हिन्दी के प्रसिद्ध कवि रामकुमार चतुर्वेदी ‘चंचल’ की एक पुरानी कविता की पंक्ति है- ‘मैं सुलगते प्रश्नवाचक चिन्ह सा हूं, तुम रही यदि मौन तो उत्तर कौन देगा?’ सारी दुनिया में महामारी ने जो जीवन, समाज, राज व्यवस्था, शासन- प्रशासन, व्यापार-वाणिज्य और उत्पादन वितरण की रोजमर्रा की प्रक्रिया पर इतने सारे प्रश्न चिन्ह सुलगा दिए हैं, जिनसे जूझते रहना ही भविष्य की मनुष्यता के समक्ष अनायस आ खड़ी हुई दिन-प्रतिदिन की खुली चुनौती है। सातों दिन, चैबीसों घंटों गतिशीलता के साथ निरंतर गतिमान रहने वाली समूची मनुष्यता हतप्रभ है। इतने सारे प्रश्नचिन्हों की लपटों को देखकर क्या हम सब इसी तरह सांस के साथ झुलसते रहेंगे या निरापद नागरिक जीवन की कोई राह हमारे अंतर्मन में अंकुरित होगी।
दुनियाभर में सुलगते प्रश्नचिन्हों से हम कैसे हिल मिलकर निपटेंगे यह आज के काल का यक्ष प्रश्न है। मनुष्य सभ्यता के इतिहास में ऐसी वैश्विक चुनौती एक साथ दुनिया की हर बसाहट, बस्ती, दिशा और हर कौने में इतने कम समय में एक साथ इससे पहले कभी इस तरह नहीं आई। क्या महल? क्या झोपड़ी? डर गई हर खोपड़ी! एक ऐसा रोग जिसके बारे में सारी दुनिया एक मत है, इसकी कोई अचूक दवाई आज तक दुनिया खोज नहीं पाई। तो एक ही दवाई तत्काल सारी दुनिया में आपातकाल में मानी गई कि सब घर तक सिमट जाओ ‘स्टे होम’। अपने आपको घर में कैद कर लो।
पर सारी दुनिया में चाहे वो विकसित दुनिया हो, विकासशील हो या विपन्न दुनिया हो, हर एक के बड़े शहर से लेकर छेाटे गांव-कस्बों तक करोड़ों लोग हैं जिनके पास आज तक घर नहीं हैं। वे घरों में कैद कैसे हों तो वे जहां हैं, जैसे हों वैसे ही पड़े रहें। दुनियाभर के लोग जिन छोटे, मझौले और दैत्याकार विमानों से चैबीसों घंटे सारी दुनिया में घूमते रहते थे, उसे दुनियाभर में रोक दिया। ‘न घूमेगा मनुष्य न फैलेगी बिमारी'।
सारी दुनिया में एक अनोखा दृश्य उत्पन्न है। जो घर में है वो भी डर से परेशान है और जो घर में नहीं घर से दूर है वो भी डर से परेशान कि घर नहीं जा पा रहे है। पूरी की पूरी दुनिया के देशों के लोग आशंकित, परेशान और फंसे हुए हैं कि अपने घर या देश जा पाएंगे या नहीं?
