किसी भी देश में स्वास्थ्य का अधिकार जनता का सबसे पहला बुनियादी अधिकार होता है लेकिन भारत में बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव में रोजाना हजारों लोग अपनी जान गंवा देते हैं। भारत स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में बांग्लादेश, चीन, भूटान और श्रीलंका समेत अपने कई पड़ोसी देशों से पीछे है। इसका खुलासा शोध एजेंसी 'लैंसेट' ने अपने 'ग्लोबल बर्डेन ऑफ डिजीज' नामक अध्ययन में किया है। इसके अनुसार भारत स्वास्थ्य देखभाल, गुणवत्ता व पहुंच के मामले में 195 देशों की सूची में 145वें स्थान पर है।
विडंबना है कि आजादी के 7 दशक बाद भी हमारे देश में स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार नहीं हो सका है। सरकारी अस्पतालों का तो भगवान ही मालिक है! ऐसे हालातों में निजी अस्पतालों का खुलाव तो कुकुरमुत्ते की भांति सर्वत्र देखने को मिल रहा है। इन अस्पतालों का उद्देश्य लोगों की सेवा करना नहीं है बल्कि 'सेवा' की आड़ में 'मेवा' अर्जित करना है। लूट के अड्डे बन चुके इन अस्पतालों में इलाज करवाना इतना महंगा है कि मरीज को अपना घर, जमीन व खेत तक गिरवी रखने के बाद भी बैंक से लोन लेने की तकलीफ उठानी पड़ती है।
अभी कुछ महीनों पहले घटित गुरुग्राम के फोर्टिस अस्पताल का ताजा उदाहरण हमारे सामने है, जहां डेंगू पीड़ित 7 साल की बच्ची के करीब 15 दिनों तक चले इलाज का बिल 16 लाख बताया गया। इसके बाद भी बच्ची की जान नहीं बच सकी। सोचनीय है कि क्या भारत में विकास का पैमाना यह है कि एक गरीब को अपनी बेटी का इलाज करवाने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगाना पड़े। अपना सब कुछ गंवाने के बाद भी बेटी के प्राण न बच सके। ऐसे में उन अभिभावकों पर क्या गुजरती होगी?
दरअसल, हमारे देश का संविधान समस्त नागरिकों को जीवन की रक्षा का अधिकार तो देता है लेकिन जमीनी हकीकत बिलकुल इसके विपरीत है। हमारे देश में स्वास्थ्य सेवा की ऐसी लचर स्थिति है कि सरकारी अस्पतालों में चिकित्सकों की कमी व उत्तम सुविधाओं का अभाव होने के कारण मरीजों को अंतिम विकल्प के तौर पर निजी अस्पतालों का सहारा लेना पड़ता है। देश में स्वास्थ्य जैसी अतिमहत्वपूर्ण सेवाएं बिना किसी विजन व नीति के चल रही हैं। ऐसे हालातों में गरीब के लिए इलाज करवाना अपनी पहुंच से बाहर होता जा रहा है।
गौरतलब है कि हम स्वास्थ्य सेवाओं पर सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी को सबसे कम खर्च करने वाले देशों में शुमार हैं। आंकड़ों के मुताबिक भारत स्वास्थ्य सेवाओं में जीडीपी का महज 1.3 प्रतिशत खर्च करता है, जबकि ब्राजील स्वास्थ्य सेवा पर लगभग 8.3 प्रतिशत, रूस 7.1 प्रतिशत और दक्षिण अफ्रीका लगभग 8.8 प्रतिशत खर्च करता है। दक्षेस देशों में अफगानिस्तान 8.2 प्रतिशत, मालदीव 13.7 प्रतिशत और नेपाल 5.8 प्रतिशत खर्च करता है। भारत स्वास्थ्य सेवाओं पर अपने पड़ोसी देशों चीन, बांग्लादेश और पाकिस्तान से भी कम खर्च करता है।
2015-16 और 2016-17 में स्वास्थ्य बजट में 13 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी, लेकिन मंत्रालय से जारी बजट में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के हिस्से में गिरावट आई और यह मात्र 48 प्रतिशत रहा। परिवार नियोजन में 2013-14 और 2016-17 में स्वास्थ्य मंत्रालय के कुल बजट का 2 प्रतिशत रहा। सरकार की इसी उदासीनता का फायदा निजी चिकित्सा संस्थान उठा रहे हैं। नेपाल और पाकिस्तान जैसे देशों से भी हम पीछे हैं, यह शर्म की बात है। देश में 14 लाख डॉक्टरों की कमी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के आधार पर जहां प्रति 1,000 आबादी पर 1 डॉक्टर होना चाहिए, वहां भारत में 7,000 की आबादी पर मात्र 1 डॉक्टर है। दीगर ग्रामीण इलाकों में चिकित्सकों के काम नहीं करने की अलग समस्या है।
