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सवाल पूछे ही नहीं जा रहे हैं, जवाब मिलते जा रहे हैं!

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श्रवण गर्ग

, रविवार, 5 अप्रैल 2020 (11:29 IST)
हवा का रुख़ देखकर लगता है कि लोगों की बेचैनी बढ़ रही है, वे पहले के मुक़ाबले ज़्यादा नाराज़ होने लगे हैं और अकेलेपन से घबराकर बाहर कहीं टूट पड़ने के लिए छटपटा रहे हैं।

मनोवैज्ञानिक आगाह भी कर चुके हैं कि ऐसी स्थितियों में ‘डिप्रेशन’ के मामलों में भी काफ़ी वृद्धि हो जाती है। इनमें घरों में बंद लोगों के साथ-साथ खुली सड़कों पर अपने को और ज़्यादा अकेला और असहाय महसूस करने वाले हज़ारों-लाखों बेरोज़गार और मज़दूर भी शामिल किए जा सकते हैं।

हमारे लिए ऐसा और इतना लम्बा एकांतवास पहला अनुभव है, कम से कम उस पीढ़ी के लिए जो पिछले बीस वर्षों में बड़ी हुई है। पिछले बीस वर्षों में भी देश को कोई ऐसा युद्ध नहीं लड़ना पड़ा है जिसमें किसी ज्ञात या अज्ञात शत्रु से युद्ध के लिए अपने को घरों में क़ैद करना पड़ा हो। चीन के साथ हुए युद्ध की हमें तो याद है पर उसे भी हुए अब साठ साल होने आए।

जैसे-जैसे बैसाखी और अम्बेडकर जयंती नज़दीक आ रही है, सरकार की चिंता कोरोना से ज़्यादा लॉकडाउन से आज़ाद होकर सड़कों पर टूट पड़ने को बेताब भीड़ से निपटने को लेकर बढ़ सकती है।

ईमानदारी की बात तो यह है कि कोरोना के फ़्रैक्चर से चढ़ा पट्टा कब और कैसे काटा जाएगा इस पर बड़े डॉक्टर मौन हैं। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने ज़रूर संकेत दे दिया है कि 14 अप्रैल के बाद लॉकडाउन की समाप्ति जनता द्वारा सरकार के निर्देशों का पालन करने पर निर्भर करेगी।

स्मरण किया जा सकता है कि मुख्यमंत्रियों से हुई वीडियो काँफ्रेंसिंग के बाद प्रधानमंत्री की ओर से सबसे ज़्यादा तारीफ़ ठाकरे की तरफ़ से आए सुझावों की की गई थी। उद्धव के सुझावों को व्यापक संदर्भों में भी पढ़ा जा सकता है कि पट्टा काटने के बाद केवल बैसाखियों पर टहलने की ही छूट दी जा सकती है।

इस बात का पता चलना शेष है कि कम से कम उन मुख्यमंत्रियों की ही ओर से जो सोनिया गांधी का ‘ही कहा’ या ‘कहा भी’ मानते हैं केंद्र को कठघरे में खड़ा करने या विचलित करने वाला ऐसा एक भी सवाल प्रधानमंत्री या उनके साथ बैठे लोगों से पूछा गया हो जिसका कि जवाब उनके राज्य की जनता मांग रही है।

पत्रकारों की तरह दबी ज़ुबान में ही सही पूछा जा सकता था कि क्या स्थिति नियंत्रण में है और सामान्य की तरफ़ लौट रही है? ख़स्ता वित्तीय हालात किस तरह संभलने वाली है? फसलें खड़ी हैं, मज़दूर ग़ायब हैं। इस बात पर केवल खेद ही व्यक्त किया जा सकता है कि जिन सवालों के जवाब माँगे जाने चाहिए उन्हें कोई पूछने की हिम्मत भी नहीं कर रहा है, विपक्ष भी नहीं। और जो कुछ कभी पूछा ही नहीं गया उसके जवाब हर तरफ़ से प्राप्त हो रहे हैं। इस बीच भूलना नहीं है कि आज रात नौ बजे नौ मिनट के लिए बिना बेचैन हुए हम सबको क्या करना है।
 

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