संयुक्त राष्ट्र का एक संस्थान 'सस्टेनेबल डेवलपमेंट सॉल्यूशन नेटवर्क’ (एसडीएसएन) हर साल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सर्वे करके वैश्विक प्रसन्नता सूचकांक यानी वर्ल्ड हैपीनेस इंडेक्स जारी करता है। कुछ निर्धारित मानकों के आधार पर तैयार किए जाने वाले इस सूचकांक में बताया जाता है कि कौनसा देश कितना खुशहाल है।
इस साल जारी 'वर्ल्ड हैपीनेस इंडेक्स 2020’ में भारत 156 देशों की सूची में 144वें पायदान पर है। अगर संयुक्त राष्ट्र का यह संस्थान खुशहाली के अपने निर्धारित मानकों से हटकर अलग-अलग देशों की मीडिया रिपोर्ट के आधार पर सर्वे करे कि दुनिया भर में कोरोना वायरस का संक्रमण फैलने के बाद कौनसा देश कितना सुखी है, तो निश्चित ही भारत का स्थान सबसे ऊपर होगा।
कोरोना वायरस का संक्रमण दुनिया के तमाम विकसित, विकासशील और पिछड़े देशों के लिए गंभीर चुनौती बना हुआ है। संकट भारत के लिए भी साधारण नहीं है, बल्कि हालात तेजी से भयावह होते जा रहे हैं। संकट से निबटने में देश की स्वास्थ्य व्यवस्था का दर्दनाक खोखलापन, अब तक की इस सबसे बड़ी महामारी का मुकाबला करने के लिए जरूरी संसाधन और सरकार के सोच की सीमाएं पूरी तरह उजागर हो चुकी है।
ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सवालों से बचने के लिए अपनी चिर-परिचित लफ्फाजी और उत्सवप्रियता का सहारा लेते हुए इस आपदा काल को भी एक अखिल भारतीय महोत्सव में बदल दिया है। ऐसा महोत्सव जिसमें वे धार्मिक प्रतीकों और राष्ट्रवाद का तडका लगाते हुए कभी ताली, थाली, घंटी और शंख बजाने का आह्वान करते हैं तो कभी दीया और मोमबत्ती जलाने का।
22 मार्च को जनता कर्फ्यू के दौरान ताली, थाली, घंटी, शंख और ढोल-नगाडों के साथ शुरू हुए 'कोरोना महोत्सव’ की अपार 'सफलता’ के बाद प्रधानमंत्री के आह्वान पर 5 अप्रैल की रात नौ बजे दीये और मोमबत्ती जलाने का देशव्यापी कार्यक्रम भी पूरी तरह 'हिट’ रहा।
प्रधानमंत्री ने दीये और मोमबत्ती जलाने का आह्वान करते हुए सोशल डिस्टेंसिंग पर जोर देते हुए साफ कहा था कि इस दौरान लोग अपने घरों से बाहर निकल कर सड़कों पर इकट्ठा नहीं होंगे। लोगों ने प्रधानमंत्री की अपील पर अपने घरों की लाइटें बंद कर दीये और मोमबत्ती तो लगाए, लेकिन इस मौके पर देश के कई शहरों में प्रधानमंत्री की पार्टी के उत्साही कार्यकर्ताओं ने काफी देर तक जमकर आतिशबाजी भी की। यही नहीं, कई जगह सोशल डिस्टेंसिंग बनाए रखने की प्रधानमंत्री की नसीहत को ठेंगा दिखाते हुए नाचते-कूदते जय श्रीराम, भारतमाता की जय, वंदे मातरम, चाइना वायरस गो बैक और मोदी-मोदी के नारों के साथ मोमबत्ती और मशाल जुलूस भी निकाले गए।
चौतरफा अवसाद और उदासी के माहौल में अपने घरों में दीये और मोमबत्तियां जलाकर संकट की घडी में एकजुटता का प्रदर्शन और समाज में सकारात्मकता का प्रसार करने का प्रधानमंत्री के आह्वान में मौलिकता न होते हुए भी कोई बुराई नहीं थी। यूरोप के कुछ देशों ने भी इस दौर में अपने यहां ताली-थाली बजाने और दीये-मोमबत्ती जलाने जैसे कार्यक्रम किए हैं। लेकिन हमारे यहां तो 5 अप्रैल को रात के नौ बजते ही पूरे देश में दिवाली जैसा माहौल बन गया।
