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कोहिनूर के किस्से : महारानी एलिजाबेथ के बाद क्यों ट्रेंड कर रहा है कोहिनूर?

हमें फॉलो करें कोहिनूर के किस्से : महारानी एलिजाबेथ के बाद क्यों ट्रेंड कर रहा है कोहिनूर?
, रविवार, 11 सितम्बर 2022 (18:49 IST)
'कोहिनूर' का अर्थ होता है 'रोशनी का पहाड़'। ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ ।। के कोहिनूर मुकुट की चर्चा हो रही है। इस मुकुट या ताज को अब उनके पुत्र प्रिंस चार्ल्स पहनेंगे। दरअसल यह कोहिनूर भारत का था। भारत के कई लोग चाहते हैं कि कोहिनूर को वापस भारत में लाया जाए। बताया जा रहा है कि इस कोहिनूर की वर्तमान में किमत करीब 12 बिलियन डॉलर है। इन सभी कारणों से यह हीरा ट्रेंड कर रहा है। आओ जानते हैं कोहिनूर के किस्से।
 
कई है दावेदार : भारत अकेला देश नहीं है, जो इस हीरे पर दावा जता रहा है। साल 1976 में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने ब्रिटिश प्रधानमंत्री जिम कैलेघन से इसे उनके देश को लौटाने का अनुरोध किया था। इसके अलावा अफगानिस्तान के तालिबान शासक और ईरान ने भी इस पर अपना दावा पेश किया है।
 
कहां से निकला कोहिनूर : माना जाता है कि कोहिनूर हीरा वर्तमान भारत के आंध्रप्रदेश राज्य के गुंटूर जिले में स्थित गोलकुंडा की खदानों से प्राप्त हुआ था। पर यह हीरा खदान से कब बाहर आया? इसकी कोई पुख्ता जानकारी इतिहास में मिलती नहीं है। यह मात्र जनश्रुति या अफवाह ही है। एक अन्य कथा के अनुसार लगभग 3200 ई.पू. यह किसी को हीरा नदी की तली में मिला था। हालांकि यह भी कहा जाता है कि यह प्राचीनकाल की स्यमन्तक मणि है जो श्रीकृष्‍ण के पास थी।
 
अभिशप्त हीरा : कहा जाता है कि यह हीरा 1306 में तब चर्चा में आया जबकि इसको पहनने वाले एक शख्स ने लिखा कि जो भी इंसान इस हीरे को पहनेगा, वो इस संसार पर राज तो करेगा लेकिन इसी के साथ उसका दुर्भाग्य भी शुरू हो जाएगा। हुआ भी यही। यदि इसे स्यमन्तक मणि माने तो श्रीकृष्‍ण से लेकर रानी एलिजाबेथ ।। तक हुआ भी यही है।
 
ब्रिटेन के पास : ब्रिटेन के राजपरिवार के हाल भी किसी से छुपे नहीं हैं। अकाल मौत, कत्ल और बदनामी के कई दौर सहन करने के बाद भी आज यह हीरा इस परिवार के पास ही है। कोह‌िनूर 1849 में ब्रिटिश ईस्ट इंड‌िया कंपनी के हाथ लगा और 1850 में ब्रिटेन की महारानी व‌िक्टोरिया के पास पहुंचा। इसके बाद से ही ब्रिटेन सामाज्य पर मुश्‍किलों का दौर शुरु हुआ और धीरे धीरे ब्रिटेन के सभी उपनिवेश स्वतंत्र हो गए। 
 
