Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
webdunia
Advertiesment

वैक्सीन पर राजनीति से देश के नागरिक और राज्य सरकारें संकट में

हमें फॉलो करें वैक्सीन पर राजनीति से देश के नागरिक और राज्य सरकारें संकट में
webdunia

अनिल जैन

, सोमवार, 7 जून 2021 (09:00 IST)
दुनिया के तमाम देशों में भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जिसकी सरकार ने कोरोना की वैश्विक महामारी से निबटने के सिलसिले में हर फैसला अपने राजनीतिक नफा-नुकसान को ध्यान में रखकर और अपनी छवि चमकाने के मकसद से किया है। यही वजह है कि इस समय देश में चौतरफा हाहाकार मचा हुआ है। अस्पतालों में बिस्तरों की कमी, दवाओं को लेकर सरकारी विशेषज्ञों की तरफ से बनी भ्रम की स्थिति जरूरी दवाओं और ऑक्सीजन के अभाव में तो बड़ी संख्या में लोग मरे ही हैं और अभी भी मर रहे हैं। इसके साथ ही कोरोना वैक्सीनेशन का अभियान भी बुरी तरह लड़खड़ा गया है।
 
केंद्र सरकार ने जिस तरह नोटबंदी और जीएसटी के फैसलों देश की अर्थव्यवस्था को तबाह किया, उसी तरह उसने अपनी वैक्सीन नीति में बार-बार बदलाव करते हुए न सिर्फ देश की जनता के स्वास्थ्य को बल्कि राज्य सरकारों को भी आर्थिक रूप से संकट में डाल दिया है। गंभीर सवाल यह खड़ा हो गया है कि देश के हर नागरिक को निकट भविष्य में वैक्सीन लग पाएगी या नहीं?
 
गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने भी केंद्र सरकार की वैक्सीन नीति को लेकर गंभीर सवाल उठाए है। सर्वोच्च अदालत ने कोविन पोर्टल पर रजिस्ट्रेशन की अनिवार्यता से लेकर वैक्सीन के दाम और राज्यों की खरीद के मसले तक पर केंद्र से सवाल पूछे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने खासतौर पर सवाल किया कि पूरे देश में वैक्सीन के दाम एक क्यों नहीं होने चाहिए और देश के सभी लोगों को वैक्सीन कब तक लग जाएगी? लेकिन सरकार इन सवालों के कोई तार्किक और संतोषजनक जवाब नहीं दे पा रही है।
 
पिछले साल अगस्त में दुनियाभर के तमाम देशों ने वैक्सीन के ऑर्डर देने शुरू कर दिए थे। विकसित देशों ने तो अपनी आबादी से कई गुना ज्यादा वैक्सीन की डोज के ऑर्डर दिए थे। उस समय भारत सरकार ने राज्यों से यह तो कह दिया था कि वे वैक्सीन नहीं खरीद सकते हैं, सारी खरीद केंद्र सरकार करेगी, लेकिन एक डोज का भी ऑर्डर नहीं दिया। कुछ समय बाद जब कई देशों में वैक्सीनेशन अभियान शुरू हो चुका था, तब हमारे यहां प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार के दूसरे मंत्री विभिन्न मंचों से यह ढींग हांकने में ही लगे थे कि भारत ने कोरोना महामारी पर विजय हासिल कर ली है। साल खत्म होने तक भारत सरकार ने वैक्सीन का कोई बड़ा ऑर्डर किसी कंपनी को नहीं दिया।
 
हालांकि बताया जा रहा था कि 3 भारतीय कंपनियां वैक्सीन बनाने पर काम कर रही हैं। प्रधानमंत्री मोदी खुद माइक्रो बायोलॉजिस्ट की तरह तीनों कंपनियों के लैब्स का मुआयना करने गए। जनवरी तक 2 कंपनियों की वैक्सीन तैयार भी हो गई, पर प्रधानमंत्री गृह प्रदेश वाली तीसरी कंपनी की वैक्सीन का क्या हुआ, आज तक किसी को पता नहीं।
 
बहरहाल 2 कंपनियों की वैक्सीन से जैसे-तैसे जनवरी के तीसरे हफ्ते में बड़ी धूमधाम से समारोहपूर्वक वैक्सीनेशन अभियान शुरू किया गया।
 
