- राघवेंद्र प्रसाद मिश्र
आज जरा-जरा सी बात पर लोकतंत्र को खतरा बताया जाना आम हो गया है। अपने-अपने तरीके से लोग इसकी व्याख्या करने में लगे हैं। जेएनयू से अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर शुरू हुआ विवाद, गुजरात जातीय हिंसा से होते हुए सुप्रीम कोर्ट के जजों तक जा पहुंचा है। इन सभी घटनाक्रमों के चाहे जो भी कारण रहे हों, लेकिन सबमें तर्क यही दिया गया कि लोकतंत्र खतरे में है। ये सभी लोग भारत के उसी लोकतंत्र के खतरे की बात कर रहे है, जहां कर्ज में डूबा किसान आत्महत्या करने को व गरीब भूखे पेट सोने को आज भी मजबूर है। गरीबों और किसानों की समस्याओं पर न कोई लोकतंत्र खतरे में आता है और न ही शासन-प्रशासन अपनी जिम्मेदारी पूरी करता है। आलम यह है कि देश के किसी राज्य से जब भी किसान आत्महत्या की बात सामने आती है तो शासन-प्रशासन स्तर से ऐसे परिवारों को सहयोग की जगह मामले को दबाने का भरसक प्रयास किया जाता है। कई ऐसे मामले हैं जो दबाव के चलते सामने आ ही नहीं पाते। लोकतंत्र में लोक की आत्महत्या हो जाती है पर तंत्र पर कोई फर्क नहीं पड़ता।
फर्क पड़े भी तो क्यों? सच तो यह है कि हमारे जनप्रतिनिधियों को किसानों व गरीबों के वास्तविक हालात का सही अंदाजा ही नहीं है। इसका प्रमाण कई बार हमारी सरकारें गलत आंकड़े पेश करके जनता को दे चुकी हैं। जिस भारत में कर्ज में डूबा किसान आज भी आत्महत्या करने को अभिशप्त है उसी देश के सांसदों-विधायकों को मिलने वाले वेतन व सुविधाएं यहां की गरीबी का मजाक उड़ाने के लिए काफी हैं। ऐसा इसलिए नहीं है कि उनको काफी सहूलियत या सुविधाएं दी जा रही हैं, बल्कि इसलिए है कि प्रचलन से बाहर हो चुकी सुविधाओं के नाम पर माननीयों को भत्ते का भुगतान आज भी किया जा रहा है।
एक आंकड़े के मुताबिक, सांसदों का वेतन 50 हजार प्रतिमाह है। इनको मिलने वाले दूसरे भत्तों को जोड़ दें तो उनका वेतन महीने में लाख से ऊपर पहुंच जाता है। किसी भी सांसद को उसका वेतन और भत्ता मेंबर ऑफ पार्लियामेंट एक्ट 1954 सैलरी, अलाउंस और पेंशन के तहत दिया जाता है। सांसदों को दैनिक भत्ते के रूप में रोजाना दो हजार रुपए मिलते हैं। संवैधानिक भत्ते के रूप में प्रति महीने 45 हजार रुपए का भुगतान किया जाता है। कार्यालय व्यय भत्ते के नाम पर एक सांसद को प्रतिमाह 45 हजार रुपए मिलता है। इसमें से वह 15 हजार रुपए स्टेशनरी और पोस्ट आइटम्स पर खर्च कर सकता है। इसके अलावा अपना सहायक रखने पर वह 30 हजार रुपए खर्च कर सकता है।