यह भी सच है कि भारत में बड़ी तेज गति से स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण हुआ है। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय देश में निजी अस्पतालों की संख्या 8 प्रतिशत थी, जो अब बढ़कर 93 प्रतिशत हो गई है, वहीं स्वास्थ्य सेवाओं में निजी निवेश 75 प्रतिशत तक बढ़ गया है। इन निजी अस्पतालों का लक्ष्य मात्र मुनाफा बटोरना रह गया है। दवा निर्माता कंपनी के साथ सांठगांठ करके महंगी से महंगी व कम लाभकारी दवा देकर मरीजों से पैसे ऐंठना अब इनके लिए रोज का काम बन चुका है।
यह समझ से परे है कि भारत जैसे देश में जहां आज भी आर्थिक पिछड़ेपन के लोग शिकार हैं, वहां चिकित्सा एवं स्वास्थ्य जैसी सेवाओं को निजी हाथों में सौंपना कितना उचित है? एक अध्ययन के अनुसार स्वास्थ्य सेवाओं के महंगे खर्च के कारण भारत में प्रतिवर्ष 4 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे चले जाते हैं। रिसर्च एजेंसी 'अर्न्स्ट एंड यंग' द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में 80 फीसदी शहरी और करीब 90 फीसदी ग्रामीण नागरिक अपने सालाना घरेलू खर्च का आधे से अधिक हिस्सा स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च कर देते हैं।
भारत में बीमारी के इस बड़े और अनुचित वितरित बोझ का महत्वपूर्ण कारण शहरीकरण, साफ पानी का अभाव, साफ-सफाई, खाद्य असुरक्षा, पर्यावरण क्षरण और व्यापक जाति व्यवस्था जैसे सामाजिक निर्धारकों को पारंपरिक स्वास्थ्य सेवा वितरण से परे जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। भारत के मौजूदा स्वास्थ्य व्यवस्था को सही करने की जरूरत है, खासतौर से कमजोर प्राथमिक स्वास्थ्य प्रणाली, कुशल मानव संसाधन की कमी से निपटना, निजी क्षेत्र के बेहतर विनियमन, स्वास्थ्य पर सार्वजनिक खर्च में वृद्धि, स्वास्थ्य सूचना प्रणाली में सुधार और जवाबदेही के मुद्दे से निपटने की प्रमुख चुनौतियां हैं। इन हालातों में भारत में सभी के लिए स्वास्थ्य सेवा सुनिश्चित करने के लिए स्वास्थ्य सेवा वितरण प्रणाली में क्रांतिकारी परिवर्तन की जरूरत है।
पिछले 1 दशक में प्रमुख स्वास्थ्य संकेतकों पर भारत की प्रगति और कई कमियों को अध्ययन में दस्तावेज किया गया है। यह शोध स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली के साथ संरचनात्मक समस्याओं की पहचान करता है और साथ ही पिछले विशेषज्ञ समूहों की बातों को साबित करता है कि भारत की स्वास्थ्य सेवा वितरण प्रणाली के लिए एक नई क्रांतिकारी दृष्टिकोण की जरूरत है। भारत को स्वास्थ्य जैसी बुनियादी व जरूरतमंद सेवाओं के लिए सकल घरेलू उत्पाद की दर में बढ़ोतरी करनी होगी। सरकार को नि:शुल्क दवाइयों के नाम पर केवल खानापूर्ति करने से बाज आना होगा। साथ ही यह ध्यान रखना होगा कि एम्बुलेंस के अभाव में किसी मरीज को अपने प्राण नहीं गंवाने पड़े। इसके लिए मजबूत जनबल की जरूरत है। जनता को ऐसे प्रतिनिधि को चुनना होगा, जो स्वास्थ्य सेवा जैसी सुविधाओं को आमजन तक पहुंचाने का वादा करें।