रणजीत सिंह के पास था कोहिनूर : बात सन् 1812 की है, जब पंजाब पर महाराजा रणजीत सिंह का एकछत्र राज्य था। एक दिन उनके पास अफगानिस्तान की मल्लिका बेगम वफा बेगम आई और कहने लगी कि मेरे पति शाहशुजा कश्मीर के सूबेदार अतामोहम्मद के कैदखाने में कैद हैं। मेहरबानी कर आप मेरे पति को अतामोहम्मद की कैद से रिहा करवा दें, इस अहसान के बदले बेशकीमती कोहिनूर हीरा आपको भेंट कर दूंगी।...दरअसल महमूद शाह से पराजित हो गया था शाहशुजा। रणजीत सिंह ने महमूद शाह को अतामोहम्मद की कैद से रिहा करवा दिया और कोहिनूर हीरा ले लिया। साथ ही कश्मीर पर भी उनका शासन हो गया। जब तक यह कोहिनूर शाहशुजा के पास था उनके बुरे दिन ही चल रहे थे, लेकिन जब यह हीरा महाराजा रणजीत सिंह के पास आया तो रणजीत सिंह के बुरे दिन शुरू हो गए।
 
अहमद शाह दुर्रानी : शाहशुजा से पहले कोहिनूर हीरा अफगानिस्तान के शहंशाह अहमद शाह दुर्रानी के पास था। अहमद शाह दुर्रानी की 16 अक्टूबर 1772 में मृत्यु हुई। उनकी मौत के बाद उनके वंशज शाहशुजा दुर्रानी के पास यह हीरा था। हमने पहले ही बताया है कि किस तरह शाहशुजा से यह हीरा महाराजा रणजीत सिंह के पास पहुंचा। पर कुछ समय बाद महमूद शाह ने शाहशुजा को अपदस्थ कर दिया दिया था। अहमद शाह अब्दाली का पौत्र था महमूद शाह। इसके पिता का नाम तैमूर शाह और भाई का नाम नाम जमान शाह था। जमान शाह को मारकर महमूद शाह गद्दी पर बैठा था। 1813 ई. में अफगानिस्तान के अपदस्थ शहंशाह शाहशुजा कोहिनूर हीरे के साथ भागकर लाहौर पहुंचा। उसने कोहिनूर हीरे को पंजाब के राजा रणजीत सिंह को दिया एवं इसके एवज में राजा रणजीत सिंह ने शाहशुजा को अफगानिस्तान का राजसिंहासन वापस दिलवाया था।
 
नादिर शाह के पास था कोहिनूर : अहमद शाह दुर्रानी के पहले ईरानी शासक नादिर शाह के पास यह कोहिनूर था। कहते हैं कि नादिर शाह ने ही इस हीरे का नाम 'कोहिनूर' रखा था। नादिर शाह ने यह हीरा सन् 1739 में हासिल किया था। भारत से कोहिनूर ले जाने के ठीक 8 साल बाद यानी 1747 में नादिर शाह की हत्या कर दी गई और कोहिनूर हीरा अफगानिस्तानी शहंशाह अहमद शाह दुर्रानी के पास पहुंच गया।
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नादिर के पहले था शाहजहां के पास कोहिनूर : सन् 1739 में फारसी शासक नादिर शाह भारत आया और उसने मुगल सल्तनत पर आक्रमण कर दिया। उस वक्त दिल्ली पर औरंगजेब का राज था। औरंगजेब शाहजहां का पुत्र था। शाहजहां का एक सिंहासन था जिसे तख्त-ए-ताउस कहते थे। कोहिनूर इस तख्त-ए-ताउस में ही जड़ा हुआ था। जब तक यह शाहजहां के पास था, तब तक उनकी शौहरत, दौलत और साम्राज्य तो बढ़ता ही गया साथ ही दूसरी ओर से दुर्भाग्य भी शुरू हो गया था। शाहजहां ने इस कोहिनूर हीरे को अपने मयूर सिंहासन में जड़वाया था लेकिन उनका विशाल साम्राज्य उनके ही क्रूर बेटे औरंगजेब के हाथ में चला गया। उनकी पसंदीदा पत्नी मुमताज का इंतकाल हो गया और उनके बेटे ने उन्हें उनके अपने महल में ही नजरबंद कर दिया। औरंगजेब जब तख्त पर बैठा तो उस हीरे का असर उस पर भी शुरू हो गया। 1739 में फारसी शासक नादिर शाह भारत आया और उसने मुगल सल्तनत पर आक्रमण कर दिया। इस तरह मुगल सल्तनत का पतन हो गया और नादिर शाह अपने साथ तख्त-ए-ताउस और कोहिनूर हीरे को फारस ले गया।
 