अविकसित और विकासशील देशों की युवा पीढ़ी विकसित देशों में पढ़ने-लिखने, उच्च अध्ययन और धन-धान्य से भरपूर निरापद जीवन की तलाश में पिछले कई दशकों से जा रही थी, पढ़ रही थी, अच्छे ऐश्वर्यशाली जीवन को जी रही थी। इस सुलगते प्रश्नचिन्ह ने इन सारे देश-विदेश के जीवन के सपने को ध्वस्त कर दिया। देश को विदेश की चिन्ता विदेश में देश की चिन्ता।
इस घटनाक्रम ने समूची मनुष्यता के बारे में यह महत्वपूर्ण तथ्य स्पष्ट रूप से उजागर कर दिया कि हम सब बहुत गहरे से भयभीत मनुष्य हैं। हमारे समूचे ऐश्वर्य, भौतिक आनन्द साम्राज्य और व्यवस्था तंत्रों, राजा से रंक और शासकों एवं शासितों सभी को एकरूपता से भयग्रस्त कर दिया। यह अंधी महामारी, बीमारी है और हम आंखवाली दुनिया, दिमाग वाली दुनिया, संसाधनों वाली टेक्नोलॉजी से युक्त ताकतवर दुनिया, आधुनिकतम अस्त्र-शस्त्रों, परमाणु बमों से सुसज्जित दुनिया एक छोटे से कालखंड में सारा ऐश्वर्य, संसाधन, तरक्की, तकनीकी और वैज्ञानिक विकास के होते हुए भी अपने आपकों ठगा हुआ महसूस कर रही है। एसी अफरा-तफरी तो मनुष्यकृत आधुनिक विकसित ऐश्वर्यशाली दुनिया में कभी मची ही नहीं। आधुनिक और वैज्ञानिक रूप से विकसित होने के हमारी दुनिया के सारे गर्व या एहसास यकायक ध्वस्त हो गए।
विकास के समुद्र के साथ खड़ी सारी दुनिया अपनी समूची राजनीति, अर्थशास्त्र, विश्व व्यापार, मनोरंजन, पर्यटन, शिक्षा स्वास्थ्य और सामाजिक कल्याण, खान-पान, रहन सहन के संबंध में बुनियादी बदलाव करेगी या कुछ काल बाद पहले जैसे थे वैसी ही अवस्था में हम फिर से पहुंच जाएंगे।
हमारे दार्शनिक, चिंतक और संत हमें समझाते सिखाते आए हैं कि मृत्यु से खतरनाक मृत्यु का भय होता है। भयमुक्त जीवन या चिन्तामुक्त जीवन को आदर्श माना गया है। आज के काल में तो हर सांस ही चिन्ताग्रस्त हो गई है। हमारी हंसी भी बनावटी लगती है। हंसी की ओट में छिपी आशंका हमारे जीवन को आनंद से सरोबार नहीं कर पा रही है।
कैंसर, कुष्ठ रोग, काला ज्वर, फ्लू, चिकनगुनिया, एड्स, बर्ड फ्लू जैसी वैश्विक बीमारियां भी सारे विश्व को इस तरह भयभीत नहीं कर पाई थी जैसे इस महामारी ने समूचे मानव समाज का भयग्रस्त किया है। इस महामारी ने हमारी भाषा और सोच की पोल खोलकर रख दी है। हम एक दूसरे को बीमारी का जिम्मेदार मान रहे है। बीमारी की संक्रामक ताकत को नहीं पहचान पा रहे हैं। एक दूसरे को देख सुनकर भयभीत हो रहे हैं, हमारे मुंह से निकलने वाले सांत्वना के शब्द भी बनावटी एवं भय मिश्रित है।
हमारी त्रासदी यह हो गई है कि हम सब भयग्रस्त है। मैं जो यह सब लिख पा रहा हूं फिर भी मैं यह नहीं कर सकता कि मैं भयग्रस्त नहीं हूं। यहीं से एक वैचारिक पगडंडी मनुष्य के दिल दिमाग में मिलती है कि इस बीमारी से निजात पाने के लिए हमें सतर्क जीवन के साथ भयमुक्त मन की राह की अपने मन के अंदर प्राण प्रतिष्ठा करनी होगी।
जैसे हवाई जहाज उड़ते हुए दुर्घटनाग्रस्त हो जाए तो सभी यात्रियों की अकाल मृत्यु निश्चित होने के बाद भी हम सब हवाई यात्रा को प्रायः निरापद या दुर्घटना की संभावना वाली यात्रा मानते हुए भी बिना डरे हवाई यात्रा करते है। जैसे कार दुर्घटना में सारी दुनिया में प्रतिदिन हजारों मौतें होने के बाद भी कार का होना धनी-मानी और समृद्ध गतिशीलता का प्रतीक मानकर बिना भय के यात्रा करते हैं।
