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ईको सिस्टम बनाम ईगो सिस्टम

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अनिल त्रिवेदी (एडवोकेट)

, सोमवार, 22 अगस्त 2022 (20:19 IST)
ईको सिस्टम और ईगो सिस्टम दोनों ही इस धरती पर जीवन की गुणवत्ता को गहरे से प्रभावित करते हैं। हवा, पानी, प्रकाश, मिट्टी और अनंत रूप-स्वरूप की वनस्पतियों से ईको सिस्टम अस्तित्व में आया। ईको सिस्टम को जीवन का बीज भी कह या मान सकते हैं। इसी तरह मन, विचार, लोभ, लालसा, इच्छा, समृद्धि-प्रसिद्धि, भाव एवं अभाव के साथ ही शक्ति के निरंतर विस्तार से ईगो सिस्टम का जन्म हुआ।
 
मनुष्य तो एक तरह से वनस्पति के परजीवी की तरह ही है। वनस्पति के अभाव में मनुष्य के अस्तित्व की कल्पना ही संभव नहीं है। जीवन के लिए वनस्पति जगत अनिवार्य है। धरती पर वनस्पतियों का अद्भुत संसार अस्तित्व में नहीं होता तो मनुष्य जीवन भी संभव नहीं होता। ईको सिस्टम का अस्तित्व होने से ही मनुष्य जीवन साकार हुआ। ईको सिस्टम ही मनुष्य की जीवनी शक्ति का जन्मदाता है। मनुष्य जीवन के निरंतर अस्तित्व के लिए ईको सिस्टम अनिवार्य है। बिना मनुष्य की उपस्थिति के जो-जो भी इलाके इस धरती पर हैं, वहां का ईको सिस्टम अपने आप में प्राणशक्ति या जीवन की ऊर्जा का शुद्धतम स्वरूप है।
 
मनुष्य की बहुतायत वाले धरती के हिस्से ईको सिस्टम को प्रदूषणमुक्त नहीं रख पाते। मनुष्यविहीन धरती के हिस्से अपने मूल स्वरूप में हमेशा शुद्ध प्राकृतिक ही बने रहते हैं। मनुष्य जीवन की अंतहीन प्रदूषणकारी हलचलों से ऐसा लगता है कि ईको सिस्टम में बदलाव आ रहा है, पर वाकई में ऐसा कुछ समय तक ही सीमित होता है। जैसे ही मनुष्य की विध्वंसक हलचलों में कमी आती है, ईको सिस्टम पुन: यथावत होने की अनंत क्षमता रखता है। फिर भी मनुष्य मन में यह विचार बार-बार आता ही रहता है कि ईको सिस्टम में बदलाव होने लगा है।
 
जैसे-जैसे आधुनिक मनुष्य समाज पेट्रोल-डीजल आधारित वाहनों पर सवार होकर निरंतर आवागमन करने और प्रदूषणकारी कल-कारखानों के साथ रहने का आदी होता जा रहा है, वैसे-वैसे शहरी जीवन में धूल-धुएं का साम्राज्य हमेशा कायम रहता है। परिणामस्वरूप शहरी बसाहटों में वायु और ध्वनि प्रदूषण की अति हो गई है।
 
कोरोना काल के लॉकडाउन में जब वाहनों के दैनंदिन उपयोग में बड़े पैमाने पर कमी आई तो वायुमंडल में मनुष्य जीवन की हलचलों से उत्पन्न प्रदूषण में कमी आई। नतीजा यह हुआ कि ईको सिस्टम पर वाहनों के अतिशय उपयोग से जो तात्कालिक आभासी प्रभाव पैदा हुआ था, वह एकाएक कम होने से हमें वायु प्रदूषण के कारण हिमालय की जो दृश्यावलियां लुप्तप्राय हो गई-सी लगती थी, वे पुन: दिखाई देने लगी यानी उनका अस्तित्व तो था, है और रहेगा भी। पर हमारी अप्राकृतिक हलचलों से हमारी देखने की क्षमता पर तात्कालिक आभासी प्रभाव गहरे से महसूस हुआ।
 
तन-मन की शक्ति से जब तक मनुष्य समाज की दैनिक जीवन की हलचलों का संचालन होता रहा, दुनिया में ईको सिस्टम को लेकर चिंतित होने का भाव नहीं उभरा। अब तन और मन के बजाय उधार की ऊर्जा से चलने वाला रास्ता मनुष्य जीवन का स्थायी भाव बनने लगा तो ईको सिस्टम को बचाने की चर्चा होने लगी। ईको सिस्टम को ज्यों-का-त्यों बचाते हुए समूचा मनुष्य जीवन कैसे चलेगा, इस पर कई बातें दुनिया में उठने लगीं। पर आधुनिक काल में ईको सिस्टम की गिरफ्त में आज के अधिकांश मनुष्य और उनके भांति-भांति के विचार आ गए हैं।
 
युद्ध, आपसी विवाद, असहिष्णुता और राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक, धार्मिक, बौद्धिक कलह और मत-मतांतरों के लिए अंतहीन विवादों का सिलसिला ईगो सिस्टम का स्थायी भाव दिन दूना, रात चौगुना गति से बदल रहा है। इसी से हिंसा, आतंकवादी गतिविधियों और तानाशाहीपूर्ण मनमानी, शासन प्रणाली, मानव जीवन को ईगो सिस्टम के उप-उत्पाद के रूप में निरंतर मिलने लगी हैं। ईगो सिस्टम ने मनुष्य जीवन को जितना व्यक्तिश: अशांत कर दिया है, उससे कहीं ज्यादा सामूहिक रूप से संकुचित और बारहमासी असहिष्णुता का पर्याय बना दिया है।
 
दुनियाभर में मनुष्यों का जीवन ईगो सिस्टम की जकड़बंदी में उलझकर रह गया है। ईको सिस्टम शांति और सहज प्राकृतिक जीवन के साकार रूप की तरह है। हवा, मिट्टी, पानी, प्रकाश और जैवविविधता ने जीवन में मानवीय मूल्यों को आगे बढ़ाया। पर अब मनुष्य के मन में हुई विस्फोटक हलचलों ने ईको सिस्टम को बचाने का नया सवाल जो खड़ा किया है, उसका समाधान तन और मन की शक्ति के इस्तेमाल से मनुष्य जीवन को संचालित करने के प्राकृतिक उपाय में निहित है।
 
व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से प्राकृतिक जीवन अपनाकर ही हम ईको सिस्टम के प्राकृतिक स्वरूप को हमेशा कायम रखने की दिशा में निरंतर बढ़ सकते हैं। महात्मा गांधी का मानना था कि हमारी धरती मां में प्राणीमात्र की जरूरतों को पूरा करने की क्षमता है, पर किसी एक के भी लोभ-लालच को पूरा करने की नहीं। ईको सिस्टम जीवन की अनिवार्यता है, तो ईगो सिस्टम हमारे जीवन का लोभ-लालच।
 
(इस लेख में व्यक्त विचार/ विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/ विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)

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