इन सबके बावजूद किसी पार्लियामेंट सेशन, मीटिंग या इस ड्यूटी से जुड़ी किसी बिजनेस मीटिंग को अटैंड करने के लिए सांसद को कहीं बाहर जाना हो तो इसके लिए भी उन्हें यात्रा भत्ता दिया जाता है। इसमें रेल, हवाई व बाय रोड यात्रा शामिल है। इसी तरह तीन टेलीफोन, बिजली-पानी, स्वास्थ्य संबंधी सुविधा, वाहन खरीद के लिए खर्च, इनकम टैक्स सुविधा व आवासीय भत्ता जैसी सुविधाएं लगभग मुफ्त के बराबर हैं। ऐसे में सवाल यह है कि जिन माननीयों को इतनी सारी सुविधाएं बिलकुल मुफ्त मिल रही हों उनको गरीब और गरीबी का अहसास कैसे होगा। गरीबी को समझने के लिए जमीन से जुडऩा जरूरी होता है, लेकिन बिडंबना यह है कि हमारे जनप्रतिनिधि जमीन से जुडऩे की जगह इसे भूलना ही बेहतर समझते हैं।
दुख की बात यह है कि इन सबके बावजूद किसी को लोकतंत्र का खतरा नजर नहीं आता। हां, उनको लोकतंत्र के खतरे का अंदाजा तब होता है जब किसी परिस्थितिवश उनका निजी लाभ प्रभावित होने लगता है। 9 फरवरी, 2017 को अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर जेएनयू में भारत विरोधी नारे लगाए गए और जब पुलिस प्रशासन ने इसमें शामिल कन्हैया कुमार, उमर खालिद आदि लोगों पर कानूनी कार्रवाई शुरू की तो इस घटना को नया मोड़ देते हुए लोकतंत्र को खतरा बताया गया। सबका एक ही रोना था कि अभिव्यक्ति की आजादी का हनन हो रहा है। गुजरात विधानसभा चुनाव से पहले राज्य में दलित उत्पीड़न की घटनाओं में बाढ़ सी आ गई थी।
गोरक्षा के नाम पर कई संगठन अस्तित्व में आ गए थे। जैसे ही गुजरात चुनाव खत्म हुआ यहां की सारी समस्याएं खत्म हो गईं। पटेलों का आंदोलन भी शांत हो गया। अब किसी को इस बात की चिंता नहीं है कि यहां यह माहौल बना ही क्यों। इसके पीछे कौन लोग थे। शायद इसी का फायदा नेता उठाते रहे हैं और उठाते रहेंगे। क्योंकि समाज के लोग जब तक इनके इशारे पर नाचते रहेंगे। यह लोग इसी तरह जनता को गुमराह करते रहेंगे। निर्दोष इसी तरह मारे जाते रहेंगे। परिवार इसी तरह उजड़ता रहेगा।
सुप्रीम कोर्ट के चार जज जे. चेलमेश्वर, रंजन गोगोई, एमबी लोकुर व कुर्रियन जोसेफ को लोकतंत्र के खतरे का एहसास तब हुआ जब चीफ जस्टिस दीपक मिश्र ने उनके चहेते केस को दूसरे जज को सौंप दिया। 12 जनवरी, 2018 को देश के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ कि सुप्रीम कोर्ट के जजों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर चीफ जस्टिस पर न केवल आरोप लगाए, बल्कि लोकतंत्र पर खतरे का अंदेशा भी जताया। फिलहाल यह मामला न्यायपालिका से जुड़ा है, इसलिए इसका हल वह खुद ही निकाल लेगा, लेकिन यहां यह बात साफ हो गई कि विधायिका, कार्यपालिका की तरह न्यायपालिका का भी गरीबों से कोई सरोकार नहीं है।
काश, इन चारों जजों के मुद्दों में जजों की कमी व धनाभाव के चलते सुप्रीम कोर्ट तक न पहुंच पाने वाले फरियादियों का दर्द एवं न्यायालयों में लंबित मामले भी जुड़े होते। निजी हित को लोकतंत्र का खतरा बताने से बड़ा खतरा लोकतंत्र के लिए कुछ और नहीं हो सकता। बेहतर होगा अपने निजी मामलों की समस्याओं का हल संवैधानिक तरीके से खुद ही निकाला जाए। इसमें लोकतंत्र को घसीटना किसी भी तरह से न्यायोचित नहीं लगता है।