औरंगजेब से पहले तुगलक वंश के पास था कोहिनूर : मुगलों के पहले तुगलक वंश के पास था यह कोहिनूर हीरा। ज्ञात इतिहास के अनुसार सन् 1325 से 1351 ई. तक यह हीरा मोहम्मद बिन तुगलक के पास रहा। इस हीरे के ही कारण उसका साम्राज्य बढ़ा और इस हीरे के ही कारण उसके शासन का बुरी तरह अंत हो गया। यह कोहिनूर हीरा बहुत काल तक भारत के क्षत्रिय शासकों के पास रहा तथा पहले तुगलक वंश और फिर मुगलों के हाथ लगा। मुगलों से यह नादिर शाह के हाथ लगा और फिर शाहशुजा के पास होते हुए महाराजा रणजीत सिंह के पास पहुंचा और अंत में यह महारानी विक्टोरिया को सौंप दिया गया।
 
काकतीय वंश के पास था कोहिनूर : तुगलक वंश के राजाओं के पहले यह हीरा काकतीय वंश के पास था। यह हीरा उनके पास कहां से आया, यह कोई नहीं जानता। इस वंश के राजा ईस्वी सन् 1083 से ही शासन कर रहे थे। 1323 में तुगलक शाह प्रथम से लड़ाई में हार के साथ काकतीय वंश समाप्त हो गया।
 
काकतीय साम्राज्य के पतन के पश्चात यह हीरा 1325 से 1351 ई. तक मोहम्मद बिन तुगलक के पास रहा और 16वीं शताब्दी के मध्य तक यह विभिन्न मुगल सुल्तानों के पास रहा। बाद में शाहजहां के अंत के बाद यह हीरा नादिर शाह ईरान ले गया। नादिर शाह से अहमद शाह दुर्रानी और दुर्रानी से यह शाहशुजा के पास चला गया। शाहशुजा ने इसे रणजीत सिंह को दे दिया था।
 
ग्वालियर के राजा के पास था कोहिनूर : हालांकि इस हीरे का वर्णन 'बाबरनामा' में मिलता है जिसके अनुसार 1294 के आस-पास यह हीरा ग्वालियर के कछवाह राजा के पास था, तब इसका नाम 'कोहिनूर' नहीं था। इसी कारण कछवाह राजाओं को बेहद शक्तिहिन समझे जाने वाले तोमर राजाओं ने हरा दिया था। तोमर राजाओं के पास कोहिनूर जाने के बाद उनका पराक्रम में भी मिट्टी में मिल गया।
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मालवा के राजाओं के पास था कोहिनूर : कहते हैं कि ग्वालियर के राजा के पहले किसके पास था यह अज्ञात है लेकिन फिर इसका वर्णन मालावा के राजा के पास होने का मिलता है। हालांकि इसके कोई पुख्‍ता सबूत नहीं मिलते हैं। कई स्रोतों और शोधानुसार कोहिनूर हीरा लगभग 5,000 वर्ष पहले मालवा के राजा सत्राजित के पास था। सत्राजित भगवान कृष्ण की पत्नी सत्यभामा के पिता थे। इस मणि के चोरी होने का आरोप श्रीकृष्ण पर लगाया गया था जबकि सत्राजित का भाई प्रसेनजित उसे जंगल में लेकर चला गया था। वहां से यह मणि एक सिंह उठा ले ‍गया। सिंह के पास मणि देखकर जाम्बवंतजी ने सिंह को मारकर मणि उससे ले ली और उस मणि को लेकर वे अपनी गुफा में चले गए।
 
तब श्रीकृष्ण ने अपने ऊपर लगे लांछन को मिटाने के लिए मणि की खोज की। इस लोक-निंदा के निवारण के लिए श्रीकृष्ण बहुत से लोगों के साथ प्रसेनजित को ढूंढने वन में गए। वहां पर प्रसेनजित को शेर द्वारा मार डालने और शेर को रीछ द्वारा मारने के चिह्न उन्हें मिल गए। रीछ के पैरों की खोज करते-करते वे जाम्बवंत की गुफा पर पहुंचे और गुफा के भीतर चले गए। वहां उन्होंने देखा कि जाम्बवंत की पुत्री उस मणि से खेल रही है। श्रीकृष्ण को देखते ही जाम्बवंत युद्ध के लिए तैयार हो गया।
 
