनीयता खो बैठी है।'
 
विश्व राजनीतिक चिंतन की वाइडनर की परिकल्पना, उनके शब्दों में 'वह वैश्विकतावाद (यूनिवर्सलिज़्म) नहीं है, जो लंबे समय तक हमारी दिशा तय करता रहा है। वैश्विकतावाद का अर्थ था कि जिसे हम सही मानते हैं, उसे पूरे विश्व तक विस्तारित कर दें। सारी दुनिया हमारे जैसी ही हो। यह काम नहीं करता। सारी दुनिया किसी एक ही सांचे में ढल नहीं सकती। इसका विलोम है सापेक्षवाद (रिलेटिविज़्म)। यानी, हर कोई अपने मन की करे। हमें इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ना चाहिए कि दूसरे क्या कर रहे हैं। यह भी कोई समाधान नहीं है। न तो वैश्विकतावाद कोई समाधान है और न सापेक्षवाद।'
 
हमें चाहिए एक साझा कथानक : तो फिर, समाधान क्या है? 'यह कि हम एक ही दुनिया में रहते हैं, पर हम भिन्न-भिन्न हैं। हमें यह भिन्नता स्वीकार करनी होगी, भले ही हम हर बेतुकापन स्वीकार नहीं कर सकते। प्रश्न यह है कि अपने आधारभूत विश्वासों के लिए एक सर्वसम्मत विमर्श,एक ऐसा साझा कथानक हम कैसे पाए, जो इस भिन्नता को बनाए रखे। जो सभी को स्वीकार्य हो और साथ ही विभिन्नता के लिए पर्याप्त जगह भी दे। हमें एक ऐसे विश्व की परिकल्पना करनी होगी, जिसमें धर्मों-पंथों के लिए भी स्थान हो, क्योंकि सभी धर्मों-पंथों में कुछेक उपयोगी सारतत्व भी मिलते हैं। हमें यह नहीं कहना चाहिए कि सभी धार्मिक लोग बेवकूफ़ हैं या धर्म-कर्म उनका केवल निजी मामला होना चाहिए। ऐसा कहने पर हम विश्व के उन कम से कम तीन-चौथाई लोगों को खो बैठेंगे, जो धार्मिक हैं। हमें एक ऐसा विश्व दर्शन पाना होगा, जो धर्मनिरपेक्षों और नास्तिकों की उन लोगों साथ पटरी बैठा सके, जो आस्तिक हैं, ईश्वर को मानते हैं।'    
 
स्तेफ़ान वाइडनर के शब्दों में, 'इस्लामी जगत के बारे में पश्चिम की एक प्रमुख आलोचना यह रही है कि उसके इतिहास में वैसा कोई 'ज्ञानोदयकाल' (एनलाइटनमेंट पीरियड) नहीं रहा है, जैसा ईसाइयत के इतिहास में रहा है। इस्लाम में कई मौलिक मानवाधिकारों के लिए भी जगह नहीं है।'
 
वाइडनर भी इस कमी को एक गंभीर समस्या के रूप में देखते हैं। कहते हैं, 'इस्लामी जगत ने निसंदेह वैसा कोई 'ज्ञानोदयकाल' नहीं देखा है, जैसा पश्चिम ने देखा है। धार्मिक रूढ़ियों से ऊपर उठने का 'ज्ञानोदयकाल' यूरोपीय परिस्थितियों की एक विशिष्ट देन रहा है। जबकि इस्लामी जगत आज भी इस पीड़ा को झेल रहा है कि वह 'राष्ट्र-राज्य' वाले सिद्धांत के अनुसार गठित तो है, पर शरियत से जुड़ी बहुत-सी पुरानी रूढ़ियों को छोड़ नहीं पा रहा है। शरियत और 'राष्ट्र-राज्य' का एक-दूसरे से मेल नहीं बैठता। दोनों साथ-साथ नहीं चल सकते। 'राष्ट्र-राज्य' अपने क़ानून स्वयं बनाता है। लेकिन, जब ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि देश में पहले से ही 'ईश्वरीय शरिया' नाम का एक क़ानून है, तब 'राष्ट्र-राज्य' असहाय हो जाता है।'
webdunia
Mahatma Gandhi
'राष्ट्रराज्य' और शरियत : वाइडनर का मानना है कि 'राष्ट्रराज्य' और शरियत को मिला देने पर 'एक बहुत ही अशुभ सर्वसत्तातमक मिश्रण बनेगा। 'राष्ट्र-राज्यों' के बनने से पहले वहां शरियत होने से इस्लामी जगत में उस समय के शासकों की ज़्यादतियों से – चाहे वह राजा रहा हो, तानाशाह रहा हो या विजेता रहा हो – जनता को सुरक्षा मिलती थी। सत्ता चाहे जिसकी रही हो, शरियत का पालन होता था। सत्ताधारी यदि ज़बर्दस्ती शरियत को दरक़िनार करता था, तब भी सबको यह आभास रहता था कि यहां अन्याय हुआ है, इसका प्रतिरोध होना चाहिए। शरियत के बारे में आज हम चाहे जो कहें, वह अपने समय के क़ानूनी अधिकार की, और सबको उसके अनुसार न्याय मिलने की गारंटी था। लोग उस पर भरोसा कर सकते थे। आज के इस्लामी 'राष्ट्र-राज्यों' में ऐसा नहीं है। शरियत व 'राष्ट्र-राज्य' एकसाथ चल नहीं पा रहे हैं। इसलिए या तो शरियत का अंत होना चाहिए या फिर इस्लामी 'राष्ट्र-राज्यों' का।' 
 