मानवीय संवेदना और एकजुटता प्रदर्शित करने के आयोजन को चारों दिशाओं से आ रहे आतिशबाजी के शोर ने बेहद अमानवीय और घृणास्पद बना दिया। इससे पहले 22 मार्च को जनता कर्फ्यू के दौरान कोरोना योद्धाओं के प्रति सम्मान और कृतज्ञता प्रदर्शन के लिए ताली और थाली बजाने के प्रधानमंत्री के आह्वान का भी ऐसा ही अश्लील हश्र हुआ था। उस आयोजन से भी यही जाहिर हुआ था कि प्रधानमंत्री की मंशा चाहे जितनी सात्विक रही हो, उसका पालन करने वाली उनके समर्थकों की जमात जाहिलों और अमानुषों से भरी हुई है, जो बडे से बडे शोक के मौके पर भी जश्न मनाने में किसी तरह का संकोच नहीं करती है।
फूहड़ता और अश्लीलता का जैसा प्रदर्शन प्रधानमंत्री के समर्थकों की जमात ने किया, वैसी ही निर्लज्जता और अश्लीलता का मुजाहिरा उन तमाम टीवी चैनलों ने भी किया, जो कोरोनो के संकट को भी सांप्रदायिक रंग देने के लिए जमीन आसमान एक किए हुए हैं। जैसे ही रात को घड़ी ने 9 बजाए, वक्त का पहिया मानो थम गया। कोरोना के डरावने आंकड़े टीवी चैनलों के स्क्रीन से गायब हो गए। परपीड़ा का आनंद देने वाली पाकिस्तान की बदहाली गाथा नियमित पाठ भी स्थगित हो गया। भक्तिरस में डूबे तमाम चैनलों के मुग्ध एंकर मुदित भाव से चीख-चीख कर बताने लगे कि देखिए, प्रधानमंत्री के आह्वान पर पूरा देश किस तरह दीपावली मना रहा है।
यहां एक सवाल यह भी उठता है कि जब पूरे देश में लॉकडाउन के चलते सिर्फ अनाज, सब्जी, फल और दवाई की दुकानें खुली हैं तो फिर आतिशबाजी के लिए पटाखों का जखीरा देश के हर गांव और शहर में कैसे पहुंच गया? दीपावली को बीते करीब छह महीने हो चुके हैं, लिहाजा यह भी नहीं माना जा सकता कि लोगों के घरों में बचे हुए पटाखे रखे होंगे।
जाहिर है कि दीपावली का यह जश्न सत्ता और संगठन की सुविचारित योजना के तहत मना है। भाजपा समर्थकों द्वारा दीये जलाने के इस आयोजन को भाजपा के 40वें स्थापना दिवस से जोड़ते हुए सोशल मीडिया पर जारी किए गए पोस्टरों से भी इस बात की तसदीक होती है। कहने की जरूरत नहीं कि मानवता पर आए इतने बड़े वैश्विक संकट की घड़ी में भी क्षुद्र राजनीतिक हितों का साधने के ऐसे उपक्रम की मिसाल दुनिया में और कहीं नहीं मिल सकती।
गौरतलब है कि कोरोना वायरस के जानलेवा संक्रमण से दुनिया भर में अब तक 65 हजार से ज्यादा लोग मर चुके हैं और 12 लाख से ज्यादा लोग कोरोना की चपेट में आकर अपने जीवन के लिए संघर्ष कर रहे हैं। भारत में भी कोरोना वायरस का कहर तेजी से बढते हुए अघोषित तौर पर संक्रमण के तीसरे चरण में पहुंच चुका है। अघोषित तौर पर इसलिए कि कई कारणों से सरकार इसके तीसरे चरण में प्रवेश को स्वीकार करने से बच रही है। आधिकारिक सूचनाओं के मुताबिक अब तक करीब 100 लोग इस बीमारी से मर चुके हैं और कोरोना से संक्रमित लोगों की संख्या चार हजार के आसपास पहुंच चुकी है।
दुनिया भर में जनजीवन पूरी तरह ठप है। अमेरिका और यूरोप के समृद्ध और हर तरह से सक्षम माने जाने देशों में भी दहशत और घबराहट का माहौल है। संक्रमण से बचने के लिए लोग घरों में दुबके हुए हैं। भारत जैसे विकासशील देशों में जहां बड़ी संख्या में गरीब आबादी है, हालात और भी ज्यादा विकट हैं।