युद्ध छिड़ गया। गुफा के बाहर श्रीकृष्ण के साथियों ने उनकी 7 दिन तक प्रतीक्षा की, फिर वे लोग उन्हें मरा जानकर पश्चाताप करते हुए द्वारिकापुरी लौट गए। इधर 21 दिनों तक लगातार युद्ध करने पर भी जाम्बवंत श्रीकृष्ण को पराजित न कर सका। तब उसने सोचा, कहीं यह वह अवतार तो नहीं जिसके लिए मुझे रामचंद्रजी का वरदान मिला था। यह पुष्टि होने पर उसने अपनी कन्या का विवाह श्रीकृष्ण के साथ कर दिया और मणि दहेज में दे दी।
 
जामवंत से श्रीकृष्ण को मिली मणि : श्रीकृष्ण जब मणि लेकर वापस आए तो सत्राजित अपने किए पर बहुत लज्जित हुआ। इस लज्जा से मुक्त होने के लिए उसने भी अपनी पुत्री का विवाह श्रीकृष्ण के साथ कर दिया। उन्होंने कहा कि अब आप ही इस मणि को रखिए, तब श्रीकृष्ण ने कहा कि कोई ब्रह्मचारी और संयमी व्यक्ति ही इस मणि को धरोहर के रूप में रखने का अधिकारी है। श्रीकृष्ण जानते थे कि इस मणि को रखने का अर्थ क्या है अत: उन्होंने वह मणि सत्राजित को दे दी। 
 
अक्रूरजी ने ले ली थी मणि : यहां तक तो कहानी सही है, लेकिन कहते हैं कि यह मणि अक्रूरजी ने सत्राजित से ले ली थी। यह भी जनश्रुति है कि कुछ समय के बाद श्रीकृष्ण किसी काम से इंद्रप्रस्थ चले गए। तब अक्रूर तथा ऋतु वर्मा की राय से शतधन्वा यादव ने सत्राजित को मारकर मणि अपने कब्जे में ले ली। सत्राजित की मौत का समाचार जब श्रीकृष्ण को मिला तो वे तत्काल द्वारिका पहुंचे। वे शतधन्वा को मारकर मणि छीनने को तैयार हो गए। 
 
इस कार्य में सहायता के लिए बलराम भी तैयार थे। यह जानकर शतधन्वा ने मणि अक्रूर को दे दी और स्वयं भाग निकला। श्रीकृष्ण ने उसका पीछा करके उसे मार तो डाला, पर मणि उन्हें नहीं मिल पाई। बलरामजी भी वहां पहुंचे। श्रीकृष्ण ने उन्हें बताया कि मणि इसके पास नहीं है। बलरामजी को विश्वास न हुआ। वे अप्रसन्न होकर विदर्भ चले गए। श्रीकृष्ण के द्वारिका लौटने पर लोगों ने उनका भारी अपमान किया। तत्काल यह समाचार फैल गया कि स्यमन्तक मणि के लोभ में श्रीकृष्ण ने अपने भाई को भी त्याग दिया। श्रीकृष्ण इस अकारण प्राप्त अपमान के शोक में डूबे थे कि सहसा वहां नारदजी आ गए। उन्होंने श्रीकृष्णजी को बताया- 'आपने भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के चन्द्रमा का दर्शन किया था, इसी कारण आपको इस तरह लांछित होना पड़ा है।'
 
भगवान सूर्य के पास थी यह मणि : सत्राजित ने यह मणि भगवान सूर्य से प्राप्त की थी। सूर्य से पहले यह मणि इंद्रदेव धारण करते थे। जब तक यह मणि इंद्रदेव के पास थी, उनके भी साम्राज्य में उथल-पुथल होती रही।

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