प्रधानमंत्री मोदी ने रोजाना 10 लाख लोगों को वैक्सीन लगाने का लक्ष्य घोषित करते हुए दावा किया कि यह दुनिया का सबसे बड़ा टीकाकरण अभियान है और इस मामले में भी भारत पूरी दुनिया का नेतृत्व कर रहा है। कोरोना महामारी के खिलाफ लड़ाई का वैश्विक नेता बनने के फेर में ही भारत में बनी वैक्सीन कई देशों को निर्यात भी की गई, तो कुछ देशों को सहायता के तौर पर भी भेजी गई। इसका नतीजा यह हुआ कि महज 3 महीने बाद ही भारत में जारी वैक्सीनेशन अभियान पटरी से उतर गया।
 
देशभर में वैक्सीन की किल्लत शुरू हो गई। वैक्सीन को लेकर मचे हाहाकार के बीच ही आ गई कोरोना की दूसरी लहर, जो पहली लहर से भी कहीं ज्यादा मारक साबित हुई। चूंकि प्रधानमंत्री मोदी 5 राज्यों के चुनाव खासकर बंगाल जीतने के अपने महत्वाकांक्षी अभियान में व्यस्त थे, लिहाजा राज्यों से कह दिया गया कि वे अपनी जरूरत की वैक्सीन खुद खरीदें और वह भी कंपनियों की तय की हुई कीमत पर। लेकिन यह फरमान जारी करते हुए यह भी नहीं सोचा गया कि राज्य सरकारों की आर्थिक स्थिति पहले ही डांवाडोल है। उन्हें जीएसटी से प्राप्त राजस्व में उनका हिस्सा भी केंद्र सरकार से नहीं मिल रहा है। ऐसे में वैक्सीन खरीदने की जिम्मेदारी को वहन करना आसान नहीं होगा, क्योंकि इस पर अरबों रुपए खर्च होंगे।
 
 
 
वैक्सीनेशन अभियान शुरू होने तक महामारी से निबटने की पूरी कमान अपने हाथ रखने वाली केंद्र सरकार की ओर से कहा जाने लगा कि स्वास्थ्य तो राज्यों का विषय है, इसलिए वे अपने-अपने स्तर पर फैसले लें। हर मौके पर सरकार के ढिंढोरची की भूमिका निभाने वाला कॉर्पोरेट मीडिया, जो महामारी की शुरुआत से लेकर वैक्सीनेशन अभियान शुरू होने तक प्रधानमंत्री मोदी को कोरोना के खिलाफ लड़ाई के वैश्विक महानायक के तौर पर पेश कर रहा था, उसने भी सरकार के सुर में सुर मिलाते हुए कोरोना की दूसरी लहर और वैक्सीन की किल्लत से मचे चौतरफा हाहाकार के लिए राज्य सरकारों को जिम्मेदार ठहराना शुरू कर दिया। बहरहाल सरकार के इस फैसले को एक महीने से ज्यादा का समय बीत जाने के बाद राज्य सरकारें अभी तक वैक्सीन की एक भी डोज नहीं खरीद पाई है।
 
भारत में वैक्सीन बना रहीं कंपनियों से भी उन्हें कुछ हासिल नहीं हुआ है और बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने तो बात करने से ही मना कर दिया है। अमेरिका की कंपनियों ने राज्यों से कहा है कि वे राज्यों के बजाय सीधे भारत सरकार से ही बात करेंगी। यह स्थिति बताती है कि वैक्सीन को केंद्र और राज्यों के बीच जरा भी तालमेल नहीं है। इससे यह भी पता चलता है कि केंद्र सरकार ने अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ते हुए किस तरह राज्यों को उनके हाल पर छोड़ दिया है।
 
ऐसे में सवाल उठता है कि वायरस का संक्रमण रोकने के लिए वैक्सीन लगाने की जिम्मेदारी राज्यों पर डालना क्या राजनीतिक फैसला है? वैक्सीनेशन के मामले में भारत सरकार को सलाह देने के लिए गठित समूह 'द नेशनल टेक्निकल एडवाइजरी ग्रुप ऑन इम्युनाइजेशन' के चेयरमैन एनके अरोड़ा का कहना है कि 18 से 44 साल की आयु वालों को वैक्सीन लगाने का फैसला राजनीतिक था। अब अगर भारत सरकार के सलाहकार समूह का मुखिया यह कहे कि 18 से 44 साल वालों के लिए वैक्सीनेशन शुरू करने का फैसला तकनीकी सलाह पर आधारित नहीं था और यह फैसला राजनीतिक लगता है तो उनका बयान यह मानने का मजबूत आधार बनता है कि केंद्र सरकार वैक्सीनेशन को लेकर भी राजनीति कर रही है। अरोड़ा का कहना है कि तकनीकी समूह का फोकस इस बात पर था कि 45 साल से ऊपर वालों को प्राथमिकता के साथ वैक्सीन लगाई जाए।
 