बिना किसी तैयारी के अचानक लागू किए गए लॉकडाउन की वजह से देश के महानगरों और बड़े शहरों से लाखों प्रवासी मजदूर अपने-अपने गांवों की ओर पलायन कर गए हैं। खेतों, कारखानों और अन्य क्षेत्रों में काम करने वाले करोड़ों असंगठित मजदूरों के सामने न सिर्फ रोजगार का बल्कि अपना अपने परिवार का पेट भरने का भी संकट खड़ा हो गया है।
पैदल चलकर अपने गांवों की ओर लौटते 50 से ज्यादा लोग भूख से मर चुके हैं। कई इलाकों से भूख से परेशान होकर लोगों के आत्महत्या करने की खबरें आ रही हैं। दूसरी ओर साधन संपन्न तबका है जो लॉकडाउन को भी एक उत्सव की तरह लेते हुए घरों में बैठे-बैठे तरह-तरह की नौटंकियां कर रहा है।
इस प्रकार लॉकडाउन के चलते देश के भीतर ही साफ तौर देश का विभाजन हो गया है। एक देश खाए-अघाए यानी हर तरह से साधन संपन्न अमीर और मध्यम वर्ग का है और एक देश उन लोगों का है जो जिंदा रहने के लिए जरूरी और मूलभूत साधनों से वंचित होने के साथ ही तमाम तरह की दुश्वारियों का सामना कर रहे हैं। पहले का दूसरे से कोई सरोकार नहीं है, यानी वास्तविक अर्थों में 'सोशल डिस्टेंसिंग’।
हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कोरोना काल में 3 अप्रैल को जब तीसरी बार देश के लोगों से मुखातिब हुए थे तब उन्होंने भूख और बेरोजगारी के संकट का सामना कर रहे गरीबों का भी जिक्र किया था और उनके साथ प्रतीकात्मक एकजुटता प्रदर्शित करने के लिए ही दीये और मोमबत्ती जलाने का आह्वान किया था। लेकिन उनके आह्वान पर अमल में उन गरीबों के प्रति चिंता कहीं से भी देखने को नहीं मिली।
कोरोना से संक्रमित लोगों का इलाज कर रहे उन डॉक्टरों और उनके सहयोगी अस्पताल कर्मियों के प्रति भी चिंता के कहीं दर्शन नहीं हुए, जो एक महीने से एन95 मास्क, पीपीई मटीरियल से बने दस्ताने, एप्रिन, कोरोना जांच किट आदि की मांग कर रहे हैं। प्रधानमंत्री के संबोधन में भी डॉक्टरों की इस मांग के प्रति चिंता का लोप था। ऐसे में सवाल है कि बेमौसम दीवाली का यह अश्लील जश्न मनाकर किसके प्रति एकजुटता प्रदर्शित की गई?
कहने की जरूरत नहीं कि भारत आज दुनिया का एक मात्र ऐसा देश है, जहां खाया-अघाया तबका मानवता पर आए इस घोर संकट के दौर में भी उत्सव मना रहा है और देश के मीडिया का एक बड़ा हिस्सा पूरी बेशर्मी के साथ उसके इस जश्न को प्रधानमंत्री की लोकप्रियता से जोड़कर उन्हें महामानव और विश्वनेता के रूप में पेश कर रहा है।
कोई आश्चर्य नहीं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कल देश भर में हुई इस आतिशबाजी और कई जगह जुलूस निकाले जाने की घटना पर एक बार फिर वैसी ही नाराजगी जताए, जैसी उन्होंने 22 मार्च को जनता कर्फ्यू के दौरान जुलूस निकाले जाने पर जताई थी। वह नाराजगी भी कल बेअसर साबित हुई और अब जो नाराजगी जताएंगे वह भी उस समय बेअसर ही साबित होगी जब लॉकडाउन यानी 'कोरोना महोत्सव’ के समापन पर प्रधानमंत्री कोरोना संकट से निबटने के लिए कोई नई उत्सवी पेशकश देश के सामने रखेंगे।
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)