विश्व में खनिज तेल के बढ़ते-घटते भावों पर सटोरियों की पकड़ के कारण और सट्टा बाजार के प्रभावों की चर्चा हम पहले भी कर चुके हैं। ईरानी तेल पर अमेरिकी प्रतिबंधों की खबर से वैश्विक सटोरियों ने तेल के भावों को आसमान पर पहुंचा दिया था किंतु बाद में ईरान पर अमेरिका के रुख में ढील आते ही तेल के भाव धड़ाम से गिरे। यह एक सच्चाई है कि ईरान का तेल जब तक बाजार में उपलब्ध है, तब तक तेल के भाव ऊपर नहीं जा सकते। तेल के भावों का बढ़ना तभी मुमकिन है जबकि तेल उत्पादक देश अपना-अपना उत्पादन कम करने पर सहमत हो जाएं अथवा युद्ध जैसे कोई हालात बन जाएं।
जैसा कि हम पहले भी अपने आलेख में बता चुके हैं कि सटोरियों की वजह से मांग और पूर्ति का सिद्धांत कच्चे तेल के विषय में काम नहीं करता। इसका कारण यह है कि सटोरियों की खरीद/बेच के सौदों के आधार पर मांग के सही-सही आंकड़ों पर नहीं पहुंचा जा सकता। इस लेख का मंतव्य तेल की कीमतों के उतार-चढ़ावों का विश्लेषण करना नहीं है। हम पाठकों को एक दूसरा ही विचार-सूत्र देना चाहते हैं।
आज हम यहां एक ऐसे रोचक तथ्य की चर्चा करेंगे, जहां हम निर्णय नहीं कर सकते कि किसी देश में तेल या अन्य खनिजों के भंडार होना एक वरदान है या अभिशाप? उदाहरण के लिए दक्षिण अमेरिकी देश वेनेजुएला ऐसे ही देशों में से एक है। इसकी जमीन के भीतर दुनिया के तेल भंडार का 20 प्रतिशत भाग मौजूद है। अत: इस देश के पास धन की कमी नहीं है। किंतु विडंबना यह है कि इस देश में गरीबों की भी कमी नहीं है। सचमुच जो कुबेर का देश होना चाहिए था, वह यथार्थ में कंगालों का देश दिखता है!
दुनिया की सबसे खराब अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों में से एक देश है वेनेजुएला। यह देश अपने यहां कुवैत से भी अधिक तेल भंडार होने के बावजूद दुनिया के तेल उत्पादन का मात्र 2 प्रतिशत ही उत्पादन कर पाता है। विभिन्न कारणों जैसे व्यापक कुप्रबंधन, बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार, बुनियादी ढांचे को बनाए रखने में विफलता और विशेषज्ञों के उत्पीड़न और पलायन ने वेनेजुएला के तेल उद्योग को अपंग बना दिया है। परिणाम यह है कि एक संपन्न देश विपन्न बना हुआ है।
ऐसे देशों में जहां खनिज पदार्थों की विपुलता होती है, उस देश की खनिज संपत्ति पर देश की जनता का अधिकार होता है। अत: खनिज पदार्थों से होने वाली आमदनी का एक हिस्सा जनता की सुविधाओं पर खर्च किया जाता है। जैसे ही भाव बढ़ते हैं, आमदनी का एक बड़ा हिस्सा मुफ्त प्रदान की गई सुविधाओं के माध्यम से जनता को मिलने लगता है।
जाहिर है, जहां शिक्षा, स्वास्थ्य इत्यादि सेवाएं मुफ्त हों, खाने का सामान और ईंधन बहुत कम दामों पर उपलब्ध हो तो वहां भला काम कौन करना चाहेगा? मुफ्त सुविधाएं मिलने से पूरे समाज की कार्यक्षमता प्रभावित होती है, कृषि और उद्योगों का विकास नहीं होता, श्रमिक नहीं मिलते। सरकारें अपने वोट बैंक बनाए रखने के लिए मुफ्त सेवाएं बढ़ाती जाती हैं किंतु जब तेल के भावों में गिरावट आती है, तब सरकार की आमदनी सूखने लगती है। मुफ्त सेवाओं के बंद होने से जनता में सरकार के प्रति रोष उत्पन्न होता है और फिर शुरू होता है उत्पातों और लूटमार का दौर। वेनेजुएला ऐसे ही दौर से बार-बार गुजरता रहा है।
भारत जैसे देश के लिए शायद यह एक वरदान है कि हमारे पास हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए खनिज के भंडार तो हैं किंतु इतने भी नहीं हैं कि सरकार उन्हें विश्व बाजार में बेचकर जनता को लाभांश घर बैठे दे दे। घर बैठे खिलाने से आदमी निकम्मा तो हो ही जाता है, जैसा कि हमें वेनेजुएला की उक्त कहानी से सबक मिलता है। सामाजिक योजनाएं और ऋणमाफी जैसे निर्णयों के लिए पैसा मुहैया कराने के लिए भारत सरकार को टैक्स के माध्यम से पैसा उगाहना पड़ता है। यह ऐसा है, जैसे कि एक की जेब काटकर पैसा दूसरे की जेब में डालना। एक को दु:खी कर दूसरे को खुश करना। यह स्थिति इसलिए है कि हमारी जमीन के नीचे खनिजों का खजाना नहीं गड़ा है।
अब प्रश्न यह है कि क्या यह स्थिति भारत के लिए लाभप्रद है। लेखक का मानना है कि बिना मेहनत से पाया गया धन पूरे राष्ट्र को निकम्मा कर सकता है। भारत की उर्वरा भूमि पर पड़ी किसान के पसीने की बूंदों और उद्योगों में श्रमिकों की मेहनत ने ही इस देश को अभी तक तरक्की के मार्ग पर रखा है। कुछ राजनीतिक निर्णय होते हैं, जहां राजनीतिक दल वोटों के लिए कुछ लोकप्रिय घोषणाएं करते हैं। किंतु यह कटु सत्य है कि इन घोषणाओं से भारत कभी समृद्ध नहीं होगा। भारत जैसे देश का विकास हर वर्ग की मेहनत से ही संभव है। दुनिया के राजनीतिक दलों ने मात्र अपने वोटों के खातिर वेनेजुएला जैसे कई देशों की अर्थव्यवस्था को चौपट कर दिया है।
हम उम्मीद करें कि हमारा देश उस आत्मघाती मार्ग पर आगे नहीं बढ़ेगा। देश की जनता को भी समझना होगा कि एक जेब से धन निकालकर दूसरे जेब में डालने से देश कभी समृद्ध नहीं होता। देश समृद्ध होता है उत्पादन से, न कि जमीन में दबे खजाने से!