ध्यान रहे 45 साल से ऊपर वालों को वैक्सीन लगाने के लिए पर्याप्त मात्रा में डोज उपलब्ध थीं। इसके अलावा लोगों को सरकारी अस्पतालों में मुफ्त में और निजी अस्पतालों में बहुत कम कीमत पर वैक्सीन लगाई जा रही थी। सीरम इंस्टीट्यूट के कार्यकारी निदेशक सुरेश जाधव का भी कहना है कि सरकार ने बिना सोचे-समझे 18 से 44 साल के लोगों के लिए वैक्सीनेशन की इजाजत दे दी जबकि उसे पता था कि इनके लिए वैक्सीन उपलब्ध नहीं है। सरकार के इस फैसने ने ऐसा संकट खड़ा कर दिया है जिससे निकलना फिलहाल मुश्किल ही है। इस फैसले पर केंद्र में स्वास्थ्य सचिव रहीं के. सुजाता राव ने हैरानी जताते हुए कहा कि इससे पहले हर वैक्सीनेशन या महामारी के समय दवा और वैक्सीन का इंतजाम भारत सरकार ने किया है।
 
यह पहली बार हो रहा है कि सरकार ने इस तरह से महामारी के समय राज्यों पर जिम्मेदारी डाली हो। ऐसे में सवाल यही है कि राज्यों पर जिम्मेदारी डालने का यह फैसला क्या यह सिर्फ छवि बचाने के लिए किया गया है या केंद्र सरकार को अंदाजा हो गया था कि वैक्सीन उपलब्ध नहीं होगी और होगी तो बहुत ऊंची कीमत पर, इसलिए उसने अपनी जिम्मेदारी राज्यों पर थोप दी? जो भी वजह रही हो, लेकिन यह तो तय है कि एक बेहद बुरी मिसाल कायम हुई है। इस मिसाल से जहां दुनियाभर में भारत की छवि पर बट्टा लगा है, वहीं देश में वैक्सीनेशन को लेकर अनिश्चितता का माहौल बना है और लोगों के स्वास्थ्य को लेकर भी एक तरह का संकट खड़ा हो गया है।
 
अब इसका कोई अंदाजा नहीं लगा सकता है कि देश के हर नागरिक को वैक्सीन लगाने पर कितना खर्च आएगा।भारतीय स्टेट बैंक ने एक मॉडल बनाकर खर्च का अनुमान लगाया है। उसने 5 डॉलर से लेकर 40 डॉलर तक वैक्सीन की कीमत का पैमाना तय करके जो अनुमान लगाया है, उसके मुताबिक देश के हर नागरिक को वैक्सीन लगवाने में अधिकतम 3 लाख 70 हजार करोड़ रुपया खर्च होगा। उसके आकलन के मुताबिक बिहार में कुल बजट खर्च का 12 फीसदी हिस्सा सिर्फ वैक्सीनेशन पर खर्च हो सकता है। उसने इसी तरह के अनुमान अलग-अलग राज्यों के लिए भी जाहिर किए हैं। इस अनुमान को भी अंतिम नहीं माना जा सकता, क्योंकि किसी को पता नहीं है कि आने वाले दिनों में वैक्सीन किस दर पर मिलेगी?
 
कई राज्यों ने वैक्सीन के लिए जो ग्लोबल टेंडर डाले हैं और वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों के प्रतिनिधियों से उनकी जो बात हो रही है, उससे पता चल रहा है कि कंपनियां कई गुना ज्यादा दाम बता रही हैं। ऐसे में सवाल है कि अगर ग्लोबल टेंडर में भारत की कंपनियां नहीं शामिल होती हैं या कम वैक्सीन की आपूर्ति करती है और विदेशी कंपनियां कई गुना ज्यादा कीमत मांगती है तो राज्य सरकारें क्या करेंगी? दुनिया की ज्यादातर वैक्सीन बनाने वाली कंपनियो ने अन्य देशों के साथ पहले से करार किया हुआ है और एडवांस लिया हुआ है। उन्हें पहले अपना वह करार पूरा करना होगा। इसलिए आने वाले दिनों में वैक्सीन का बड़ा संकट खड़ा होगा। यह स्वास्थ्य का संकट भी होगा और आर्थिक संकट भी।
 
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

छह शहर जिन पर 2050 तक निरंतर बाढ़ का खतरा