सुनामी से समुद्र किनारे के बड़े शहर के जलमग्न होने के बाद फिर से जीवन समुद्र के किनारे फिर खड़ा हो जाता है। बड़े से बड़े विनाशकारी भूकंप के बाद मनुष्य अपने मुकाम में सोने, रहने, खाने-पीने, उठने-बैठने को जीवन के लिए निरापद मानने लगता है।
जंगल की आग हो या विनाशकारी बाढ़ दोनों ही मनुष्य को न तो डरा पाए न मृत्यु मृत्यु का खौफ खड़ा कर पाए। इन्हें भी मनुष्य जीवन का हिस्सा मानकर ही हम सब चलते हैं। इस वैश्विक महामारी ने भीड़ भरी दुनिया और गतिशील दुनिया को आजीवन सतर्क, चौकन्ना और एक दूसरे के प्रति संवेदनशील होने की नई पगडंडी भी बनाई है। अपने शरीर की ताकत और मन की सतर्कता को चिन्तामुक्त स्वावलम्बी और प्राकृतिक जीवन शायद हमारे मन के भय को दूर करेगा।
बनावटी जीवन के खोखले भय से इस महामारी ने हमारी मुलाकात करवाई है। हमारे पास करोड़ों रुपए का मकान बना पर घर में हम खाने को तरस गए। हमारे पास पैसे थे पर हम कुछ खरीद नहीं सकते थे, सारे बाजार बंद थे। हम अपने आपको असहाय महसूस कर रहे थे क्योंकि आवागमन के सारे साधन बंद थे। इस कालखंड में हमें एक ही साधन प्रचुरता से उपलब्ध है, इन्फॉरमेंशन टेक्नोलॉजी की दुनिया।
इस पर आभासी रूप से हम एक दूसरे से मिल सकते थे, हम जो देखना सुनना चाहे वह सब देख-सुन सकते थे पर जीवन की मूलभूत भूख को शांत नहीं कर सकते थे। शायद आईटी से प्राप्त सूचनाओं की सुनामी में हम सब डूबे हुए तो थे पर हमारे मन की अशांति और भय दूर नहीं हुआ।
इस कालखंड में मनुष्य के अलावा प्रकृति में मौजूद बाकी अन्य जीवों की जिंदगी और दिनचर्या में कोई बड़ा बदलाव नहीं दिखा, वे जैसे जीते आए थे जीते रहे। कहीं-कहीं यह जरूर हुआ जो भीड़ भरी सड़कों पर नहीं आ सकते थे वे शांतिपूर्वक सड़क पर घूमते नजर आए। केवल मनुष्य के सपनों की दुनिया ही ध्वस्त हुई। क्या हम आने वाले कल में अन्य प्राणियों की तरह ही निरंतर बिना भय के चलने वाली एक दूसरे पर संवेदनशीलता के साथ आश्रित जीवन की छोटी-छोटी स्वावलम्बी इकाईयों की अंतहीन श्रृंखलाओं को पुनर्जीवित करेंगे या फिर मनुष्य की जीवन श्रृंखला को भय के भूत के सहारे ही चलते रहने देने के आदि हो जाएंगे।
आज के काल के इस सुलगते प्रश्नवाचक चिन्ह को भयभीत मौन उत्तर नहीं दे सकता। हमारे मन का संकल्प ही हम सबके मन में समाए भूत को अपने जीने के प्राकृतिक स्वावलम्बी नागरिक समाज की अंतहीन श्रृंखलाओं को पूरी धरती पर उतार सकता है। इस धरती पर हम सबका बनावटी उपद्रव कितना कम से कम होगा, उतना ही धरती में भयमुक्त जीवन श्रृंखलाओं का क्रम निरंतरता से जीवंत होता रहेगा।
हमारी धरती बड़ी है हम सबको तृणवत एकजुट रहकर ही भविष्य के कालखंड में जीते रहने की राह का निरापद रास्ता पकड़ना होगा। जगत के विस्तार में जीव की हैसियत एक माइक्रो कण से भी कम है पर जीव के मन का विस्तार जगत से परे भी है। हमारा अंतर्मन भय के भूत से मुक्त हो तभी हम सारी दुनिया में नागरिक जीवन को निरापद बना पाएंगे। (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)