वाइडनर अपने विश्लेषण में पश्चिम को भी नहीं बख़्शते। उनका मानना है कि पश्चिम ने वैश्विकतावाद की जो अवधारणा दी, वह भी इस बीच बदनाम हो चुकी है। इस अवधारणा ने विश्व पर पश्चिम के वर्चस्व को ही पोषित किया है। हम देख रहे हैं कि 'पश्चिम के इस वर्चस्व ने राजनीतिक और आर्थिक से लेकर जलवायु और पर्यावरण संकट जैसी विश्व में अनेक समस्याएं पैदा कर दी हैं। पश्चिम अपनी आध्यात्मिकता को, अपनी अंतर्ज्ञानक्षमता को खो बैठा है।'
 
पुण्यप्राप्ति के वादों से विदा लेनी होगी : वाइडनर साथ ही इस बात को भी रेखांकित करते हैं कि 'हम यह मानकर नहीं चल सकते कि राजनीति, तकनीक, अर्थतंत्र या हमारा जागतिक दर्शन हमारी दुनिया में पड़ गई दरारों को मिटा देंगे। हमें इहलोक में ही पुण्यप्राप्ति के बड़बोले वादों से विदा लेनी होगी। मैं यह भी नहीं मानता कि हमारा कोई धर्म होना अनिवार्य है। किसी ऐसी आध्यात्मिकता, नैतिकता या सांस्कृतिकता का पालन भी पर्याप्त होना चाहिए, जो न तो किसी धर्म-पंथ से बंधी हो और न ही भौतिकतावादी रसातल की ओर ले जाती हो।'
 
विभिन्नताओं को स्वीकार करते हुए शांतिपूर्ण सहअस्तित्व वाले जिस  वैश्विकतावाद के सपने स्तेफ़ान वाइडनर देखते हैं, वह 'वसुधैव कुटुंबकम' की भारतीय अवधारणा से बहुत भिन्न नहीं लगता। वे शायद नहीं जानते कि 'वसुधैव कुटुंबकम' का क्या अर्थ है, पर बार-बार यह ज़रूर कहते हैं कि भगवद गीता से प्रेरित महात्मा गांधी की स्वैच्छिक परित्याग द्वारा स्वयं को स्वतंत्र बनाने की शिक्षा उनके विमर्श का 'सर्वोत्कृष्ट उदाहरण' है। स्वैच्छिक परित्याग के बारे में गांधीजी का कहना था कि हम अपनी ज़रूरतें जितनी सीमित करेंगे, वस्तुओं के संग्रह के बदले अपरिग्रह को जितना महत्व देंगे, उतना ही अधिक स्वतंत्र  होंगे।  
 
वाइडनर भी यही कहते हैं कि 'स्वतंत्र होने का असली अर्थ ढेर सारी चीज़ें जुटाने की छूट नहीं, अपितु सोचने और सत्कर्म की, त्याग और तपश्चर्या की छूट होना चाहिए। धर्म का स्थान नैतिकता या आध्यात्मिकता ले सकती है। अनेकता को कई फूलों की किसी माला की तरह आपस में पिरोया जा सकता है।' वैसे, स्तेफ़ान वाइडनर को भी इस बात में संदेह ही है कि गांधीजी के अपरिग्रह वाले सिद्धांत की तरह ही उनका वैश्विकतावादी विश्व राजनीतिक (कॉस्मोपोलिटिकल) चिंतन भी निकट भविष्य में वाकई कभी साकार हो पाएगा।  
गांधीजी से प्रेरित एक जर्मन का विश्व राजनीतिक चिंतन
Edited by : Vrijendra Singh Jhala
 

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

गांधीजी से प्रेरित एक जर्मन का विश्व राजनीतिक चिंतन